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मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी (भाग-४)

—————– संजय मिश्र ———– १३-१०-२०१२…बिहार के दरभंगा नगर के पोलो ग्राउंड में करीब २० हजार लोग जमा हुए… वे काफी रोष में थे… … यूएसए गो टू हेल, ओबामा अब बस करो.. जैसे नारे फिजा में गूंज रहे थे… ये लोग अमेरिका में बनी फिल्म इनोसेंस आफ मुस्लिम्स का विरोध कर रहे थे… वे इस बात से आहत थे कि फिल्म में इस्लाम के प्रतीकों से खिलवाड़ किया गया है… अंजुमन कारवां ए मिल्लत की अगुवाई में हुई इस सभा के बाद लौटती भीड़ ने डीएम कार्यालय के दरवाजे के पास तोड़-फोड़ कर दी।
खबर ये है कि ०४-१०-२०१२ को जब इस विरोध मार्च का निर्णय हो रहा था तो मुसलमान समाज के बड़े बुजुर्ग सौ लोगों के साथ प्रतिवाद मार्च निकालने के पक्ष में थे… जबकि युवा मुसलमानों के पक्षधर इसके लिए तैयार नहीं हुए… पत्रकारों के सामने ही समाज के दो खेमों के बीच तल्खी साफ नजर आ रही थी… आखिरकार डेढ़ सौ लोगों के साथ पैदल मार्च की योजना बनी… बुजुर्ग मुसलमान लगातार याद दिलाते रहे कि फिल्म का इंडिया से लेना-देना नहीं है लिहाजा देश के हुक्मरानों के खिलाफ नारेबाजी नहीं हो…लेकिन जब सभा हुई तो २०००० प्रदर्शनकारियों को संभालने में पुलिस के पसीने छूटते रहे।
अब जरा रूख मुंबई का करें …११-०८-२०१२ को बर्मा की घटनाओं के विरोध में मुंबई के आजाद मैदान में पुलिस बंदोवस्त अचानक उमड़ आई बेकाबू भीड़ के लिए नाकाफी साबित हुआ… भीड़ ने कई महिला पुलिसकर्मियों को घेर लिया और उससे छेड़खानी हुई… कपड़े नोचे गए … पास खड़े मीडिया के ओवी वैन जला दिए गए… शहीद स्तंभ को तोड़ दिया गया…ये दृष्य देश के लोगों ने देखे… २५-०७-२०१४ को सहारनपुर दंगों के दौरान भी अचानक आ गई भीड़ की संख्या सबों को चौंकाती रही… ऐसी घटनाएं देश के कई हिस्सों में जब-तब घट रही हैं।
इसमें एक पैटर्न है… उधम मचाने वाली भीड़ में अनुमान से बहुत अधिक तादाद में लोगों का जुटान… मुस्लिम समाज के समझदार तबके का सीमा तोड़ने वाले इन युवा मुसलमानों पर नियंत्रण नहीं… देश और विदेश की घटनाओं पर इन युवकों का अतिवादी, तंग और जुनून से भरा रवैया…. ये पैटर्न इंडिया के मुसलमानों की मेनस्ट्रीम सोच से जुदा हकीकत पेश करता है…इसमें बहुत ही कम तत्व माइनोरिटिज्म के खोजे जा सकते…
इस्लामिक दुनिया की उथल-पुथल… उन जगहों से अलग अलग मकसदों से आर्थिक मदद के नाम पर आ रहे पैसे, सोशल मीडिया का बेलगाम स्वभाव जैसा मंच और हेट मोदी अभियान का असर भी है उनपर… मोदी विरोध का मकसद भले वोट से जुड़ा हो… पर ये भटका हुआ तबका २४ इंटू ७ मोदी विरोध से इतना उद्वेलित हो जाता है कि वो गुजरात की घटनाओं को हिन्दू बैकलैस ही मान कर चलता है… उपर से गैर-बीजेपी दलों की मुसलमानपरस्ती उन्हें हौसला देती रहती है…बाबरी डेमोलिशन उन्हें लगातार याद दिलाया जा रहा है।
उन्हें पता है कि मौजूद राजनीतिक जमात में नैतिक साहस का घोर अभाव है। उसे पता है कि उसके गुनाहों के मामले वापस लिए जाएंगे… उसे इल्म है कि कई राज्य सरकारें सुरक्षित शरणस्थली देने के लिए बेकरार है… यूपी, बिहार, महाराष्ट्र, तेलंगाना और बंगाल के माहौल उन्हें आश्वस्त करते हैं…ममता बनर्जी की पार्टी के लोगों का जो स्नेह इन तत्वों को मिला है उस पर कौन इतराना नहीं चाहेगा… वहां तो अरसा से उन्हें सहूलियत रही है…  वाम सरकारों के समय से फर्जी काम के लिए असली दस्तावेज बनाने में सरकारी सहयोग मिलते रहे हैं।
जिन्हें फिक्रमंद होना चाहिए वे हकीकत को बेपर्दा करने की जगह दबाते हैं …ताजा उदाहरण कश्मीर का है जहां आइएसआइएस के झंडे लहराए गए हैं… मीडिया मौन है…खबर को दबा रहा है… राजनेता इसकी मुखालफत करने से डर रहे हैं…यकीनन भटके हुए तत्व की सोच में तब्दीली में उनकी रूचि नहीं है… यही हाल दक्षिणपंथी राजनीतिक तबके का है जो मुसलमान युवकों के मानस की व्यग्रता को रेखांकित तो करते हैं पर मुसलिम समाज के धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक नेतृत्व से इस व्याकुलता को शांत करने की अपील नहीं करते… हस्तक्षेप करने के लिए उत्साहित नहीं करते…. हाथ मजबूत नहीं करते…उनसे संवाद नहीं करते।
मुसलिम समाज में आंतरिक संवाद को गति देने पर किसी का ध्यान नहीं है… यहां तक कि युवा मुसलमानों के भटकाव को इमानदारी से कुबूल करने का साहस नहीं दिखा रहा ये देश… क्या वाकई इंडिया के लोग हिन्दू-मुसलिम डिवाईड से चिंतित हैं? या फिर जो कोलाहल दिखता रहता है वो महज सियासी चाल है?

जारी है……….

संजय मिश्रा

लगभग दो दशक से प्रिंट और टीवी मीडिया में सक्रिय...देश के विभिन्न राज्यों में पत्रकारिता को नजदीक से देखने का मौका ...जनहितैषी पत्रकारिता की ललक...फिलहाल दिल्ली में एक आर्थिक पत्रिका से संबंध।

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