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भारत की हार और इंडियन राजनीति की जीत – 2

संजय मिश्र,  नई दिल्ली

4 जून 2011 के बहशियाना हमला झेलने के बाद रामदेव ने कहा था कि मरकर शहीद होने की सलाह को एक न एक दिन पीछे छोड़ दूंगा। 14 अगस्त 2012 को जीवित रह गए रामदेव के मुस्कराने का दिन था। एक आध दलों को छोड़ अधिकाँश गैर कांग्रेसी राजनीतिक दल काला धन के मुद्दे पर उन्हें समर्थन देते नजर आए। हाथ धो कर उनकी आलोचना करने वाले पत्रकार और टीवी स्टूडियो में बैठे विश्लेषक 13 और 14 अगस्त को जे पी आन्दोलन के दौर के गैर कांग्रेसवाद को याद करने का लोभ कर रहे थे। बेशक जे पी की शख्सियत बहुत ऊँची थी और वे खालिस राजनेता थे। ऊपर से सिक्सटीज का गैर कांग्रेसवाद 74 के आन्दोलन में अपने चरम पर था।

फिर ऐसा क्या हुआ जो लोग जे पी आन्दोलन से तुलना करने को मजबूर हुए? आज कांग्रेसी रवैये पर देश भर में प्रचंड नाराजगी व्याप्त है जिसे रामदेव अपनी तरफ मोड़ने में कामयाब हुए हैं। लिहाजा अन्ना आन्दोलन के ठहराव से मायूस हुए कई लोग रामदेव के आन्दोलन में  छाँव की तलाश कर रहे थे।  रामदेव के व्यापक समर्थक आधार को विपक्षी दलों के अलावा कांग्रेस की शरण में रहने वाले दल भी अवसर के रूप में देख रहे थे। ऐसा लगता है कि कोई अकेला गैर कांग्रेसी मोर्चा तो नहीं बन  पाए पर रामदेव के मुद्दे का समर्थन करने आए लोग विभिन्न राज्यों में चुनाव के दौरान उनसे समर्थन की आस रखे। रामदेव ने संकेत दिया है कि समर्थन करनेवाले दलों ने उन दलों के अन्दर भ्रष्ट तत्वों को ठीक करने का वायदा किया है। संभव है ये दल अत्यधिक विवादित उम्मीदवारों से परहेज कर रामदेव का समर्थन ले लें।

अन्ना और रामदेव के आन्दोलन में तात्विक फर्क दिखता है। अन्ना के प्रयास संविधानिक इंडिया के शुद्ध देसीकरण की तरफ है। जबकि रामदेव के आन्दोलन में गांधी के देशज विचार, मालवीय की सोच, संविधान को ग्राम सभा केन्द्रित करने वाले आह्लाद, रामदेव की खुद की देसज सोच, बीजेपी के  गोविन्दाचार्य ब्रांड विचार और इन तरह के तमाम आग्रह एक साथ अपनी झलक दिखाते हैं। याद करें कांग्रेस विभिन्न विचारों को आत्मसात करने की क्षमता रखती थी। अब कांग्रेस को उसी की पुरानी शैली में जबाव मिल रहा है।

यकीन करिए अंदरखाने इस पार्टी में चिंता तैर रही है। इस बीच राष्ट्रवाद की भी बात होती रही। अन्ना आन्दोलन का राष्ट्रवाद देश हित की चरम चिंता में प्रस्फुटित हुआ है जबकि रामदेव राष्ट्रवाद के विभिन्न विचारों को एक साथ ढोने की कोशिश में लगे हैं। ये संविधानिक इंडिया की राष्ट चिंता को भी बुलावा देना चाहता। यहाँ भी कांग्रेस के लिए चिंता का सबब है। जे पी के आन्दोलन की परिणति को याद करें तो सत्ता परिवर्तन तो हो गया लेकिन उनके चेले सत्तासीन होते ही खुद जे पी के विचारों को भूल गए। जातीय और धार्मिक उन्माद की राजनीति, घोटालों में संलिप्तता और इन सबके बीच अल्पसंख्यकों को रिझाने के लिए कुछ भी कर गुजरने की निर्लज कोशिश अभी तक परवान है। ऐसे दल रामदेव से समर्थन ले लेने के बाद राजनीतिक शुद्धीकरण की दिशा में कितनी दूर तक साथ निभा पाएंगे ये अंदाजा रामदेव को भी नहीं होगा। भारत के लोग ठहर कर देख लेना चाहते हैं।

संजय मिश्रा

लगभग दो दशक से प्रिंट और टीवी मीडिया में सक्रिय...देश के विभिन्न राज्यों में पत्रकारिता को नजदीक से देखने का मौका ...जनहितैषी पत्रकारिता की ललक...फिलहाल दिल्ली में एक आर्थिक पत्रिका से संबंध।

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