महात्मा गाँधी के तीन बंदरों का पतन
अहिंसा का यथार्थ केवल इतना ही नहीं कि किसी जीव के प्रति हिंसा न की जायें, बल्कि अहिंसा को महात्मा गाँधी ने जिन विचारों व स्वरूपों में विभक्त किया, उनसे मानव एक उच्च कोटी का समाज बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दें सकता हैं। महात्मा गाँधी ने अपने जीवन के सत्याग्रह में जिन तीन बंदरों को जन्म दिया दरअसल वे तीन बंदर ही एक विस्तृत समाज व अहिंसा के सिद्धांत की सीढ़ियाँ कहे जा सकते हैं, लेकिन अफसोस कि महात्मा गाँधी के उन तीन बंदरों का अनुपालन करने का सामर्थ्य आज विश्व में किसी भी व्यक्ति के पास नहीं हैं। जिसके परिणाम स्वरूप विश्व में हिंसा, शोषण, अत्याचार व आपराधिक प्रवृत्तयों का कोप दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा हैं। यहां तक कि हमें जो सिद्धांत धरोहर के रूप में मिले वे आज आधुनिकता की बलि-बेदी पर बेड़ियों से जकड़े उन्हीं महापुरूषों की राह ताक रहे है, जिन्होंने उन्हें जन्म दिया, उनका लालन-पालन कर उन्हें इस योग्य बनाया कि वे कुंठित समाज से एक सभ्य व नम्र समाज का खाका खींच सकें। पर इन सिद्धांतों पर हमने आधुनिकता का इतना भीषण बोझ रखा कि सभ्य समाज का सपना तो छोड़ो इन सिद्धांतों की परिकल्पना भी आज नहीं की जा सकती। शायद इसका एक कारण मानव का स्वार्थी होना भी रहा है। क्योंकि स्वार्थ ही वह बेड़ी है जो व्यक्ति को जकड़ कर उसे अपनों से दूर कर देती है फिर सिद्धांतों को यहाँ कहावतों के सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता।
यही कारण है कि देश ही नहीं समूचे विश्व में नित नये अपराधों की उगाही से व्यथित हृदयों की पुकारें आज भी महात्मा गाँधी को रो-रो कर पुकारती हैं। इसका कारण अहिंसा के प्रति उनकी सत्यनिष्ठा ही कही जा सकती है। विश्व में शांति, सौहाद्रता व भाईचारा बने इसके लिये जरूरी है अहिंसा का वह नारा जिसे महात्मा गाँधी ने “अहिंसा परमो धर्मः” कह कर बुलन्द किया। जिसके लिये तीन सीढ़ियों को बनाया और उन्हें हिदायतें दी कि वे ‘बुरा न देखें’, ‘बुरा न सुनें’ और ‘बुरा न कहें’। लेकिन आज ये हिदायतें इस आधुनिकता के दौर में इतनी फीकी दिखाई देती है कि विश्व और देश तो छोड़ो इनका अनुपालन घर-परिवार में भी नहीं किया जाता। एक-दूसरे के प्रति बने आदर, सम्मान व स्नेह को हमने इस कदर लताड़ दिया है कि वर्षो पुरानी सारी की सारी परम्पराएँ धूमिल होती जा रही है। आधुनिकता का ढोंग और बढ़ती स्वार्थ प्रियता के कारण महात्मा गाँधी के उन तीन बन्दरों ने भी सख्त हिदायतों के बावजूद अपने आँख, कान व मुँह पर बंधी पट्टियाँ खोल दी है। जिससे कि महात्मा गाँधी का सभ्य समाज के लिये देखा गया सपना भी चकना चूर हो गया हैं।
कुल मिलाकर हमने इन तीन बन्दरों को महज बन्दर ही माना, लेकिन ये बन्दर बिना गोरे-काले का भेद किये प्रत्येक इंसान में समाये वे गुण हैं जिनसे एक शांतिमय वातावरण स्थापित किया जा सकता है। ऐसे में इन तीन बन्दरों का पतन सम्पूर्ण मानव जाति का पतन कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। मानव समुदाय से इन तीन गुणों के पतन के बाद समूचा विश्व न जाने किस ओर जायेगा? लेकिन महात्मा गाँधी के वे तीन बन्दर हमेशा याद किये जायेंगे।
– अक्षय नेमा मेख
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स्वतंत्र लेखक