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नेहरू…नरेन्द्र मोदी….और राहुल

संजय मिश्र

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नरेन्द्र मोदी भव्य भारत बनाने का सपना देख और दिखा रहे हैं। उनकी तमन्ना है कि ये देश इतना ऐश्वर्यशाली बने कि वो विकसित देशों की कतार में हो और उसे नेतृत्व दे सके। देश के कोने-कोने में रैलियां कर वे अपने मंसूबों का इजहार कर रहे। आम चुनाव माथे पर है लिहाजा राहुल गांधी दम-खम के साथ सुदूर इलाकों में जाकर राजनीतिक प्रयोग की नई मीमांसा में लगे हैं। वहीं उनकी पार्टी का थिंक टैंक कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म और कम्यूनलिज्म के दो खांचे में इंडिया को आबद्ध करने में लीन हैं। जाहिर है साल २०१४ के आम चुनाव रोचक बन गए हैं।

वैभवशाली इंडिया की बात चले … निर्माण के सपने हों.. तो नेहरू का नाम अनायास ही जेहन में कौंधेगा… उनकी राजनीतिक विरासत की धड़कन सुनाई देगी। इंडिया के पहले पीएम विकासशील और तकनीक संपन्न देश बनाना चाहते थे। हर तरफ निर्माण की गूंज थी तब। फैक्ट्रियों को वे आधुनिक मंदिर कहा करते। आज नरेन्द्र मोदी अतुल्य विकसित भारत की कल्पना में गोता लगा रहे। एक तरफ दुनिया की सबसे उंची प्रतिमा निर्माण की ख्वाहिश तो दूसरी तरफ देवालय से पहले शौचालय की वकालत। साथ ही सिस्टम में दक्षता और चुस्त डेलिवरी की पैरोकारी।

मोदी का इशारा है कि व्यवस्था लचर तरीके से चलती रही नतीजतन चीन जैसे देश तेजी से आगे बढ़ गए और इंडिया पिछड़ गया। शासक वर्ग में देश के लिए निष्ठुर लापरवाही का नतीजा राहुल भी देख और गुन रहे। इसलिए ऐसे वर्ग समूहों से नुक्कड़ शैली में मिल रहे जो कांग्रेसी नेताओं की राजनीतिक संस्कृति कभी न रही। राहुल को अहसास हो चला है कि छह दशक का विकास समग्रता लिए हुए नहीं है। राहुल उस वाकये को भूल नहीं सकते जब गुजरात के सुरेन्द्रनगर जिले में नमक बनाने वाले मजदूरों की वे व्यथा सुन रहे थे… और उन्हें कहा गया कि हेल्थ हेजार्ड की वजह से मरने पर इन मजदूरों की लाश भी पूरी तरह नहीं जल पाती।

यानि कमियां हर तरफ हैं और लोगों की दिक्कतों पर संवेदनशीलता का घोर अभाव है। नेहरू इस तरह की चुनोती की अहमियत जानते थे तभी उन्होंने कहा था कि- …. सरकार के प्रयासों को लोक हित के पैमाने पर ही कसा जा सकता…असल मकसद लोगों की खुशी हैं। नेहरू ने अपने को फर्स्ट सर्वेंट ऑफ इंडियन पीपुल यूं ही नहीं कहा था। तो क्या राहुल सचेत होकर उस तरह की कमी को पाटने की हसरत पाले आगे बढ़ रहे हैं जो देश की प्रगति की राह में रोड़ा बन खड़ी रही। इन बाधाओं की फेहरिस्त लंबी हो सकती है। मसलन सहकर्मियों के लाख मना करने के बावजूद नेहरू का आईसीएस को जारी रखना, कांग्रेस के अहंकारी नेताओं का वो भाव कि इनके सिवा इस देश को कोई नहीं चला सकता, सत्ता से जुड़े सब तरह के भ्रष्ट आचरण को वैद्य मानते जाना, शासन प्रणाली में पनपी सड़ांध के प्रति निर्विकार रूख अपनाना…

