नारी नमस्ते

बलात्कार के वैज्ञानिक विश्लेषण को समझने की जरूरत

अक्षय नेमा मेख //

बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को तब तक कम नहीं किया जा सकता, जब तक कि उसकी नब्ज न टटोली जाये। कहने, सुनने और कानून बनाने से उसकी जड़ ख़त्म नहीं हो जाती। दिल्ली में हुआ बलात्कार एक ऐसी ही घटना है जिस पर कानूनी कार्यवाही हो रही है। कई बड़े मनीषी, पत्रकार अपने-अपने विचार लिख रहे हैं । लोग सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन कर रहे हैं । पर कोई भी बलात्कार की नब्ज टटोलने का काम नहीं कर रहा है । कोई यह सोचता ही नहीं कि आखिर बलात्कार होते क्यों है? यही एक प्रश्न समूचे समाज के गले की फांस बना हुआ है। इस पर भी अलग-अलग लोग अपनी अलग-अलग राय दे रहे हैं । कुछ लोग बलात्कारों को पश्चात्य संस्कृति  व आधुनिकता की निशानी कहते हैं। खाप पंचायते और साधू-संत इसका त्वरित उदाहरण है। कुछ खाप पंचायतों ने तो लड़कियों के कम वस्त्र, यहाँ तक कि जींस-टीशर्ट व मोबाइल पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया है। जबकि वास्तविकता इससे काफी इतर है । आज छोटी छोटी बच्चियां आये दिन बेरहमी से बलात्कार और हत्या की शिकार हो रही हैं जिनका कोई आधार नहीं किसी तरह के पहनावे और आकर्षित करने के घिनौने तर्क का। यहां मामला पूरी तरह से यौनिक कुंठा और मानसिक विक्षिप्तता का होता है। मगर ये लोग जिस पश्चात्य संस्कृति का हवाला देते हैं, उसका कोई स्वरुप नहीं है बस  सहजता के आधार पर टिकी वह संस्कृति ,भारतीय संस्कृति को आज ठेंगा दिखा रही है।

पश्चात्य संस्कृति जिसके लिए अमेरिका व यूरोपीय देश जाने जाते हैं। जहाँ खुले आम होठों से होठ मिलाये लड़के-लड़कियां देखे जा सकते हैं। जहाँ कोई भी मानसिक पीड़ा व चिंता से ग्रस्त नहीं है। शायद इसलिए कि वहां तनाव नहीं है। जिस कारण वहां सेक्स को लेकर भी कोई दिक्कतें नहीं हैं ।हमारे यहाँ 14-15 साल में लड़कियों की यौनिकता व करीब 16 साल में लड़कों की यौनिकता शुरू होती है। जबकि इन्ही पश्चात्य संस्कृति वाले देशो में 13 साल की लड़की व 15 साल के लड़के को माँ-बाप बनते हुए भी देखा गया है। इसका एक परिणाम यह भी निकलता है कि भारत यौनिकता में भी पश्चात्य देशों से पिछड़ा हुआ है।

साथ ही इन पश्चात्य संस्कृति वाले देशों में बलात्कार की घटनाएँ नहीं होती, क्योंकि वहां जिस तरह का माहौल बना हुआ है वह वाकई बहुत मजबूत है। जबकि भारत तो स्वंय को धर्मगुरु-विश्वगुरु कहता है, फिर यहाँ बलात्कार क्यों होते है? क्या यही हमारी संस्कृति है? नहीं ! हमारी संस्कृति को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है और इसका श्रेय तथाकथित साधू-संतों को जाता है। जो अपने आश्रमों के नाम पर सेक्स प्लेस बना लेते है। वे साधु-संत जो अपनी शिष्याओं का यौन शोषण करते हैं और समाज को सभ्य बनने  की शिक्षा देते हैं। ये लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नाजायज फायदा उठाते हैं। इन्हीं लोगों के कारण बच्चों व युवाओं को घर से लेकर बाहर तक असहजता के माहौल से गुजरना पड़ता है।

