देवल रानी: इतिहास के आइने से
देवल रानी—- युवराज ने भरे कंठ से कहा “प्यारी देवल, तुम सचमुच वफा की देवी हो,
दिल्ली के सुलतानों की राजनीति खून, हत्या षड्यंत्र विश्वासघात से दूध पानी की तरह घुली मिली थी। जिसके प्रमाण इतिहास के प्रत्येक पृष्ठ पर अंकित हैं, उनके महलों के भीतर भी इसी तरह के घृणित षड्यंत्र राग द्वेष और हत्याओं का बोलबाला था। देवल रानी की दर्दभरी कहानी, महलों के भीतर चलने वाले ऐसे ही जाल फरेबो का एक जीता जागता प्रमाण है। इसी भोली — भाली राजकुमारी ने इन निष्ठुर हत्यारों के हाथों क्या कुछ नहीं सहा? अलाउद्दीन खिलजी ने अपने चाचा एवं ससुर जलालुद्दीन की हत्या करके दिल्ली के तख्त पर कदम रखे थे। इस महत्वाकाक्षी युवा सुलतान ने शीघ्र ही एक एक करके भारत के भीतरी प्रदेशों को जीता और अपने राज्य में मिला लिया, उसकी सेनाओं ने 1927 ई में गुजरात पर आक्रमण किया। विजय के पश्चात् उसके सेनापति उलगुखान व नुसरतखान ने राजमहलों और खजानों को जी भर के लुटा, इसी लूट में उनके हाथ गुजरात की रानी कमला देवी लगी। राजा कर्णदेव तो अपनी नन्ही सी बिटिया देवल के साथ मुसलमानों से बच निकले भागे। लेकिन आक्रमणकारियों के हाथ रानी पड़ गयी। राजा ने देवगिरी के शासक रामचन्द्र के यहाँ शरण ली। गुजरात पर सुलतान का अधिकार हो गया, उसने रानी कमला देवी के रूपसौन्दर्य पर मुग्ध होकर उसके साथ विवाह कर लिया, इसी लूट में शाही सेना के हाथ एक हिजड़ा भी लगा जिसके हाथो स्वंय अलाउद्दीन खिलजी, उसके परिवार का नाश हुआ इतिहास में यह हिजड़ा मलिक काफूर के नाम से प्रसिद्ध है, जन्म से यह हिन्दू था, पर सुलतान से अनैतिक सम्बन्ध जुड़ जाने पर मुसलमान बन गया था। गुजरात विजय के कुछ वर्षो बाद अलाउद्दीन खिलजी ने देवगिरी पर भी हमला कर दिया और वहा के राजा रामचन्द्र को परास्त करके कमला देवी की पुत्री देवल को अधिकार में ले लिया और दिल्ली मंगवा लिया। कई वर्षो बाद माँ बेटी का मिलन हुआ। यह क्रूर व्यंग्य तो उन्होंने कलेजे पर पत्थर रखकर सह लिया, लेकिन उन्हें क्या पता था कि षड्यन्त्रों की भूमि सीरी (दिल्ली) में उन्हें अभी न जाने और कितने दुःख उठाने थे। इस समय देवल दस वर्ष की परम सुन्दरी रूपवती बालिका थी। वह अलाउद्दीन के महलों के भीतर चलने वाली कुटिल और भयंकर राजनीति और सर्वनाशी हथकंडों से अनजान बनी हुई सुंदरी तितली की तरह खेलती रहती थी। उसका सौन्दर्य महकते गुलाब की तरह था। जो बरबस दूसरों की नजर अपनी ओर खीच लेता था। सुलतान की एक अन्य बेगम से खिज्रखान नाम का एक पुत्र था, वह उम्र में दो साल बड़ा था। शुरू से ही देवल और खिज्रखान एक दूसरे से प्रेम करने लगे दोनों सारा दिन साथ साथ खेलते रहते थे, खिज्रखान परम सुन्दर बालक था उसकी शक्ल देवल के भाई से बहुत मिलती जुलती थी इसीलिए कमला देवी उससे बहुत स्नेह करती थी।
सुलतान अलाउद्दीन खिलजी को इन दोनों बच्चों की बढ़ती प्रीति को देखकर बड़ी प्रसन्नता होती थी। और उसने मन ही मन यह निश्चय कर लिया था कि वह अपने पुत्र खिज्रखान का विवाह गुजरात की राजकुमारी देवल के साथ कर देगा। ज्यो — ज्यो दिन बीतते गये देवल और खिज्रखान का प्रेम प्रगाढ़ होता गया। यह प्रगाढ़ता यौवन के आगमन के साथ दृढतर होती चली गयी अब स्थिति ऐसी आ गयी थी कि वे दोनों एक दूसरे को देखने के लिए विकल रहने लगे। सीरी के कुटिल राजमहलों से इन दोनों के प्रगाढ़ प्रेम की कहानी छिपी न रह सकी, सुलतान ने रजा कर्ण को संदेश भेजकर उनकी पुत्री देवल का विवाह अपने शहजादे खिज्रखान के साथ करने की सहमती भी प्राप्त कर ली।
