इन्फोटेन

चला गया ‘जाने भी दो यारो’ का यार

नवीन पाण्डेय, नई दिल्ली

रवि वासवानीं नहीं रहे- इस दुखभरी खबर ने अचानक चौंका भी दिया। मुश्किल से यकीन हुआ कि ‘जाने भी दो यारो’ का वो प्रोफेशनल फोटोग्राफर सुधीर अब हमारे बीच नहीं रहा। नए जमानों के युवाओं को शायद रवि वासवानी को पहचानने में भी दिक्कत हो, लेकिन अस्सी के दशक के जिन संभावनाशील अभिनेताओं ने बाद में मजबूती से अपनी जगह बनाई रवि वासवानी भी उनके ही टक्कर के अभिनेता रहे। हालांकि उनको वाजिब जगह तो नहीं मिल पाई, पर उनके कुछ कैरेक्टर कमाल के रहे। कॉमेडी में उनकी टाइमिंग के तो सभी कायल थे। इसके साथ ही रवि ने खास तरह की आवाज के जरिए कॉमेडी में काफी प्रयोग किए थे। 1983 में आई फिल्म ‘जाने भी यारो’ के बिना ऑल टाइम हिट्स कॉमेडी फिल्मों की लिस्ट पूरी हो ही नहीं सकती। कुंदन शाह की इस लोटपोट कर देने वाली फिल्म के लिए रवि वासवानी को 1984 में ‘बेस्ट कॉमेडियन’ का फिल्म फेयर मिला था। इस अवार्ड की अहमियत इसलिए भी कुछ ज़्यादा हो जाती है क्योंकि उस फिल्म में रवि वासवानी को टक्कर दे रहे थे- नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी और सतीश शाह जैसे मंझे हुए कलाकार। उनके बीच बेस्ट कॉमेडियन का अवार्ड पाना साबित करता है कि रवि वासवानी ने धमाकेदार शुरुआत की थी। हालांकि उससे पहले 1981 में आई सईं परांजपे की फिल्म ‘चश्मे-बद्दूर’ से रवि अपनी काबिलियत का अहसास करा चुके थे। फारुख शेख, दीप्ति नवल और राकेश बेदी जैसे किरदारों के बीच रवि वासवानी का अभियन बेहद सधा हुआ था। इसके बाद 1986 में आई उनकी फिल्म ‘लव-86’ और ‘घर संसार’, ‘मैं बलवान’, 1987 में ‘जेवर’, 1988 में ‘पीछा करो’ से रवि वासवानी ने अपनी पहचान मजबूत की। इस दौरान दूरदर्शन पर आने वाले कई सीरियलों ने उनको घर घर में लोकप्रिय कर दिया था- खासतौर पर ‘श्रीमान एवं श्रीमती’ में भौंदू पति के किरदार ने उनको रातों रात लोकप्रिय बना दिया। इसके बाद वो लगातार बूद्धू बक्से से जुड़े रहे और वहां एक तरह से अपना स्टारडम पैदा किया। उस दौर में कॉमेडी सीरियलों के निर्माता उनके पीछे लाइन लगाए हुए रहते थे, लेकिन रवि के पास डेट्स की समस्या हुआ करती थी। नब्बे के दशक तक आते नए नए कॉमेडियनों की भरमार हो गई थी और इस दौरान में आने वाले अभिनेता कॉमेडी की जिम्मेदारी भी खुद ही उठाने लगे। इसलिए फिल्मों में स्पेशलिस्ट कॉमेडियन का किरदार कम होता चला गया। फिर भी रवि वासवानी ने 1993 में ‘कभी हां कभी ना’, 1994 में ‘लाड़ला’, 1998 में ‘जब प्यार किसी से होता है’, 1998 में ‘छोटा चेतन’, सन 2000 में ‘चल मेरे भाई’, 2001 में ‘प्यार तूने क्या किया’ जैसी फिल्म कीं। 2005 में आई सुपरहिट ‘बंटी और बबली’ में भी उनकी छोटी सी भूमिका थी। 2006 में उनके दोस्त नसीरुद्दीन शाह ने जब ‘यूं होता तो क्या होता’ बनाई तो रवि वासवानी की उसमें शानदार भूमिका रही। 2006 में ‘एंथनी कौन है’, रवि वासवानी की परदे पर आई अंतिम फिल्म थी। इस दौर तक आते आते ही उनकी सेहत भी जवाब देने लगी थी, फिर भी वो अपने पहले प्रेम रंगमंच के लिए समय निकालते रहे।

रवि वासवानी फिल्मों में ही हंसोड़ नहीं थे, बल्कि असल जिन्दगी में भी वो बेहद जिन्दादिल इंसान थे। लेकिन 27 जुलाई 2010 को दिल का दौरा पड़ने से रवि वासवानी का निधन हो गया। रवि अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अस्सी के दशक के शानदार कॉमेडियन का जब भी जिक्र होगा- रवि वासवानी का नाम उसमें जरूर आएगा।

( नवीन पाण्डेय एक वरिष्ठ पत्रकार हैं और पिछले 15 वर्षों से प्रिन्ट और टीवी पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं)

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