जीवन का नया नायक : पैसा
दुर्गेश सिंह, मुंबई
कहानी में एक एनआरआई इंजीनियर (लाख रूपए महीने के कमाने वाला) है, जो 1992 में बनी एक फिल्म ‘द साइलेंस ऑव लैंब देखता है, फिल्म चूंकि एक साइकोलॉजिकल थ्रिलर है, जिसे देखकर वह इस हद तक उद्विग्न होता है कि अपनी पत्नी को 38 टुकड़ों में घर के फ्रीजर में रख देता है। उसकी बीवी उसके दो जुड़वा बच्चों की मां भी होती है। यह कहानी देहरादून के रहने वाले राजेश गुलाटी की थी जिन्होंने एक लंबी और मानसिक रूप से ऊबा देने के हद तक पहुंच चुकी अदालती प्रक्रिया के बाद अनुपमा गुलाटी से 1999 में शादी की थी। ग्यारह सालों के अपने सफर के दरम्यान वे लंदन गए जहां उन्होंने रेसकोर्स इलाके में एक घर भी खरीदा। राजेश गुलाटी की कहानी समाज के उस तबके की कहानी है जिनकी तनख्वाहें अंग्रेजी में सिक्स फिगर सैलरी में गिनी जाती है, बैंको के कस्टमर केयर बही में वो प्रीमियम कस्टमर माने जाते हैं लेकिन निजी जिंदगी में उनका हैप्पीनेस अकाउंट निल होता है। समाज मन का टटोलने पर हमें शायद कुछ इसी तरह की धारा देखने को मिलती है। समाजशास्त्री पुरुषोत्तम कहते हैं कि ऐसी मानसिकता नई नहीं है। हमारा पूरा समाज सुपर स्पिरिचुअल्जिम का शिकार हो चुका है, धार्मिक चिंतन हाशिए पर है। यहां धार्मिक चिंतन की बात इसलिए की जा रही है कि हमारी तमाम गतिविधियों का सीधा संबंध मन से होता है। बाजार में तमाम बाबा है लेकिन सब अतिभौतिकतावाद की बात करते हैं। नतीजा बहुत कुछ पाने की होड़ में वॉयलेंस जन्म लेता है। देहरादून हो या मुंबई हिंसक गतिविधियां ऐसे ही बढ़ेगी। पुरुषोत्तम कहते हैं कि 18 वीं सदी में प्रसिद्ध दार्शनिक काम्टे का पहला लेख आया था जिसमें रिलीजन ऑव ह्यूमिनिटी को खारिज करने की बात कही गई थी। इससे पहले भी चाणक्य ने अर्थशास्त्र में लिखा था कि मंदिरों को लूटकर लोगों में अंधविश्वास फैलाने के लिए जो भी हथकंडे अपनाए जा सकते हैं, उसको अपनाया जाना चाहिए। नतीजा यह निकला कि मौर्य राजवंश के सबसे प्रतापी शासक चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में पूरे देश में सबसे अधिक मंदिर बनवाए गए, जिसका सीधा संबंध अंधविश्वास फैलाने से था। वहीं साइकियाट्रिस्ट डा हरीश शेट्टी इस पूरे परिदृश्य को मिक्सड पिक्चर के तौर पर देखते हैं। उनका मानना है कि इस सोसाइटी में स्वीकार्यता बढ़ रही है, माफ करने की क्षमता बढ़ रही है, दोस्ती और प्रेम संबंधों का पैमाना भी बदल रहा है। ऐसे में कोई एक चीज निश्चित तरीके से कह पाना ठीक नहीं होगा। तनाव पहले भी था, आज ज्यादा है लेकिन आज स्थिति है कि छोटी सी बातों के बाद अदालतों में तलाक के मामले दर्ज हो जा रहे हैं।
पुरुषोत्तम के कथन को खारिज करते हुए एक मल्टिनेशनल कंपनी में काम करने वाले अजय गौतम कहते हैं हमारे दिन की शुरूआत ही पैसों के लिए होती है, हमारा स्टैंडर्ड ऑव लिविंग इतना बढ़ गया है कि हमको अधिक पैसों की जरूरत होती ही है। हम पूंजीवाद को खारिज नहीं कर सकते, पैसा बेसिक नीड है, एनीहाउ। पुरुषोत्तम का कहना है कि युवाओं की यही सोच उन्हें ऐसे जघन्य कदम उठाने पर मजबूर कर रही है जबकि डा शेट्टी रहते हैं कि आज की पूरी तस्वीर रियलिस्टिक है।