एक दिन मौका देखकर सुलतान ने मलिका ए जहां से खिज्रखान और देवल के विवाह की चर्चा की उस समय शहजादा वहा बैठा था, वह लज्जावश वहा से उठ कर चला गया, अब उसे इस बात का पक्का भरोसा हो गया कि एक दिन देवल दुल्हिन बनकर उसकी दुनिया आबाद करेगी, इस घटना के बाद दोनों का प्रणय और सुदृढ़ हो गया। अब संसार में उन्हें और किसी वस्तु की कामना न थी। लेकिन महल में कुछ ऐसी बेगमें भी मौजूद थी जिन्हें देवल और खिज्रखान का प्रेम फूटी आँखों नहीं सुहाता था। उन्हें देवल में एक सबसे बड़ा दोष दिखाई देता था कि वह काफिर हिन्दू राजा की बेटी है, इतना ही नहीं ये दोनों माँ बेटी खास अलाउद्दीन के रंगमहलों तक में हिन्दू धर्म से चिपकी हुई थी। इसी धर्म के अनुसार पूजा उपासना करती थी यह बात मलिका ए जहा तथा दूसरी बेगमों को बहुत चुभती थी उन्होंने कई बार इस ओर सुलतान का ध्यान दिलाया पर उसने इस ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया। जब सुलतान ने देवल के साथ खिज्रखान के विवाह की चर्चा मलिका ए जहा से की तो वह भड़क उठी क्योकि सबसे बड़ा शहजादा होने के कारण खिज्रखान हिंदुस्तान के विशाल साम्राज्य का उत्तराधिकारी था उसके साथ देवल का विवाह होने से दोनों काफिर माँ बेटियों का महत्व बाद जाने का खतरा था। यही सोच कर मलिका ए जहा ने इस चर्चा को वही रोक दिया और अपने भाई अलपखान की बेटी के साथ खिज्रखान का विवाह करने पर जोर दिया, सुलतान को इस सम्बन्ध में कोई आपत्ति नहीं थी क्योंकि अलपखान एक सुयोग्य सेनापति और उसके साम्राज्य का सुदृढ़ स्तम्भ था। ऐसा प्रतीत होता है कि इर्ष्या मध्ययुगीन स्त्रियों का प्रिय गहना था जिसे वे हर समय अपने दिल से लगाये रखती संभवत: बहुविवाह प्रथा के कारण सुतो की उपस्थिति से ही ऐसा रहा हो उनकी ईर्ष्या ने तत्कालीन समाज और राजनीति का कितना अहित किया इसका अनुमान अभी तक कोई इतिहासकार नहीं लगा पाया है।
सुलतान, अमीर, सूबेदार, राजा, रईस — सब के हरमो में भेढ़ — बकरियों की तरह भरी हुई ईर्ष्यालु स्त्रियों को बढिया वस्त्र आभूषण पहनने, अच्छा शाही भोजन करने के बाद और कोई काम होता नहीं था, अपनी सारी जिन्दगी वे इन्हीं घात-प्रतिघात और षडयत्रों में बिता देती थीं। उनकी अपेक्षा समाज के अन्य वर्गो की महिलायें कहीं अधिक उदार दयालु, सभ्य और सहृदय थीं। यद्दपि उनके उपर भी कई तरह के सामाजिक बंधन थे। मलिका ए जहा ने देवल और खिज्रखान के बढ़ते हुए प्रेम को खत्म करने के लिए उन दोनों को अलग — अलग कर दिया। उनके मिलने जुलने पर रोक लगा दी। मलिका का विचार था कि उन्हें इस प्रकार दूर — दूर कर देने से प्रेम टूट जाएगा। लेकिन इस दूरी ने उनके प्रेम को और अधिक प्रगाढ़ व पुष्ट बना दिया। दोनों प्रेमी प्रेमिका एक दूसरे को देखने के लिए व्याकुल रहने लगे और मलिका की नजर बचा कर एक दूसरे से मिलने की युक्ति करने लगे। जब मलिका को उनके छिप — छिप कर मिलने का पता लगा तो वह बहुत नाराज हुई और उसने दोनों को इतनी दूर — दूर रखने का निश्चय किया जहां वे एक दूसरे की परछाई तक न पा सके। यही सोच कर मलिका ए जहा ने ईर्ष्यावश देवल को कुश्क ए लाल (लाल महल) भिजवा दिया जिससे खिज्रखान उसे कभी भी न देख सके। जब राजकुमारी की सवारी लाल महल की ओर जा रही थी तो शहजादा अपने गुरु निजामुद्दीन ओलिया के पास बैठा कुछ लिख रहा था। देवल देवी के स्थान परिवर्तन का समाचार उसके लिय वज्र के समान था। समाचार पाते ही शहजादा तुरंत घोड़े पर सवार होकर लाल महल की ओर दौड़ पडा — उसे राजकुमारी की पालकी रास्ते में मिल गयी। दोनों प्रेमी मिले वे देर तक आँसू बहाते रहे और अपने प्रेम को मृत्यु पर्यंत स्थायी बनाये रखने की सौगंध खाते रहे।
