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बिहार में ‘मुस्लिम वोट बैंक’ की सियासत

पिछले कुछ दिनों से बिहार में जो सियासी गणित बैठाये जा रहे हैं, उसके केंद्र में भी मुस्लिम वोट बैंक ही है। बिहार की राजनीतिक प्रयोगशाला में ईजाद किये जा रहे फार्मूले का इस्तेमाल आगामी लोकसभा चुनाव के दौरान देश भर में किये जाने की पूरी संभावना है। तमाम राजनीतिक दलों की नजर ‘मुस्लिम वोट बैंक’ पर है, इसलिए सेक्यूलरिज्म का राग जोर-शोर से छेड़ा जा रहा है। यहां तक कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी नीतीश कुमार को सेक्यूलर घोषित करके मुस्लिम वोट बैंक का अभी से ही ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रहे हैं। अब यह पूरी तरह से मुलसमानों के ऊपर निर्भर है कि वह खुद को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल होने देते हैं या नहीं। ट्रैक रिकार्ड तो यही कहता है कि अब तक मुलसमान खुद को वोट बैंक मानते रहने की जेहनियत से ऊपर नहीं उठे हैं। चुनावों के दौरान जिस तरह से मस्जिदों से जारी होने वाले फरमानों से संचालित होकर वे वोट डालते हैं, उससे तो यही पता चलता है कि अभी तक उनके अंदर मतदाता के रूप में स्वतंत्र सोच विकसित नहीं हुई है। मुस्लिम हित के नाम पर मुस्लिम रहनुमा भी उनका इस्तेमाल महज वोट बैंक रूप में ही करते रहे हैं।
लालू की बौखलाहट
फिलहाल बिहार की सियासी गणित में तेजी से आ रहे बदलाव और  नीतीश कुमार के नये मूव से सबसे अधिक बौखलाहट लालू में है। नीतीश कुमार भाजपा को दरकिनार करके अब बिहार में मुसलमानों को पूरी तरह से लुभाने में लग गये हैं। खुद को सेक्यूलर साबित कर रहे हैं ताकि मुसलमानों को भाजपा का भय दिखाकर अपने पक्ष में लामबंद कर सके। यह काम अब तक लालू प्रसाद किया करते थे। बिहार में मुसलमानों को भाजपा का भय दिखाकर वह लंबे समय तक सत्ता पर काबिज रहे। अब नीतीश कुमार सीधे लालू के वोट बैंक में सेंध लगाने की जुगत में हैं। वह कहां तक कामयाब हो पाते हैं, यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन फिलहाल नीतीश कुमार की इस रणनीति से लालू की बेचैनी जरूर बढ़ गई है। अपनी बेचैनी का इजहार करते हुये लालू ने कहा भी है कि नीतीश कुमार मुलसमानों को बरगलाने की कोशिश कर रहे हैं। 17 साल से भाजपा जैसी सांप्रदायिक ताकतों से मिले रहे और अब अचानक सेक्यूलर हो गये हैं।
मोदी के खिलाफ लामबंदी
मुस्लिम वोट पैटर्न पर नजर रखने वाले जानकारों का कहना है कि विवादास्पद बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद से वे मतदान किसी प्रत्याशी को जिताने के बजाय भाजपा प्रत्याशी को हराने की रणनीति के तहत करते हैं। उनके धार्मिक और सियासी रहनुमा भी यही फरमान जारी करते हैं कि किसी भी प्रत्याशी का प्रतिनिधि जीते, भाजपा के प्रत्याशी की हार होनी चाहिए। आगामी लोकसभा चुनाव में भी उनकी रणनीति कमोबेश यही रहेगी। और जिस तरह से नरेंद्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के तौर पर उछल रहा है, उससे मुसलमानों का भाजपा के खिलाफ लामबंद होना स्वाभाविक है। विभिन्न संचार माध्यमों का इस्तेमाल करते हुये  मुसलमानों के बीच नरेंद्र मोदी के पक्ष में हवा बनाने की लाख कोशिश की जाये लेकिन मुसलमान नरेंद्र मोदी के नाम पर मुहर लगाने के लिए कतई तैयार नहीं होंगे। मुसलमानों को भाजपा व मोदी के खिलाफ उकसाने में कांग्रेस भी अहम भूमिका निभा रही है। कभी बिहार में मुसलमानों पर कांग्रेस की मजबूत पकड़ थी। आडवाणी की रथयात्रा पर लगाम लगाकर लालू मुसलमानों की हिमायत हासिल करने में सफल हुये थे। बिहार में मुसलमानों का एक बहुत बड़ा तबका आज भी लालू से जुड़ा हुआ है। सत्ता पर काबिज होने के बाद से ही नीतीश कुमार मुसलमानों पर खास ध्यान दे रहे