मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी (भाग-५)
संजय मिश्र
साल २०१४ के लोकसभा चुनाव के नतीजे आए तब से इसकी तरह- तरह से व्याख्या की जा रही है… एक तबका (वाममार्गी) इसे हिन्दू रिवाइवलिज्म की आहट करार दे रहा है …तो कोई इसे बहुसंख्यकवाद का करवट बदलना बता रहा है… वहीं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ए के एंटनी इस राय के हुए कि पार्टी की छवि एक समुदाय (मुसलमान) की हितैषी बन कर रह गई जिसका खामियाजा इसे भुगतना पड़ा… तो क्या ये हिन्दुओं का कोई दबा हुआ गुस्सा है जिसके उबाल मारने में कांग्रेस के अहंकार, महंगाई और घोटालों ने केटलिस्ट की भूमिका अदा की?
अब जबकि महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजे फिर से बीजेपी के पक्ष में आए हैं तो क्या ये इसी हिन्दू अभिव्यक्ति की दुबारा तस्दीक कर रही है? माना तो यही जाता कि किसी भी देश का बहुसंख्यक आम तौर पर नाराजगी नहीं दिखाता … फिर ऐसा क्या हुआ कि वे खास तरह की राजनीति को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं हैं?… क्या कांग्रेस को अहसास था कि – देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है, ओसामा जी, आतंकवाद के आरोपियों के लिए पीएम मनमोहन को रात भर नींद नहीं आई, आजमगढ़ के इनकाउंटरपीड़ियों के लिए सोनिया जी फूट-फूट कर रोई……- जैसे उद्गार हिन्दुओं पर इतना गहरा असर छोड़ेंगे?
लोकसभा चुनाव और महाराष्ट्र-हरियाणा चुनाव के बीच के काल में बिहार में महागठबंधन बना है… लालू प्रसाद ने हुंकार भरते हुए कहा कि मोदी के रथ को मंडल से रोका जाएगा… लालू जब ये कह रहे थे तो पिछड़ों और दलितों के लिए किसी अनुकंपा भाव से द्रवित हो कर नहीं बोल रहे थे…मंडल से उनका इशारा यही था कि मोदी के कारण जिस बहुसंख्यक उभार की बात कही जा रही उससे उन्मादी जातीए राजनीति के जरिए हिन्दुओं की विभिन्न जातियों के बीच दरार चौड़ी करके मुकाबला किया जाएगा…लालू राज को याद करें तो उनके इरादों की सरल व्याख्या जातियों के बीच नफरत फैलाने में ही खोजा जा सकता है।
मुसलमानों के बरक्स हिन्दू मानस को समझने के लिए बीते समय में गोता लगाना लाजिमी है…नेहरू ने जब हिन्दू कोड बिल पर जिद की तो सनातनियों में खासा आक्रोश पनपा… बिल के विरोधी आजादी मिलने से खुश थे… नव जीवन की उम्मीदों से उत्साहित … वे मान कर चल रहे थे कि सभी भारतवासी की खातिर नया सवेरा अवसर बन कर आया है… लिहाजा नए सार्वजनिक व्यवहार के लिए मन को दिलासा दे रहे थे… उनको अहसास था कि सभी नागरिकों के लिए समान सिविल कोड आएगा और उन्हें भी कुर्बानी देनी होंगी… लेकिन नेहरू ने अपनी लोकप्रियता का उपयोग कर बिल को रास्ता दिखा ही दिया।
विभाजन के बाद हिन्दुओं के लिए ये पहला झटका था…. बेमन से बिल विरोधी इस पर राजी हुए… नेहरू ने भी इस टीस को महसूस किया लेकिन पहले पीएम का भरोसा था कि हिन्दू के जीवन में इससे जो बदलाव आएगा वो मुसलमानों को भी उकसाएगा और समय के साथ वे सिविल कोड की ओर रूख कर लेंगे… छह दशक बीत चुके हैं इस देश के जीवन के… लेकिन नेहरू के उस भरोसे का कहीं अता-पता नहीं है।
शाह बानो प्रकरण के समय आरिफ मुहम्मद खां का ऐतिहासिक विरोध नजीर तो बना लेकिन राजीव के कांग्रेस से हिन्दू खूब निराश हुए… आज भी मुसलमान इस मामले में किसी दखल पर सोच-विचार करना भी चाहें तो मुसलमानपरस्ती वाला राजनीतिक और बौद्धिक जमात उसकी ढाल बनने को आतुर हो जाता है। कहा जाता है कि सिविल कोड की बात जुबां पर लाना भी कम्यूनल सोच है… ये जमात कहने लगता है कि यूनिफार्म सिविल कोड का मसला संवैधानिक है ही नहीं… इंडिया के लोग इन दलीलों को सुनते आए हैं… पर कोई भी विदेशी संविधान विशेषज्ञ ऐसी सोच पर हैरान हुए बिना नहीं रहेगा।