शहजादे ने प्रेम की चिर स्मृति बनाये रखने के लिए देवल को अपने सुन्दर बालों की एक लट दी जब कि राजकुमारी ने उसे प्रणय स्मृति के रूप में अपनी अंगूठी पहना दी कुछ देर बाद दोनों प्रेमी विरह के आँसू बहाते हुए पुन: मिलने की आशा से एक दूसरे से विदा हुए। लाल महल में इतनी दूर रहकर भी देवल का शहजादा खिज्रखान के प्रति प्रेम किसी भी तरह कम नहीं हुआ। इसी प्रकार शहजादा भी अपनी प्रेयसी के वियोग में व्याकुल रहने लगा। उसके दुःख को दूर और मन को स्थिर करने के लिए मलिका ए जहा ने अपने भाई अलपखान की लड़की से उसके विवाह की तैयारिया शुरू कर दी। शाही महल के चारो ओर ऊँचे — ऊँचे कुब्बे बनाये गये उन्हें बहुमूल्य रेशमी पर्दों से सजाया गया गलियों और बाजारों की सजावट की गयी दीवारों पर अनेक तरह के सुन्दर चित्र बनाये गये। जहां तहा खेमे और शामियाने गाड़े गये जगह जगह सुन्दर फर्श बिछाए गये कहीं भी खाली जगह नहीं दिखाई देती थी ढोल और बाजे बजने लगे नट और बाजीगर अपने तमाशे दिखाने लगे। कुछ तलवार चलाने वाले नट ऐसे थे जो बाल को बीच से चीर कर दो फाको में बाट देते थे। कुछ नट तलवार को पानी की तरह निगल जाते थे नाक में चाक़ू चढा लेते थे। तुर्की इरानी और हिन्दुस्तानी संगीत की बहार थी। दिल्ली के दूर दूर से कलावन्त इकठ्ठे होते जा रहे थे मदिरा पानी की तरह बह रहा था। इस प्रकार महीनों तक राग रंग का उत्सव चलता रहा विवाह की तैयारिया होती रही ज्योतिषियों ने शुभ मुहूर्त निकला और बुधवार 6 फरवरी 1312 ई. को विवाह निश्चित हुआ। शहजादा एक कुम्मैत घोड़े पर सवार हुआ बिस्मिल्लाह की आवाज चाँद तक पहुंची समस्त अमीर सवारी के साथ पैदल चल रहे थे हाथियों पर सुनहरे हौदे कसे थे तलवार और खंजरो द्वारा बुरी निगाहों के दरवाजे बंद थे। इस प्रकार यह जुलूस अलपखान के दरवाजे तक पहुचा, शहजादा गद्दी पर विराजमान हुआ अमीर अपने अपने पद गौरव के अनुसार दी बाई ओर बैठ गये। सद्रेजहा ने खुतबा पढ़ा जवाहरात और मोती लुटाये गये लोगों को बहुमूल्य वस्तुए प्रदान की गयी। निकाह के बाद लोग विदा हो गये चारों ओर खुशियों की मानो बौछार हो रही थी लेकिन शहजादा खिज्रखान के सुन्दर मुख पर उदासी की घटा छाई थी। वह अत्यधिक व्याकुल था और बलि होते हुए बकरे की तरह उसका मन छटपटा रहा था वह अपनी प्रेमिका देवल की याद में बहुत व्याकुल था, इस विवाह की धूमधाम से अलपखान की सुन्दर कन्या के सौन्दर्य से भी उसकी विरह ज्वाला किसी प्रकार कम न हो पाई। शहजादे के इस विवाह की धूमधाम को कुश्क ए लाल से राजकुमारी देवल ने भी देखा था उसके दिल पर क्या न बीती होगी, फिर भी उस ने शहजादे के पास इस शादी की मुबारकबाद भेजी।
देवल देवी से मुबारकबाद का संदेश पाकर शहजादे का दिल टुकड़े — टुकड़े हो गया। वह पागल सा रहने लगा मानों उसका सब कुछ लुट गया हो । हिन्दुस्तान के शक्तिशाली सुलतान का पुत्र एक विशाल साम्राज्य का युवराज होते हुए भी देवल की एक झलक पाने के लिए व्याकुल रहने लगा उसकी वेदना इतनी बढ़ गयी कि उसका स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरने लगा उसकी स्थिति अत्यंत चिंताजनक हो गयी अंत में उसने एक विश्वस्त और चतुर दासी के हाथों मलिका ए जहा के पास यह करुणाजनक संदेश भेजा, “माँ अपनी भतीजी के लिए पुत्र की हत्या करना उचित नही है, इस्लाम पुरुष को चार विवाह करने की आज्ञा देता है और बादशाहों को तो राजनीतिवश बहुत से विवाह करने पड़ जाते हैं। मेरे महल में यदि एक देवल