नेचर

गौ-मांस भक्षण और कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म

संजय मिश्र

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प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बड़े प्यार से कहा कि कर्नाटक चुनाव का नतीजा कांग्रेस की विचारधारा की जीत है। वे सेक्यूलरिज्म का ही जिक्र कर रहे थे। मुख्यमंत्री बनते ही सिद्धारमैया ने गौ-हत्या पर राज्य में लगे प्रतिबंध को उठा लिया। बतौर सीएम ये उनका पहला निर्णय था। यानि कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म की कोर कंसर्न में गौ-मांस भक्षण को बढ़ावा देना शामिल है। कर्नाटक से बहुत दूर नहीं है गोवा। वहां भी कांग्रेसजन अपने सहयात्री एनसीपी नेताओं के सहारे लोगों को सस्ता भोजन उपलब्ध कराने के लिए गौ-हत्या पर प्रतिबंध उठाने के लिए उतावले हो राजनीतिक और कोर्ट-कचहरी के मोर्चों पर सक्रिय हैं।

क्या कांग्रेस ने मान लिया है कि फुड सेक्यूरिटी बिल के सहारे देश को दो जून की रोटी देना संभव नहीं है? तो क्या इसी खातिर कांग्रेस सरकार गौ-मांस परोसने की चिंता में दुबली होती जा रही है? आप कहेंगे कि इस देश के एफसीआई गोदामों में अनाज सड़ रहे हैं जिन्हें कोर्ट की फटकार के बावजूद जरूरत मंदों के बीच यूपीए सरकार नहीं बांट पाई है। आप सोच रहे होंगे कि बाबरी विध्वंस के बाद से नाराज चल रहे मुसलमानों के वोट हासिल करने के लिए गौ-मांस के प्रबंध की सारी कवायद हो रही है। पर मुसलमानों की खुशामद तो एक पक्ष है… इस एक तीर से अनेक निशाना साधा जाता है और ये खेल पुराना है।

कांग्रेस के अलावा वामपंथियों, समाजवादियों, दलितवादियों और पिछड़ावादियों के सामुहिक राजनीतिक हित इस बात पर कंवर्ज करते कि हिंदू आस्था कमजोर पड़ी रहे। इनका आकलन है कि गौ-हत्या जारी रखने और ब्राम्हणों पर गौ-भक्षी होने का इल्जाम लगाते रहने से इस देश के हिन्दू हतोत्साहित रहेंगे। पर इस मुद्दे से पिछड़ावादी दूरी बना लेते और इसका समर्थन नहीं करते। पिछड़ावादी मोटे तौर पर कृष्ण के गौ-प्रेम को भुला नहीं पाते। लेकिन इस देश के दलितवादी हिंदू धर्म को अपने पतन का कारण बता इसे नेस्त-नाबूत करने की अभिलाषा रखते। दलितवादी अंबेदकर के कारण बुद्ध धर्म में आस्था रखते हैं लिहाजा कई विश्वविद्यालयों में गौ-भक्षण उत्सव मनाने की जिद पर विवाद उठता रहता है। अंबेदकर खुद ब्राम्हणों की अहिंसा पर जोर देने की नीति को साजिश बताते रहे।

कांग्रेसी मानते हैं कि इंडिया तो बस ६५ साल का देश है…लिहाजा इस देश के पुरातन इतिहास के गौरव से लगाव किय बात का। वामपंथी इस बात से उत्साहित हुए कि हिन्दू धर्म रिवील्ड नहीं है… लिहाजा उनमें आस जगी कि हिन्दुओं में अपने जीवन शैली के प्रति अनुराग खत्म कर उन्हें वाम मार्ग में दीक्षित किया जाए। कुछ हद तक वो सफल भी हुए। यही कारण है कि इन राजनीतिक वर्गों के साझा हित की झलक वामपंथियों के लिखे इतिहास की सरकारी किताबों में आपको मिल जाएंगे। असल में इंदिरा गांधी ने जब सत्ता संभाली तो कांग्रेस में अपना वर्चस्व जमाने के लिए कई कल्याणकारी फैसले किए। वामपंथियों को ये कदम सुखद लगे और उसी समय इन्होंने न सिर्फ इंदिरा का समर्थन किया बल्कि शैक्षिक संस्थानों में जो पैठ बनाई वो अभी तक बनी हुई है। साहित्य और मीडिया में भी मौजूदा समय तक इन्हीं विचारों से लैस लोगों की पकड़ है।

