जिनके भाग्य में नखलिस्तान नहीं
इस बार दयानंद पांडेय के लेखन पर बात करने का मन हो रहा है। संयोगवश मैं ने उन के दो उपन्यास पढे- ‘हारमोनियम के हज़ार टुकडे’ और ‘वे जो हारे हुए’ । ज़िंदगी की सच्चाई को छूने वाला, एक कालखंड का यह इतिहास बहुत ताकत के साथ कलात्मक लेखन का दंभ भरने वालों को अंगूठा दिखाता है। आलोचकों और समीक्षकों को मुंह चिढाता यह लेखन साबित करता है कि अपने समय के समाज के साथ खडा होना ज़्यादा ज़रुरी है बनिस्पत ‘साहित्य-साहित्य’ की जुगाली करने के। शायद इसी लिए दयानंद पांडेय के पास केवल आज की भयावह दुनिया ही नहीं है बल्कि उस भयावहता को तोडने और काटने के लिए सोच की पैनी कलम भी है।
कमलेश्वर ने एक जगह लिखा है,- ‘ इधर की कहानियों में परंपरापूरक यथार्थवादी विवरणों की विपुलता है और भाषा भी एक तरह के बनावटी देशज लहज़े का शिकार हो गई है……,, जिस ने कहानी को पान की दुकान में बदल दिया है, जहां पत्ता, सुपारी, चूना, तंबाकू, सौंफ, मुलैठी, गुलकंद सब कुछ मौजूद है और तांबूल कला में सिद्धहस्त कलाकार अपने हर ग्राहक, संपादक, और आलोचक के लिए ‘ हमारा पान लगाना भाई ‘ की तर्ज़ पर गिलौरियां तैयार कर रहा है………अपने मुंह में गलगला कर संपादक और आलोचक साहित्य को पीकदान समझ कर उस में थूक रहा है और अपने-अपने पनवाडी की तारीफ़ कर रहा है। ‘
अब भला ऐसी स्थितियों में कोई दयानंद पांडेय की बात क्यों करेगा? क्यों कि वह तो चपत के लिए हथेली ताने खडे हैं जो गलत होगा चपत खाएगा। अपना पराया क्या? सच कहना है तो दुश्मनी के लिए भी तैयार रहिए। पर एक बात दावे से कही जा सकती है कि दयानंद पांडेय ने अपनी कलम की स्याही आज के उन तमाम प्रश्नों पर खर्च की है कि जो कुछ भी पांडेय जी ने लिखा वह एक खबर बन सकती थी पर लेखक बहुत सफाई से उसे खबर बनाने से बचा गया और वह कहानी बन गई।
‘ हारमोनियम के हज़ार टुकडे ‘ पत्रकारिता जगत की कुरुपता को दर्शाने वाली कृति है तो ‘ वे जो हारे हुए ‘ सुबह बिस्तर छोडने से ले कर शाम को बिस्तर तक पहुंचने की कशमकश के बीच दांत किटकिटाती ज़िंदगी से एक साक्षात्कार है। इन भयावह जबडों से अगर आप निकल पाए तो गनीमत वरना अलविदा। कोई आप के लिए रुकने वाला नहीं। लाखों अनकही कहानियों की तरह दफ़न हो कर आप भी खो जाएंगे। बहुत हुआ तो एक खबर बन कर छप जाएंगे बस ! लोक को विस्मृति का रोग है और तंत्र को शक्ति का। दोनों एक दूसरे को इसी आधार पर स्वीका कर बने हुए हैं। फिर दयानंद पांडेय परेशान क्यों हैं? क्यों शोषण उन्हें परेशान करता है, क्यों समाज की विसंगतियों और विषमताओं को वह औरों की तरह स्वीकार नहीं लेते, क्यों विद्रुपताओं से विचलित हो कर कलम उठा लेते हैं?
