दि लास्ट ब्लो (उपन्यास, चैप्टर 4)
आलोक नंदन शर्मा
दिवाकर के सामने फिल्मों की एक नई दुनिया खुलती चली गई। उसकी नजर शहर की सड़कों पर फिल्मी पोस्टरों पर होती थी। नये फिल्मों के पोस्टर एक सप्ताह पहले से ही शहर भर के चौक-चौराहों और दीवारों पर दिखने लगते थे। उसे मारधाड़ से भरपूर फिल्में बहुत पसंद थी, खासतौर से अमिताभ बच्चन की। अमिताभ बच्चन की एक भी फिल्म वह नहीं छोड़ता था। दीवार देखने के बाद तो कई दिनों तक अमिताभ बच्चन की तरह अपनी कमीज के नीचे वह गांठ बांधकर रखता था। जितेंद्र और धर्मेंद्र की फिल्में भी उसे पसंद थी। फिल्में उसे अपने तरीके से कल्पना लोक की सैर कराती थी और उस कल्पना लोक का वह खुद हीरो होता था। रात में बिस्तर पर जाते ही ज्योंहीं वह पलके बंद करता था फिल्मी पर्दे के बदलते हुये दृश्य उसकी आंखों के सामने घूमने लगते थे। वह खुद को सुपरमैन के रूप में देखने लगता था। अपने कल्पना लोक में कभी वह अपने हाथ में तलवार लिए घोड़े पर सवार होकर एक साथ कई खतरनाक दुश्मनों से मुकाबला करता, तो कभी ऊंचे पहाड़ से नदी में छलांग लगाकर किसी डूबते हुये इंसान को बचाता, तो कभी हाथों में बंदूक लेकर सरहद पर दुश्मनों की चौकियों पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसाते हुये उन्हें मौत की घाट उतारता, तो कभी एक ईमानदार पुलिस अधिकारी बनकर अपनी जान की परवाह किये बगैर स्मगलरों के पीछे दनादन गोलियां चलाते हुये अपनी मोटरसाइकिल दौड़ा कर या तो उन्हें मार गिराता था या फिर गिरफ्तार कर लेता था। फिल्में उसके अंदर भी चलती थी और बाहर भी। वह पूरी तरह से फिल्मों में डूब चुका था। उसकी पूरी सोच और समझ फिल्मों से शुरु होकर फिल्मों पर ही खत्म होती थी। उसकी कल्पना को फिल्मों से ही खुराक मिलती थी।
उसके पिता हर शुक्रवार को उसे दो रुपये देते थे। एक रुपये सत्तर पैसे का टिकट होता था और तीस पैसे वह खाने-पीने पर खर्च करता था। इसके एवज में उसे छह दिन तक यह दिखाना होता था कि वह मन लगाकर पढ़ रहा है। हर रोज उसके पिता उसे एक निर्धारित काम देकर अपने दफ्तर के लिए निकल जाते थे। उनके घर लौटने के पहले उस काम को पूरा कर लेना होता था। इसका फायदा यह हुआ कि उसकी बुनियादी शिक्षा दूसरे बच्चों की तुलना में दुरुस्त रही। चीजों को धड़ल्ले से पढ़ने-लिखने और समझने की काबिलियत उसके अंदर विकसित होती जा रही थी। कम उम्र में फिल्लों ने भी उसके शब्दकोश और व्यवहार को अपने तरीके से समृद्ध किया था।
तकरीबन पांच-छह साल तक इसी तर्ज पर उसकी जिंदगी चलती रही। आगे की पढ़ाई के लिए उसका दाखिला पटना हाई कोर्ट के पास अंग्रेजों के जमाने के एक हाई स्कूल में करा दी गई।
इस बीच स्कूल में कुछ नये दोस्त बने। समय के साथ मुहल्ले के पुराने आवारा लड़कों का साथ भी छूटता गया और उनकी जगह नये दोस्त लेने लगे जो सामाजिक रुतबा में आवारा लड़कों से खुद को आगे समझते थे और उन्हें नीची नजरों से देखते थे। नये दोस्त भी दिवाकर को पुराने आवारा दोस्तों से दूरी बनाने की सलाह देते रहे। वे कहते थे कि इनके साथ रहने से उसकी इज्जत खराब होगी। धीरे-धीरे दिवाकर का साथ उस उन बच्चों से लगभग पूरी तरह से छूट चुका था। कुछ लड़के काम धंधे में लग गये थे, कुछ का जेलों में लगातार आना-जाना लगा हुआ था तो कुछ अव्वल दर्जे के नशेड़ी हो चुके थे।
दिवाकर के नये दोस्तों में पुनाईचक के कुछ लोकल लड़के भी थे और कुछ ऐसे लड़के जो अपने परिवार के साथ किराये के घरों में रह रहे थे। धीरे-धीरे दिवाकर को यह अहसास हुआ कि पुनाईचक के लोकल लड़कों और किरायेदारों के लड़कों के बीच एक बारीक सी रेखा खिंची हुई है और इनके बीच संघर्ष और सहयोग की एक अनवरत प्रक्रिया जारी है।