आ जाती है तो इससे आप की भतीजी का तो कुछ भी अहित नहीं होगा बल्कि मेरी बुझती हुई जिन्दगी को नई रौशनी मिल जायेगी। यदि मैं इसी तरह घुट घुट कर मर गया तो आप इस खून का जबाब खुदा के सामने देना होगा” । शहजादे की इस दर्द भरी पुकार और गिरती हुई सेहत से मलिका ए जहा का पत्थर दिल भी पिघल गया उसने शहजादे को देवल देवी से विवाह की अनुमति दे दी। लेकिन यह शर्त लगा दी कि “यह विवाह अत्यंत गुप्त रीति से होगा, इसमें जरा भी धूमधाम नहीं की जायेगी विवाह में वर वधु के माता पिता के अतिरिक्त केवल एक काजी और एक पंडित को ही आने की अनुमति होगी। शहजादे ने ये सब शर्ते मान ली। इसके कुछ दिन बाद ही महलो में चुपचाप शहजादा खिज्रखान का गुजरात की राजकुमारी देवल से विवाह हो गया, कन्यादान देवल देवी की माँ कमला देवी ने किया, सुलतान अलाउद्दीन खिलजी और मलिका ए जहा वर पक्ष की ओर से उपस्थित थे वर की ओर से काजी और वधु की ओर से एक पंडित ने मुस्लिम और हिन्दू विधि विधान द्वारा इस विवाह को सम्पन्न कराया। अपनी बिछुड़ी हुई प्रियतमा देवल रानी को पाकर शहजादे को मानों दुनिया भर की सल्तनत मिल गयी। अब उसका मन हर प्रकार से संतुष्ट और प्रसन्न था उसके मन में किसी प्रकार की कामना न थी। वह अपनी देवल के एक बाल पर एक हजार दिल्ली की सल्तनतें न्योछावर करने के लिए तैयार था, उसके लिए इस धरती पर चारों ओर खुशियां ही खुशियां बिखरी हुई थी उसने जो चाहा उसे वही मिल गया था।
लेकिन शीघ्र ही शहजादे के सुख को काली घटा ने घेर लिया यह काली घटा कोई और नहीं बल्कि मलिक काफूर नामक एक गुलाम हिजड़ा था, जिसे गुजरात विजय के समय एक हजार दिनारो में खरीदा गया था। सुलतान की कामुक नजर इस सुन्दर हिजड़े छोकरे पर पड़ी वह इसके रूप रंग पर मुग्ध हो गया और इसे अपनी अप्राकृतिक वासना का साधन बना लिया। यह हिजड़ा उपर से जितना सुंदर था भीतर से उतना ही नीच कुटिल और महत्वाकाक्षी था। उसने कामी सुलतान को पूरी तरह अपने चगुल में फंसा लिया था वह दिन रात उसकी कामाग्नि को भड़का कर मनचाहे काम करा लेता था। इस गुलाम ने सुलतान की इस कमजोरी का पूरा पूरा लाभ उठाया जब कभी सुलतान उससे खुश होता तो यह गुलाम उससे इनाम मागने के स्थान पर अपने उपर मेहरबानी बनाये रखने के लिए कहता रहता।
कामांध सुलतान ने उसके उपर दिल खोल कर मेहरबानी की उसे गुलाम से आमिर और फिर मलिक बना दिया, एक विशाल सेना उसके अधीन कर दी। उसे जहां तहां युद्द क्षेत्रो में भेजा अंत में उसे दक्षिण भारत पर विजय पाने और लूटमार करने के लिए भेजा। सुलतान के प्रेमपात्र इस हिजड़े ने सारे दक्षिण भारत को रौद डाला इन विजयों से उसकी प्रतिष्ठा को चार चाँद लग गये। सुलतान के बाद वही साम्राज्य का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति था वही सुलतान का प्रधान सेनापति अन्तरंग मित्र और शय्या सुख देने वाला था सारे साम्राज्य में इस हिजड़े के नाम का डंका बजता था, सुल्तान ने उसे मलिक नायब की उपाधि से विभूषित किया था। मध्यकालीन मुस्लिम समाज में हिजड़ों को अद्दितीय महत्व प्राप्त था इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं क्योंकि लम्बे चौड़े हरम रखने वाले ऐयाश सुलतान और उन के अमीरों को अपनी सैकड़ों हजारों बेगमों पर निगरानी के लिए इन हिजड़ों की आवश्यकता पड़ती थी। उनकी इस आवश्यकता को प्रकृति तो पूरा नहीं कर पाती थी क्योंकि हजारों लाखों बच्चों के पीछे कोई एक बच्चा नपुंसक होता, इसीलिए ये लोग गरीबों के बच्चों का पुरुष चिन्ह काटकर उन्हें ही नपुंसक बना लेते और बड़ा होने पर अपने