हैं। बिहार में तमाम खानकाहों और कब्रिस्तानों को नीतीश कुमार द्वारा खुलकर धन दिया गया है। यदि बदलती हुई परिस्थिति में नीतीश कुमार मुसलमानों के बीच मजबूत पैठ बनाने में सफल होते हैं तो मुस्लिम वोट लालू और नीतीश दोनों को मिलेंगे। इन दोनों के सामने मुस्लिम वोट हासिल करने का एक मात्र रास्ता यही होगा कि दोनों भाजपा व नरेंद्र मोदी को मुसलमानों के सामने खलनायक के रूप में पेश करते रहें। नरेंद्र मोदी को लेकर दोनों का आक्रामक रवैया यही दर्शाता है कि मुस्लिम वोट हासिल करने के लिए दोनों एक ही रणनीति पर अमल कर रहे हैं।
एक पांत में लालू और नीतीश
वैसे देखा जाये तो लालू पहले से ही कांग्रेस के पक्ष में खड़े हैं, पिछले कुछ अरसे से नरेंद्र मोदी की लगातार मुखालफत करके नीतीश कुमार भी उसी पांत में खड़े हो गये हैं। कांग्रेस की हिमायत हासिल करने के लिए नीतीश कुमार अंदर ही अंदर लालू से होड़ कर रहे हैं। यदि नीतीश कुमार कांग्रेस के और करीब आते हैं तो इसका सीधा नुकसान लालू को ही होगा। नीतीश कुमार बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने के लिए अभियान छेड़े हुये हैं और कांग्रेस भी नीतीश कुमार के इस अभियान को हवा दे रही है ताकि आगामी लोकसभा चुनाव तक यह मुद्दा बिहार की राजनीति में शीर्ष पर रहे। नीतीश कुमार की रणनीति इस मुद्दे पर बिहार के लोगों को एकजुट करके आगामी लोकसभा चुनाव  में अधिकतम सफलता हासिल करने की होगी। बिहार के सामूहिक हित का नारा एक वर्ग विशेष को रास आ सकता है। इस मसले को लेकर नीतीश कुमार बिहार में स्कोरिंग पोजिशन में हैं। बड़ी चालाकी से उन्होंने विशेष राज्य के मुद्दे को जदयू के कार्यक्रम में शामिल कर लिया है। परिवारवाद के मोह में फंसे लालू अब तक बिहार के सामूहिक हित के मसलों को फोर्सफुली उठाने में पूरी तरह से नाकामयाब रहे हैं। बिहार की बदलती राजनीतिक परिस्थिति में लालू एक बार फिर आरोप-प्रत्यारोप करते हुये ही नजर आ रहे हैं। अभी भी उनके पास ठोस कार्यक्रमों का अभाव है। और लफ्फाजी के मामले में भी नीतीश कुमार उन पर भारी ही पड़ रहे हैं।
कुंद हो सकती है ‘माय’ की धार
इसके पहले नीतीश कु्मार बिहार में महादलित की अवधारणा प्रस्तुत करके पहले ही लालू को काफी नुकसान पहुंचा चुके हैं। पिछड़ा, दलित और मुसलमानों को लेकर सत्ता में बने रहने का जो ताना-बाना लालू ने बुन रखा था, उसे ‘महादलित’ की अवधारणा ने बहुत हद तक प्रभावित किया है। जिस वक्त महादलित की अवधारणा का सूत्रपात किया जा रहा था, उस वक्त भी लालू बहुत कसमसाये थे। दलितों की बस्ती में जाकर साबुन-सोडा बांटकर शासक होने का  वह जो मनोवैज्ञानिक सुख हासिल करते थे, उससे उन्हें वंचित होना पड़ा। बिहार की बदलती सियासी समीकरण में राजद को विपक्ष का दर्जा भी खोना पड़ रहा है। भाजपा को विपक्ष में बैठाने के बाद अब नीतीश कुमार पर भी कोई अंकुश नहीं रहेगा। गठबंधन के बोझ से पूरी तरह से मुक्त होकर एक शासक के तौर पर बिहार में मुसलमानों को रिझाने के लिए वह बहुत कुछ करने की स्थिति में रहेंगे। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी मुसलमानों के बीच लालू के कद को छोटा करने की। ऐसा करने के लिए वह स्वाभाविक तौर पर ऐसे मुस्लिम नेताओं को ज्यादा तव्वजो देंगे, जो लालू का विरोध करते हुये ‘मुस्लिम वोट बैंक’ को उनकी तरफ खींच ले आये। लालू भी इस बात को अच्छी तरह से समझ रहे हैं कि उनके वजूद को सबसे अधिक खतरा नीतीश कुमार से ही है। यदि नीतीश मुसलमानों को अपने पक्ष में करने में कामयाब हो गये तो लालू का आजमाया हुआ माय (मुस्मिल और यादव) समीकरण की धार कुंद हो सकती है। बिहार में तमाम उठापटक के बावजूद अब तक मुसलमानों के लिए एक मात्र विकल्प लालू ही थे।

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