सभी लड़के सचिवालय की जली हुई बिल्डिंग के सामने वाले मैदान में मौसम के अनुसार या तो क्रिकेट खेलते थे या फिर फुटबॉल। खेल के दौरान जब भी दो लड़कों के बीच किसी भी बात लेकर तू-तू मैं होती थी या फिर हाथापाई की नौबत आती थी तो सभी लड़कों के बीच गिरोहबंदी मकान मालिक और किरायेदार के आधार पर होती थी। पुनाईचक के लोकल लड़के जिनमें ज्यादातर अहीर थे कभी नहीं चाहते थे कि बाहरी लड़के उन पर हावी हो। यहां तक कि दो अहीर लड़कों के बीच लड़ाई होने पर भी लोकल लड़के किरायदार लड़के के खिलाफ लामबंद हो जाते थे। धीरे-धीरे स्वाभाविकतौर पर लोकल लड़कों के खिलाफ किरायदार लड़कों का एक मजबूत गिरोह बनता चला गया। दिवाकर भी उस गिरोह का हिस्सा बन गया। इस गिरोह के कुछ लड़के फाइटिंग में माहिर थे। जब भी किसी से लड़ाई होती थी तो ये एक साथ मिलकर हमला करते थे और उस पर तब तक घूंसे बरसाते थे जब तक कि वह बेदम हो कर जमीन पर न गिर जाये। जमीन पर गिरने के बावजूद उनकी पिटाई जारी रहती थी। जमीन पर गिरने के बाद वे घूंसों के बजाय लात से काम लेते थे। लड़ाई की इस शैली ने लोकल लड़कों को बैकफुट पर ला दिया था। इस गिरोह के लड़कों से वे लोग उलझने में न सिर्फ कतराते थे बल्कि जरुरत पड़ने पर उनकी मदद भी लेते थे। इन लड़कों की संगति में आने के बाद दिवाकर का दायरा बढ़ गया था। दूसरे मुहल्ले के लड़को के गिरोह से भी उसका संपर्क हो गया था। अपने कमरे के एक काठ के बक्शे में वह देसी पिस्तौल, कारतूस और देसी बम भी रखने लगा था। उसकी हल्की-हल्की मूंछे भी निकलने लगी थी।
दिवाकर रेलवे लाइन के करीब जिस तीन मंजिला मकान में रहता था उसका रंग पीला था इसलिए लोग उसे पीली कोठी कहते थे। उसका छत तीन हिस्सों में बंटा हुआ था। छत पर चढ़ने के तीन रास्ते थे। मकान का मुख्य हिस्सा उत्तर की ओर सचिवालय के पीछे की तरफ था। इसके ठीक सामने एक बड़ा सा नाला था, जिस पर मजदूरों ने छोटे-छोटे मकान बना रखे थे। सुबह–शाम जब मजदूर महिलाएं अपने घर के बाहर बने मिट्टी के बने छोटे-छोटे चूल्हों पर रोटियां सेंकती थी तब उसकी खुश्बू चारों तरफ फैल जाती थी। मकान दूसरा हिस्सा दक्षिण की तरफ था। इसके सामने एक स्कूल था और स्कूल के ठीक सामने एक छोटा सा मैदान था। मकान के दोनों तरफ की सीढ़ियां तो स्पष्ट रुप से दिखती थी लेकिन मकान के रेलवे लाइन वाले हिस्से में एक तीसरी सीढ़ी थी जो बाहर से किसी को दिखाई नहीं देती थी। एक बड़ी सी दीवार की ओट की वजह से मकान का यह हिस्सा छत के अन्य हिस्सों से कटा हुआ था। उस इलाके के तमाम छटे हुये लड़के दिनभर वहां बैठकर जुआ खेलते थे और शाम को स्कूल के सामने वाले छोटे में मैदान में क्रिकेट।
उस मैदान के बगल में एक और मकान था, जिसमें कई किरदार रहते थे। उनमें कुछ लड़कियां भी रहती थी। क्रिकेट खेलने के दौरान ये लड़कों का सारा ध्यान उन लड़कियों की तरफ होता था। कुछ लड़कियां अंग्रेजी स्कूल में पढ़ती थी और फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती थी। जब कभी भी लड़के उन्हें परेशान करने की कोशिश करते वे उन्हें जोरदार तरीके से अंग्रेजी में झड़प देती थी। इससे लड़कों को उनसे बात करने का हौसला ही पस्त हो जाता था।
उसी मकान से अक्सर एक लड़का भी क्रिकेट खेलने आता था। वह अगल-बगल की समस्याओं के बारे में अखबारों के संपादकीय पन्ने पर पत्र लिखकर भेजा करता था। दिवाकर को उसकी यह बात अच्छी लगी थी और वह उस लड़के और करीब आ गया था। धीरे-धीरे वह भी अखबारों में दिलचस्पी लेने लगा था। जब दिवाकर ने उस लड़के को बताया कि प्रो. एस पी यादव के यहां वह अंग्रेजी पढ़ना चाहता है लेकिन इसके लिए छह लड़कों की एक टीम को होना जरूरी है तब उसने सलाह दी कि यहां पर क्रिकेट खेलने वाले लड़कों को लेकर टीम बनाई जा सकती है। दिवाकर पहले भी कोशिश कर चुका था लेकिन ये लड़के अंग्रेजी सीखने को तैयार नहीं थे। जब उस लड़के ने उन्हें समझाया कि अंग्रेजी सीखने से उनके रुतबे में इजाफा होगा और जो लड़कियां उन्हें अंग्रेजी में डांटती हैं उसका जवाब भी वे दे सकेंगे तो एक साथ कई लड़के अंग्रेजी सीखने को तैयार हो गये। देखते-देखते प्रो. एस. पी. यादव से अंग्रेजी सीखने वाले लड़कों की तीन बैच बन कर तैयार हो गई।