हरम का पहरेदार नियुक्त कर लेते क्योंकि पुरुष चिन्ह काट लिए जाने से वे उनकी बेगमों के तथाकथित सतीत्व के लिए खतरा नहीं बन पाते थे। अपने कुठाग्रस्त, नीरस और दुर्भाग्य पूर्ण जीवन का बदला मौक़ा पड़ने पर ये व्याज समेत चुकाते थे, रिश्वत लेकर हरम में नये छोकरों को बुर्का उधाकर ले आते और दोनों ओर से भारी इनाम पाते, मलिक काफूर ने सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के साम्राज्य और परिवार का नाश कर के बड़े बड़े अमीरों की जड़ खोद कर अपने प्रति किये गये व्यवहार का अच्छी तरह बदला चुकाया। सुलतान इस हिजड़े के द्वारा मारा गया उसके उत्तराधिकारी की हत्या भी एक दूसरे मुंह लगे हिजड़े ने की। मध्यकालीन समाज में ये अजीब प्राणी खूब महत्व रखते थे, एक विद्वान् से ज्यादा अमीर समाज में इनकी पूछ होती थी। मलिक काफूर या मलिक नायब अकारण ही शहजादा खिज्रखान से जलता कुढ़ता रहता था। सुलतान ने खिज्रखान को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था और सभी अमीरों से यह लिखित प्रतिज्ञा करा ली थी कि वे उसके बाद खिज्रखान को सुलतान मानकर उसकी सेवा करते रहेंगे। इन प्रतिज्ञाबद्द अमीरों में मलिक काफूर भी था लेकिन उसने कभी मन से इस निर्णय को नहीं माना अब वह स्वंय दिल्ली का सुलतान बनने के सपने देखने लगा था।
ये सपने खिज्रखान के होते हुए कैसे पूरे हो सकते थे? अत: उसे गिराना बहुत जरूरी था, मलिक काफूर ने शहजादे तथा उसके मामा व श्वसुर अमीर अलपखान के विरुद्द सुलतान के कान भरने शुरू किये, वासना से अंधे बने सुलतान ने उसकी बातें सच मान ली। इससे उत्साहित होकर मलिक काफूर ने उस स्वामिभक्त अमीर अलपखान की दिन दहाड़े हत्या कर दी किसी की भी हिम्मत न हुई कि इतने बड़े अमीर की हत्या के विरुद्द कोई आवाज तक उठाये। अलपखान को ठिकाने लगाने के बाद अब शहजादा ख्जिरखान की बारी थी, उसने झूठी — झूठी बाते कहकर सुलतान के मन में शहजादे के प्रति इतनी नफरत भर दी कि सुलतान ने उसे शाही अधिकारों के सूचक सारे चंह वापस ले लिए। इस अपमान से शहजादे के मन में कोई विशेष वेदना नहीं हुई वह मलिक काफूर की कुटिल प्रकृति और अपने पिता की कामुकता को जानता था। इसी बीच सुलतान बीमार पड़ गया ज्यों ज्यों सुलतान की बीमारी बढ़ती गयी त्यों त्यों मलिक काफूर के आतंक में भी वृद्दि होती गयी, षड्यत्रो में तेजी आने लगी।
शहजादा राजधानी से दूर था, वह सच्चे पितृभक्त पुत्र की तरह अपने बीमार पिता के स्वास्थ्य की कामना से पैदल ही हतनापुर जियारत करने गया, एक दिन पैर में ठोकर लगी कोमल अंगुलियों से खून बहने लगा, घाव बड़ा था। मरहम पट्टी के बाद शहजादा लड़खड़ाते हुए चलने लगा फिर अपने साथी अमीरों के बार बार आग्रह करने पर वह घोड़े पर सवार होकर आगे बड़ा यह कोई बड़ा अपराध न था, पर मलिक काफूर ने इस बात को खूब नमक मिर्च लगा कर सुलतान से कहा इस पर कुपित होकर सुलतान ने शहजादे के पास सन्देश भेजा कि वह किसी भी सूरत में दिल्ली में कदम न रखे और तुरंत अमरोहा चला जाए। शहजादे को जब यह शाही फरमान मिला तो वह मेरठ तक आ चुका था फरमान पाने के बाद उसने सोचा, ” मैं ने कोई अपराध नहीं किया है मेरे पिता रोग शैय्या पर पड़े हुए हैं और चुगलखोरो के प्रभाव में है, देश निकाले जाने से पूर्व एक बार उनके दर्शन करना और आशीर्वाद पाना उचित होगा। सरल हृदय शहजादा अपने चुने मित्रों के साथ दिल्ली पहुच गया और अपने मरणासन्न पिता के चरणों में सिर रख दिया और उससे अमरोहा जाने की आज्ञा मांगी, अपने सुशील और आज्ञाकारी पुत्र को अचानक आया हुआ देखकर वह