राहुल विविध समूहों से मिल रहे और वहां जाति और धर्म वाली राजनीति का खयाल नहीं करते। ये संतोष देने लायक अभीष्ठ हो सकता है। लेकिन नेहरू को बरबस याद करने वाले कांग्रेसी दिग्गज चुनाव को सेक्यूलर बनाम कम्यूनल रखने पर अड़े हुए हैं। चुनावी रणनीति के नाम पर राहुल भी उनके लपेटे में आ रहे। राहुल बार बार गुजरात दंगों पर बयान दे रहे हैं। कभी राजा अशोक और अकबर से अपनी तुलना करते तो औरंगजेब का नाम ले मोदी की तरफ इशारा कर जाते। इस बीच सच्चर कमिटी पर चर्चा थम सी गई है…इस रिपोर्ट की तल्ख सच्चाई का सामने आना उन्हें गवारा नहीं लिहाजा दंगा केन्द्रित चुनाव अभियान पर फोकस है।

कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिस्ट नेहरू को जितना याद करते… बीजेपी वाले इंदिरा के पराक्रम की प्रशंसा कर और नरेन्द्र मोदी खास तौर पर पटेल का गुणगान कर उन्हें छका जाते। मोदी के लिए पटेल महज चुनावी तिलिस्म नहीं हैं। रह रह कर चीन से मिली पराजय की चर्चा तो हो ही रही है साथ ही पटेल की अप्रतिम सबसे उंची प्रतिमा बनाने की कवायद चल रही है। मोदी कहते निर्माण का बेजोड़ नमूना होगा ये। वही निर्माण शब्द जो नेहरू को प्रिय था। खांचे में बांट कर सियासी फायदा लेने की चाहत वाला कांग्रेसी तबका आरएसएस पर पटेल की राय का हवाला दे रहा है पर पटेल के उस बयान से कन्नी काटने की कोशिश भी दिखती जिसमें इंडिया के पहले गृह मंत्री ने नेहरू को द ओनली नेशनलिस्ट मुसलिम आई नो कह कर संबोधित किया था। अब राहुल क्या करें… जनसंवाद और अपने वरिष्ठों के दंगा केन्द्रित अभियान के बीच के कशमकश से कैसे पार पाएं? क्या नेहरू से संबल पाने की अभिलाषा करें वे?

आजादी के बाद का समय… गंभीर अन्न संकट के चलते अनाज आयात की नौबत। साल १९५२ की ही बात है जब नेहरू कह उठे – … मुझे खेद है कि मेरे वचन झूठे साबित हुए हैं और मैं बेहद शर्मिंदा महसूस कर रहा हूं कि देश के लिए जो संकल्प मैंने लिए वो गलत साबित हो रहे…

ये उन्हीं नेहरू के शब्द हैं जिनकी सोच सिंथेटिक होने की बात गाहे-बगाहे उठती रही। साल १९४२ में ही महात्मा गांधी ने नेहरू पर जो टिप्पणी की थी उसे गौर करें – … हमारे मतभेद तभी से सामने आने लगे जबसे हम सहकर्मी बने… और मैं सालों से कह रहा कि राजाजी नहीं बल्कि नेहरू मेरे उत्तराधिकारी होंगे… नेहरू मेरी भाषा(विचार) नहीं समझते और वो जो भाषा(विचार) बोलते वो मेरे लिए भदेसी है… लेकिन मैं जानता हूं कि जब मैं नहीं रहूंगा… तब वो मेरी भाषा बोलेंगे…