इनकी हठधर्मिता इस हद तक है कि अगर आपने गौ-मांस नहीं खाया तो आप प्रगतिशील कहलाने के काबिल नहीं। पाणिनी का नाम लेकर बड़े ही चाव से ये बखान करते कि गोघ्नशब्द का जुड़ाव उस पाहुन से है जिसे गाय का मांस खिलाया जाता था। जबकि पाणिनी ने जो सूत्र गोघ्नं संप्रदाने…. दिया है वो मेहमानों को उपहार में गौ मिलने के संदर्भ को बताता है। वेद में ही गाय अघ्न्य यानि नहीं मारी जाने वाली कही गई।

डी एन झा ने गौ-भक्षण पर किताब लिखी। इसे हथियार के तौर पर वामपंथियों ने इस्तेमाल किया। डी एन झा लोगों को बताते रहे कि आर्य समाज आंदोलन के बाद गौ पूजनीय हुई। यानि ब्राम्हण ( हिन्दू) तब तक ( १९ वीं सदी तक ) गौ भक्षण करते रहे। वे इस तथ्य को छुपा गए कि खुद मैक्स-म्यूलर को वेद में डेढ़ दर्जन स्थलों पर गाय को नहीं मारने के संकेत मिले। सच तो ये है कि वेद के ब्रम्ह भाव में ही गाय अहिंसा की प्रतिमूर्ति बन चुकी थी। अब एनसीईआरटी के क्लास ग्यारह के प्राचीन भारत (१९७७ संस्करण) में पेज ४७ का ये अंश पढ़ें— लोग गौ-मांस तो अवश्य खाते थे, किन्तु सुअर का मांस अधिक नहीं खाते थे—- । इस अंश से कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म के मंसूबों को आसानी से समझा जा सकता है।

दरअसल हिन्दू धर्म को प्रगतिबाधक मानने वाले वामपंथियों को विवेकानंद इसलिए महान नजर नहीं आए कि उन्होंने दुनिया के सामने वेदांत की धाक जमाई बल्कि इसलिए कि विवेकानंद ने गाय का मांस खाया था। यंग बंगाल आंदोलन के कर्ता-धर्ता और थोड़ी बहुत कविताएं लिखने वाले हेनरी डेरोजिए इसलिए महान हो गए क्योंकि वे ब्राम्हणों को देखते ही गाय खाबो, गाय खाबो कह कर चिढ़ाते थे। चितरंजन दास ने गाय का मांस नहीं खाया इसलिए महानता में चूक गए… इसी तरह राजेन्द्र बाबू पिछड़ गए… पर वामपंथियों की नजर में गाय का मांस खाने वाले मोती लाल नेहरू महान हो गए।

अब थोड़ी बात वामपंथ के असर में तर-बतर अंग्रेजी पत्रकारों और बौद्धिकों की करें। बीफ शब्द से इन्हें इतना लगाव है कि जब किसी शहर में कानून व्यवस्था की समस्या आ जाती है तो ये लिखते हैं— सेक्यूरिटी बीफ्ड अप— न कि– सेक्यूरिटी स्टेप्ड अप। जबकि इंगलैंड में बीफ अप शब्द को गंवारों का शब्द माना जाता है। सच तो ये है कि वहां इस शब्द का चलन अब नहीं है। पर इंडिया में सेक्यूलरवादी इस शब्द को पवित्र वस्तु की तरह देखते हैं। इसी तरह ये लोग काऊ बेल्ट– शब्द का इस्तेमाल करते हैं। इन शब्दों के सचेत चयन का मकसद आसानी से समझा जा सकता है।

संजय मिश्रा

लगभग दो दशक से प्रिंट और टीवी मीडिया में सक्रिय...देश के विभिन्न राज्यों में पत्रकारिता को नजदीक से देखने का मौका ...जनहितैषी पत्रकारिता की ललक...फिलहाल दिल्ली में एक आर्थिक पत्रिका से संबंध।

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