वृद्द और जर्जर सुल्तान पाश्च्ताप के मारे रो पड़ा और देर तक अपने बेटे को छाती से लगाये रोता रहा। अपनी चाल को व्यर्थ होते देख कर मलिक काफूर दांत पीस कर रह गया, सुलतान ने शहजादे को आशीर्वाद दिया और आँसुओं के साथ साथ उसके दिल का सारा मैल बह गया उसने सबके सामने अपने पुत्र के सारे अपराध क्षमा करके उसे युवराज घोषित किया और उसे वही अपने पास राजधानी में रहने का आदेश दिया। मलिक काफूर इस तरह हार मानने वाला नहीं था उसने कमरे में से शहजादे के निकल जाने के बाद सुलतान के कक्ष के आसपास अपना पहरा मजबूत कर दिया और उस मरणासन्न सुलतान की गर्दन पर अपनी तलवार की नोक गड़ा कर एक फरमान उसकी ओर बढ़ा दिया जिसमें शहजादा खिज्रखान तथा दूसरे शहजादों को ग्वालियर के किले में बंदी बनाने का हुक्म था। अपने पराक्रम से समस्त भारत को कपाने वाले प्रतापी सुलतान अलाउद्दीन ने इस विश्वासघाती गुलाम की आँखों में हिंसा की लपटें देखी वह इस बुझते हुए जीवन दीप का मोह अब भी नहीं छोड़ना चाहता था अत: उसने कापते हाथों से उस फरमान पर हस्ताक्षर कर दिए और इस तरह अपने ही हाथो अपने परिवार और साम्राज्य की बर्बादी पर मोहर लगा दी। वक्त ने उस से वृद्द सुलतान जलालुद्दीन खिलजी की हत्या का बदला व्याज समेत ले लिया। उसी सांयकाल मलिक काफूर ने खिज्रखान और शादीखान — इन दोनों शहजादों को कैद कर लिया और अपने विश्वस्त सेनानायकों की देख रेख में ग्वालियर भेज दिया शहजादों के इस दुर्भाग्य ने दिल्ली वासियों को राम के वन गमन की याद दिला दी अंतर केवल इतना ही था कि इस बार मंथरा और कैकेयी का मिला जुला नाटक एक हिजड़े ने किया था। देवल रानी भी दिल्ली के ऐश्वर्यपूर्ण राजमहलों को छोड़ कर अपने पति के साथ स्वेच्छा से कैद हो गयी और इस दुर्भाग्य में अपने अभागे पति की सेवा करने वाले ग्वालियर के दुर्ग में पहुच गयी। यह दुर्ग मध्यकाल में शहजादों का बंदीगृह अथवा वधशाला का काम देता था, कहां तो इन दोनों को हिन्दुस्तान के सुलतान और मलिका बनना था कहां इस भयंकर किले की अँधेरी कोठरी में मौत की घडिया गिनने के लिए मिली। जब कभी युवराज खिज्रखान कैद खाने के कष्टों से व्याकुल हो जाता था तो देवल रानी उसे महापुरुषों के संकटपूर्ण जीवन की कथाये सुनाकर धैर्य बधाती, देवल रानी को अपने पास देखकर शहजादा कैद खाने की यातनाओं को भी भूल जाता।
अंत में 4 जनवरी,1316 .ई को सुलतान अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु हो गयी। लोगों का विश्वास था कि मलिक काफूर ने सुलतान को विष देकर मार डाला है, उस के विरुद्द अंगुली तक उठाने वाला कोई नहीं था। अभी सुलतान की लाश को दफनाया भी नहीं गया था कि उस ने अपने विश्वस्त साथी सुबुल को यह आदेश देकर भेजा कि वह शहजादा खिज्रखान की आँखें निकाल ले। सुबुल पूरे दलबल के साथ ग्वालियर पहुच गया जब ये जालिम युवराज के पास पहुचे तो वह समझ गया कि उसके पिता की मृत्यु हो चुकी है और वह अपने दुर्भाग्य का सामना करने के लिए तैयार हो गया। आगे बढ़ने से पूर्व उसने बड़ी लालसा के साथ अपनी प्रियतमा देवल रानी को आंसू भरी आँखों से देखा मानों वह उसे पी जाना चाहता हो। युवराज ने भरे कंठ से कहा ” प्यारी देवल, तुम सचमुच वफा की देवी हो, मुझे अपनी आँखे जाने का अफ़सोस नहीं है बस यही अफ़सोस है कि तुम्हारी वफा का मैं कोई बदला न चुका पाया तुम्हें हिन्दुस्तान की मलिका न बना सका, मैं बड़ा बदनसीब हूँ मुझे माफ़ कर देना। शहजादे ने आगे बढने के लिए कदम उठाये ही थे कि देवल उसके पैरो में लेट गयी वह अत्यंत करुण स्वर में विलाप कर रही