राहुल अपनी भाषा की तलाश में हैं। ये भी कहा जाता है कि काफी ना-नुकुर के बाद उन्होंने कमान संभाली है। यूपीए के दस साल की एंटी इनकंबेंसी का बैगेज है उनपर। सुदूर इलाकों की खाक छानने से मिला अनुभव उन्हें इंडिया के साथ भारत के भी दर्शन करा रहा है। लोगों को अधिकार संपन्न बनाने जैसे राजनीतिक मुहाबरे का साथ है उनके पास। ऐसा मानने वाले बहुत हैं जो उनको साल २०१९ आम चुनावों में फेवरिट पीएम मैटेरियल साबित होने वाला बताते। वे कहते कि तब तक – राहुल कांग्रेस – आकार ले चुका होगा जो उनके पीछे खड़ा होगा।

नेहरू ने भारत को जानने की कोशिश की और डिस्सकवरी ऑफ इंडिया लिख डाली। राहुल भारत और उसकी जनआकांक्षा को डिस्कवर कर रहे। वे कहते कि इस आकांक्षा की झलक कांग्रेस के मेनिफेस्टो में दिखेगी। अब नेहरू के एक और बयान से गुजरिए-

… हम आधुनिक युग से तभी तालमेल बिठा पाएंगे जब हम लेटेस्ट टेक्नीक का इस्तेमाल करेंगे… चाहे वो बड़ी फैक्ट्रियां हों या छोटी या फिर ग्रामीण उद्योग….

न जाने नेहरू यहां पर गांधी की भाषा किस हद तक बोल रहे थे…दिलचस्प है कि नरेन्द्र मोदी के भाषणों में नेहरू के इस समझ की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। चुनाव प्रचार के शोर के बीच याद रखना जरूरी है कि हाल के समय में औद्योगिक विकास में इंडिया काफी पिछड़ा है।

साल १९६४…स्थान- भुवनेश्वर…. नेहरू का आखिरी भाषण…इसके कुछ अंश देखें-

… केवल भौतिक उन्नति मानव जीवन को मूल्यवान और सार्थक नहीं बना सकता… आर्थिक विकास के साथ नैतिक और आध्यात्मिक मूल्य को बढ़ावा देना होगा… ये मानव संपदा को पूरी तरह सुखी और चारित्रिक बनाए रखेगा…

संभव है सोच के ऐसे रंग देश के एक बड़े वर्ग और बीजेपी के चुनिंदा बुजुर्ग नेताओं के उद्गार में दिखें। जहां नैतिकता और चरित्र जैसे शब्द हों … ऐसी समझ को मौजूदा प्रगतिशील यथास्थितिवादी कह कर खारिज करते रहते। राहुल जब अपने वरिष्ठों और प्रगिशीलों की दंगा केन्द्रित अभियान की बातें सुनते हैं तो क्या उन्हें नेहरू के इस कथन का अख्यास रहता है?

डिस्कवरी ऑफ इंडिया के एक और अंश को देखें-

… आधुनिक मानस… व्यावहारिक और विवेकसम्मत, नैतिक और सामाजिक है…. ये तबका सामाजिक बेहतरी के लिए व्यावहारिक आदर्श से संचालित है… यही आदर्श जो उसे प्रेरित करते…- युगधर्म है… इसके लिए मानवता ही ईश्वर है और समाज सेवा ही इसका धर्म है…

यहां हुक्मरानों के लिए उस बड़प्पन से सरोकार जताने की ओर संकेत है कि सत्ता में यांत्रिक सोच न हो। नेहरू के इस- युग धर्म – की पटेल को याद करने वाले नरेन्द्र मोदी और कशमकश से जूझ रहे राहुल गांधी कितनी गरमाहट महसूस करने को तैयार हैं…ये तो वे ही बता सकते…?

संजय मिश्रा

लगभग दो दशक से प्रिंट और टीवी मीडिया में सक्रिय...देश के विभिन्न राज्यों में पत्रकारिता को नजदीक से देखने का मौका ...जनहितैषी पत्रकारिता की ललक...फिलहाल दिल्ली में एक आर्थिक पत्रिका से संबंध।

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