मैं पांडेय जी को इस लिए बधाई देना चाहता हूं कि उन्होंने सच को सच की तरह लिखने का साहस दिखलाया। उन्होंने – वह नहीं लिखा जो हिंदी साहित्य के कद्दावर, झंडाबरदार संपादक और आलोचक चाहते हैं। उन्होंने वह भी नहीं लिखा जो लेखक होने के लिए विचित्रताओं से भरा होता है, उन्होंने तो केवल वह लिखा जिसे हम रोज भोगते हैं, पर परिभाषित नहीं कर पाते। सवा अरब कायर मनों के एक हिस्से को दयानंद पांडेय पढ पाए यही क्या कम है?
पांडेय जी के बहाने मैं उन सब कलमकारों को प्रणाम करता हूं जो सच को बिना मुलम्मा चढाए लिखने का साहस रखते हैं और साहित्य में दंभ के मारे आलोचकों से सदा उपेक्षित रह जाते हैं। टुकडों में सच बहुत बार पढने को मिला, कई बार खुद भी लिखा और इतराया, पर समग्र रुप से किसी स्थान विशेष के कालखंड का सच उदघाटित करने की जिस प्रक्रिया से दयानंद पांडेय गुज़रते हैं – वह विरल ही है। पाओलो कोहेलो की ‘अल्केमिस्ट ‘ की तरह यहां कोई ‘ विश्वात्मा ‘ नहीं है जो अपने तादात्म्य स्थापित करने वाले को विपत्तियों से सुरक्षित बचा ले। यहां तो बस अंतहीन रेगिस्तान है और कंटीली झाडियां हैं। यह पुस्तक ज़िंदगी से जूझते हुए जिस बेचारे वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है उसके भाग्य में नखलिस्तान नहीं हुआ करते।
‘हंस’ के पुनर्प्रकाशन के पच्चीस वर्ष पूरे हुए। ‘हंस’ का प्रकाशन उस समय दोबारा आरंभ हुआ था जब ‘सारिका’ , ‘दिनमान’ , ‘धर्मयुग’ और ‘हिंदुस्तान’ नेपथ्य में जा चुके थे या फिर जाने की प्रक्रिया में थे। पाठक तक पहुंचने की ललक रखने वाले रचनाकार बेचैन थे। नए रचनाकारों के लिए कोई ऐसा मंच नज़र नहीं आता था जो उन्हें राजनीतिक झंडाबरदार पत्रिकाओं से इतर, अपनी सोच को खुले रुप में प्रकट करने की स्वतंत्रता दे। ‘हंस’ ने इस खला को भरा। भयानक मतभेदों और आरोप-प्रत्यारोप के लंबे दौर में भी उस समय साहित्य और साहित्यकार आदि केंद्र में रहे तो ‘हंस’ के योगदान के ही कारण।
ललित कार्तिकेय, रेखा, संजीव, गीतांजलि श्री, अवधेश प्रीत, रतन वर्मा, रघुनंदन त्रिवेदी, विजय प्रताप, सृंजय, आनंद हर्षुल, प्रेमकुमार मणि, जयनंदन, देवेंद्र, प्रियंवद, अमरीक सिंह दीप, शैलेंद्र सागर और भी ऐसे बहुत से नाम हैं जो मुझे तुरंत स्मरण नहीं आ रहे हैं, इन सब की बेहतरीन कहानियों ने साहित्य जगत को अभिभूत कर दिया और इस सब का माधयम बना ‘हंस’। कई विस्मृत रचनाकारों का पुनर्पाठ भी ‘हंस’ के ही माध्यम से हुआ। केवल और केवल ‘राजेंद्र यादव’ से विरोध और मतभेदों के चलते इस सत्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। रचनाकारों की तीन पीढियों को ‘हंस’ ने संभाला, सजाया और संवारा। ‘पच्चीसी’ पर बधाई, ‘पचासे’ के जलसे में सम्मिलित होने की कामना के साथ एक नई शुरुआत होगी-हमें यह आशा करनी चाहिए।
[दिल्ली से प्रकाशित शब्दयोग में नियमित कालम से साभार]
जितेन ठाकुर
4, ओल्ड सर्वे रोड, देहरादून
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कमलेश्वर की बात जँची। बहुत सुन्दर। दयानन्द जी के ऊपर नहीं कह सकता कुछ। क्योंकि पढ़ा नहीं।