थी उसने दुष्ट सुबुल के पैरों में अपना सिर रख दिया कि शहजादे की सुन्दर आँखों को बख्श दे बदले में उसकी आँखें निकल ले। लेकिन मलिक काफूर और उसके साथी किसी और ही धातु के बने थे उसने देवल रानी को ठोकर मार कर एक ओर लुढ़का दिया और अपने कठोर व दृढ हाथों से कापते हुए युवराज को जमीन पर पटका, पांच जल्लादों ने शहजादे के हाथ पैर सिर अच्छी तरह दबोच लिए सुबुल ने उस्तरे की धार देखी और उसे चमड़े के पत्ते पर आठ — दस बार फिरा कर पैना किया हाथ में उस चमकते उस्तरे को लेकर वह दुष्ट, युवराज की छाती पर बैठ गया। शहजादा खिज्रखान अपने समय में अति सुन्दर और सुकुमार युवक था, वह जिबह होते हुए बकरे की तरह तड़प रहा था पर इन कसाइयों ने उसे बुरी तरह जकड़ रखा था। इस बीभत्स दृष्य को देखकर देवल रानी खम्भे का सहारा लिये बुरी तरह चीख रही थी। सुबुल के उस्तरे ने अपना चमत्कार दिखाया और उस सुन्दर राजकुमार की आँखों को खरबूजे की फाकों की तरह काट कर बाहर निकाल लिया। वे आँखें जिनमें सुरमा भी बड़ी सावधानी से डाला जाता था, वे आँखें जिनमें सबके लिए प्यार का सागर लहराता था जालिमों ने देखते देखते निकाल ली। युवराज दर्द के मारे तड़प उठा। वह बुरी तरह चीख रहा था, खून बहने तथा अत्यंत पीड़ा के कारण वह बेहोश हो गया जालिम अपना काम पूरा करके चले गये। युवराज अनाथ की तरह धरती पर बेहोश पड़ा था, आसपास की धरती उसके खून से लाल हो गयी थी देवल उसकी छाती पर सिर रखे हुए उसके शरीर से लिपट कर बुरी तरह रो रही थी। हिन्दुस्तान के सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के पुत्र और पुत्र वधु धूल में खून से लथपथ होकर अपने ही राज्य के दुर्ग में ऐसी दुर्गति भोग रहे थे। पर क्या इतने से ही उनके कष्टों का अंत आ गया था? नही, अभी बड़ी परीक्षा बाकी थी। मलिक काफूर ने दिल्ली में शहजादा शादीखान की आँखें निकलवा ली, मलिका ए जहां की सारी दौलत लूटकर उसे दर दर की भिखारिन बना दिया। उसने मरहूम सुलतान के पांच वर्षीय पुत्र को नाम मात्र के लिए राजगद्दी पर बैठा दिया और स्वंय मनमानी करने लगा। उसने चुन चुन कर सुलतान के परिवार मित्र रिश्तेदार और शुभचिंतको का वध किया साम्राज्य में उसके अत्याचारों के कारण हाहाकार मच गया एक रात जब वह सो रहा था तो सुल्तानों के सेवकों ने उस पर हमला कर दिया और उसे मार डाला वह दुष्ट केवल 35 दिन ही शासन करने पाया था कि उसे जल्दी ही अपनी करनी का फल मिल गया। मलिक काफूर के वध के बाद अलाउद्दीन खिलजी के अमीरों ने ग्वालियर के किले में कैदी बने शहजादे मुबारक खान को दिल्ली बुलाया। वह उस समय 17 या 18 वर्ष का नवयुवक था, पता नहीं किस तरह मलिक काफूर के हाथों इसकी आँखें और जिन्दगी बच गयी। मुबारक खान ने दिल्ली पहुच कर कुछ दिन शिहाबुद्दीन का सहायक बन कर शासन किया पर बाद में इस पांच साल के बालक को एक ओर हटा दिया और कुतुबुद्दीन नाम रखकर स्वंय सुलतान बन बैठा। पहले तो कुछ समय तक उसने भली भांती शासन कार्य चलाया फिर वह भी विषय लोलुप होकर अत्याचार करने लगा। जिस तरह उसका पिता अलाउद्दीन खिलजी मलिक काफूर पर आसक्त था उसी तरह नवयुवक सुलतान भी अपने पिता के पदचिन्हों पर चलकर खुसरू खान नामक एक सुन्दर हिजड़े पर मुग्ध हो गया और उसे राज्य का सर्वेसर्वा बना दिया। आश्चर्य है मलिक काफूर के कुकृत्य और अलाउद्दीन खिलजी एवं शाही परिवार की दुर्गति को शहजादा सुलतान बनते ही इतनी जल्दी भूल गया। सुलतान कुतुबुद्दीन कामांध हो गया था उसने ग्वालियर के दुर्ग में बंदी अपने बड़े भाई खिज्रखान के पास फरमान भेजा कि अब मैं हिन्दुस्तान का सुलतान हूँ तुम मेरे कैदी हो अत: देवल देवी को मेरे महल में भेज दो।