एक परिवार साथ बैठकर फिल्म नहीं देख सकता, यदि देख भी रहा हो तो “मुन्नी बदनाम…….व “शीला की जवानी…….” जैसे गानों पर माँ-बाप लड़की को पानी लेने और लड़के को बाहर किसी बहाने से भेज देते हैं। या चैनल ही बदल देते हैं। कहने के नाम पर बच्चों को सेक्स संबंधी शिक्षाएं दी जाती है, पर वास्तविकता यह है कि माँ-बाप हो या शिक्षक-शिक्षिकाएं, सेक्स पर बातें करते हुए उन्हें शर्म आती है तो वे भला बच्चों को क्या शिक्षा दे पायेगें।

शासन-प्रशासन से उम्मीदें करना अपनी जान जोखिम में डालना साबित हो रहा है। महिलाओं के नाम पर केवल खोखली राजनीती हो रही है जबकि उन्हें सुरक्षा की कोई सुविधाएँ प्राप्त नहीं है। हालत  तो यह है कि आधे से ज्यादा मामले लोगों की नजरों में भी नहीं आते और आधिकारिक रूप से उनकी कोई सुध नहीं लेता। हाल ही में हुए बलात्कार के बाद गृहमंत्री का बयान की बसों में लगे काले शीशों को हटाया जायेगा और बसों में बत्तियां जलाई जाएगी बेतुका व हास्यास्पद है। गृहमंत्री को यह सोचना चाहिए की आखिर वे कह क्या रहे है? क्या महिलाओं के साथ दुराचार सिर्फ बसों में ही होता है? महिलाओं को पूर्ण सुरक्षा देने की वजाय शासन मजाकिया होता जा रहा है।

“यहाँ तो बस गूंगे और बहरे लोग बसते है”। वाकई समाज में चारो तरफ अंधकार ही अंधकार छाया हुआ है। यदि सामाज में इन वारदातों को रोकना है तो नजरिया बदलना होगा। हमें अब अपनी संस्कृति में पश्चात्य की सहजता जोड़ कर उसे पूर्ण करनी होगी। परिवार को “मुन्नी बदनाम…….व “शीला की जवानी…….”जैसे गानों पर प्रत्येक सदस्य की राय जाननी होगी। धर्म के नाम पर साधू-संतों, मुल्ला-मौलवियों को बदलना होगा। शासन-प्रशासन व मीडिया को आसमान से धरातल पर आकर जन समुदाय से जुड़ना होगा। स्त्रियों को शारीरिक रूप से सक्षम होना होगा। जरूरी है हमें खुद को बदलना होगा, फिर सब अपने-आप ही बदलने लगेगा। बस एक छोटे से प्रयास की जरूरत है।

अक्षय नेमा मेख

स्वतंत्र लेखक

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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2 Comments

  1. लेखक ने अच्‍छे शब्‍दों का चयन करते हुए, समसामयिक विषय पर विचारणीय प्रश्‍नों को उठाया है। इस लेख का निष्‍कर्ष ही एक मात्र समाधान है। शुभकामनाएं, अक्षय; आशा है ऐसे ही अन्‍य विषयों पर कुछ अच्‍छे लेख पढ़ने को मिलेंगे।

  2. एक बात आप सुधार लें , पाश्चात्य देश सबसे ज्यादा मानसिक कुंठा एवं अवसाद से ग्रसित हैं। विकसित होते हुये भी वे अभी तक यह नही समझ पायें कि उन्हें तलाश किस चीज की है। भारत के धर्म से लेकर बौद्ध धर्म, इस्लाम तक मे अपनी समस्या जिसे उन्हे पता भी नही, उसका निदान ढुंढते फ़िरते हैं। बलात्कार वस्तुत: एक सामाजिक-आर्थिक समस्या है, इसके दो पहलू है, एक तो यह कि गरीब जो बलात्कार करता है वह अपनी यौन ईच्छा की पूर्ति के लिये करता है जबकि अमीर अपने शौक के लिये या अहंम की तुष्टी के लिये। इसे समाप्त करना शायद कठिन है, पाश्चात्य देशो मे भी बलात्कार होते हैं। हां इसे कम किया जा सकता है। इसके लिये सामाजिक पहल और सोच को बदलने की जरुरत है जो सरकार का नही , मेरा -आपका काम है ।

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