मंजिल का सफ़र (कविता )
– धर्मवीर कुमार
मंजिल का सफ़र कतई आसान न था,
क्योंकिं मुझ पर कोई भी मेहरबान न था.
रास्ते में छोटे- बड़े अवरोध भी मिले,
सच कहता हूँ हरगिज परेशान न था.
खुश हूं वहीं, जो मिला उसी को ‘मंजिल’ समझकर ,
जहाँ बैचेन हैं सभी ‘मंजिल’ से आगे भी निकलकर .
गिनता नहीं दुखों को जिसे देखा है हमने,
आखिर खुशियों को गिनने से फुरसत भी तो रहे.
मिलता नहीं उन्हें अपने सिवा कोई,
जिससे उन्हें कोई भी शिकायत नहीं रहे.
रोते हैं वे यह सोचकर जिन्दगी की दौर में ,
बहुतों से वे बहुत ही पीछे रह गए.
खुश रहतें हैं हम हमेशा यह सोच- सोच कर,
कि कल जहाँ थे उससे आज, हम आगे निकल गए.
गर उनके लिए खुशियों में ख़ुशी ढूँढना मुश्किल बना रहा,
मेरे लिए भी दुखों में ख़ुशी ढूँढना आसान न था.
मंजिल का सफ़र कतई आसान न था,
क्योंकि मुझ पर कोई भी मेहरबान न था.
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अच्छी कविता है.
wah wah !
Very good ……
kavita bahut hi badhiya bhavpurn tatha kasi hui hai