इस शाही हुक्म से अँधा शहजादा खिज्रखान मर्माहत हो गया उसका रोम रोम कांप उठा देवल तो उसकी जिन्दगी थी उससे बिछड़ने की तो वह कल्पना भी नही कर सकता था। उसने बड़े साहस से काम लेकर सुलतान के हुकम को मानने से इनकार कर दिया और विनम्र शब्दों में यह संदेश भेजा “जिस तरह आत्मा के निकल जाने पर शरीर मिटटी के समान व्यर्थ हो जाता है उसी तरह देवल रानी के बिना मैं भी निष्प्राण हो जाउंगा, आपको हिन्दुस्तान का साम्राज्य प्राप्त हो चुका है, वह आप के पास रहे मुझे उसकी जरा भी कामना नहीं है, लेकिन देवल रानी को मेरे पास ही रहने दीजिये। यद्दपि राज्य से निकाले जाने, नेत्रों की ज्योति छीन लेने से और आपके दुर्ग में कैदी बने होने से मैं एक निर्धन भिखारी से भी गया बीता हो गया हूँ, पर देवल को मैंने सदैव अपनी सम्पत्ति माना है, वह मेरी सम्पत्ति ही नहीं बल्कि जिन्दगी भी है यदि आप ने मुझ अंधे से लकड़ी की तरह यह आखिरी सहारा भी छीन लिया तो मैं पूरी तरह मर जाउंगा। मेरे प्राण किसी भी तरह नहीं बचेंगे, मेरी हत्या करने के बाद ही आप इस वफा की देवी को मुझसे छीन सकते है”।
खिज्रखान के इस उत्तर से सुलतान कुतुबुद्दीन मुबारक शाह भड़क उठा उसने अपनी सिपहसालार शादीकत्ता को ग्वालियर भेजा कि वह दुर्ग में बंदी खिज्रखान, शादीखान और सिहाबुद्दीन — इन तीनों शहजादों के सिर काट कर लाये। इनमें से पहले दो शहजादों की आँखे मलिक काफूर ने और तीसरे की खुद सुलतान से निकलवा ली थी। ये तीनों अभागे शहजादे अब सिर्फ रुखी सुखी रोटी और फटे पुराने कपड़ों के सहारे किले के कैद खाने में अपनी बोझिल जिन्दगी के दिन पूरे कर रहे थे। शादीकत्ता ग्वालियर पहुच गया और तीनों शहजादों का सर कलम करने की तैयारी करने लगा। उसके हत्यारे शादीखान और सिहाबुद्दीन के सिर काटने के बाद जब खिज्रखान के पास पहुचे तो देवल रानी चीखकर उसकी छाती से लिपट गयी और अपनी फूलों जैसी सुकुमार बाहें शहजादे के गले में डाल दी। वह बुरी तरह रो रही थी हत्यारों से उसके प्राणों की भीख मांग रही थी। देवल के करुण विलाप पर कोई ध्यान न देकर हत्यारों ने अंधे युवराज पर तलवार से वार किया लेकिन देवल रानी ने उसके शरीर को अपनी सुकुमार देह से ढक रखा था, इसीलिए चोट उसके सिर पर आई। तलवार के करारे वार से उसका सिर बीच से फट गया खून का फौव्वारा फूट पड़ा, लेकिन उसने शहजादे को फिर भी नहीं छोड़ा। उसकी सुकुमार बाहें अपने पति के गले से कस गयी। वह स्वंय को होम कर हत्यारों से अपने पति के प्राण बचाना चाहती थी। निर्दयी शादीकत्ता ने शहजादे के गर्दन को लक्ष्य करके करारी चोट की जिससे उसमें लिपटा हुआ उस अभागिन राजकुमारी का सुन्दर हाथ कट गया और वह मूर्क्षित होकर धरती पर गिर पड़ी। हत्यारों ने तीसरा वार किया अब किसी की सुकुमार बाहे लिपटकर युवराज की गर्दन को नहीं बचा रही थी। अत: उसका सिर कट कर धरती पर आ गिरा। खून का गरम स्रोत फूट पडा जिसने युवराज की अपनी देह के साथ साथ उसके पैरो में निस्पंदन पड़ी राजकुमारी देवल का भी अभिषेक कर दिया। अगले ही क्षण वह कटा हुआ शरीर भी अपनी प्रियतमा के बगल में गिर पडा। दोनों ने एक दूसरे को अपने गरम् रक्त से नहला कर सच्चे प्रेम और बलिदान का परिचय दे दिया था। दिल्ली के वैभवशाली तख्त पर वे भले ही न बैठ सके पर इस नंगी धरती पर उनके कटे हुए शरीर लेकिन जुडी हुई आत्माएं मिलकर एक हो गयी थी।
सुनील दत्ता —- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक — आभार स. विश्वनाथ