ऐसा ही एक मसला वंदे मातरम गान से जुड़े सन्यासी विद्रोह का है..पलासी युद्ध के बाद का समय है जब बिहार की पूर्वी सीमावर्ती जिलों से लेकर आज के बांग्लादेश के पश्चिमी जिलों तक सन्यासियों ने इस्ट इंडिया कंपनी और उनके समर्थक जमींदारों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूके रखा… स्थानीय जमींदारों की लूट-खसोट और आतंक से लोगों में दहशत थी… वारेन हेस्टिंग्स की हाउस आफ लार्ड्स में हो रही इम्पीचमेंट के दौरान लोगों की प्रताड़ना के संबंध में बताते हुए एडमंड बुर्के बेहोश हो गए थे… लोगों की इस तकलीफ की पृष्ठभूमि में ही सन्यासियों ने विद्रोह किया था…विद्रोह के निशाने पर मुसलमान जमींदार भी रहे नतीजतन इंडिया के हुक्मरान इसे आजादी की पहली लड़ाई का सम्मान देने को तैयार नहीं हैं।
चीन, यूरोप और अमेरिका में गौ-मांस बड़ी मात्रा में खाया जाता है… वहां इस मांस के स्वाद की व्याख्या वेजिटारियन मूवमेंट वालों को चिढ़ाने के लिए उतना नहीं किया जाता जितना कि गौ-मांस मीमांसा इंडिया के वाम, सोशलिस्ट और मध्यमार्गी कांग्रेस के मिजाज वाले लोग करते हैं… बहुसंख्यक मानते हैं कि इसका सीधा मकसद मुसलमानों को खुश करना और हिन्दुओं को चिढ़ाना, सिहाना और अपमानित करना होता है।
गौ-मांस के लिए लार टपकाने वाले वाममार्गी जानते हैं कि सनातन धर्म के लोग गौ को पूजते हैं… हकीकत है कि वेद के ब्रम्ह भाव में ही गाय अहिंसा की प्रतिमूर्ति बन चुकी थी… लेकिन वाममार्गी इतिहास की सरकारी किताबों में लिखते हैं— लोग गौ-मांस तो अवश्य खाते थे, किन्तु सूअर का मांस अधिक नहीं खाते थे—… इस अंश से ही कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म के वोट बैंक मंसूबों को आसानी से समझा जा सकता है… यही कारण है कि कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनते ही कांग्रेसी सिद्धारमैया गौ-हत्या पर राज्य में लगा प्रतिबंध हटा लेते हैं… बतौर सीएम ये उनका पहला निर्णय होता है… हिन्दू क्लेश में रहता है कि वो गौ-भक्षण नहीं करेगा तो ये तबका उसे प्रगतिशील नहीं मानेगा।
संविधान बड़ा आसरा है इस देश के लिए… सार्वजनिन हित के लिए… संबल की खोज बहुसंख्यकों को हो तो हैरानी कैसी… पर ये तबका उस वक्त हैरान होता है जब प्रगतिशील और वाममार्गी इतिहासकार सरकारी इतिहास की किताबों में इन्द्र को ऐतिहासिक मानते हुए सिंधु सभ्यता को नष्ट करने वाला मान बैठते हैं… उनके लिए राम और कृष्ण काल्पनिक हैं पर कृष्ण के भाई इन्द्र ऐतिहासिक हो जाते… आपको भूलभुलैया में घुमाने के बदले सीधे बता दें कि इसका मकसद आर्यों को विदेशी आक्रांता साबित करना है… मुसलमानों की तरह… चलिए आर्य बाहरी हुए और मुसलमान भी … इसका मतलब ये तो नहीं कि कश्मीर के पंडितों की एथनिक क्लिनजिंग पर राजनेता, बुद्धिजीवी और मीडिया स्तब्धकारी चुप्पी साध ले।
इस देश के अधिकांश कर्ता-धर्ता यहूदियों के दुख पर विलाप करते हुए हिटलर को कोसते रहते हैं पर कश्मीरी पंडितों की पीड़ा पर उन्हें सांप सूंघ जाता है। आरएसएस के सदस्यों पर आतंक के आरोप के नाम पर हिन्दुओं को लपेटने से इन्हें गुरेज नहीं रह जाता… यहां तक कि इंडिया के झंडे के केसरिया रंग का खयाल न रखते हुए सैफ्रन टेररिज्म जैसे जुमले इस्तेमाल करता है ये वर्ग… हिन्दुओं को इस बात की तकलीफ रहती है कि उनकी धार्मिकता से जुड़ा रंग है सैफ्रन… दिलचस्प है कि इसकी खेती का केन्द्र है कश्मीर।
आप सोच रहे होंगे कि यहां पर मसलों की फेहरिस्त लम्बी क्यों होती जा रही? चलिए बस करते हैं … मूल पाठ यही है कि हिन्दुओं के पास तमाम विकल्प मौजूद हैं जिस रास्ते वे मुसलमानों के साथ वर्केबल संबंध रखते हैं… पर ६५ साल के जवान देश बताने की सनक रखने वाले पैरोकारों का पुरातन सभ्यता से अपमानजनक वर्ताव अखरता है हिन्दुओं को… कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म की छतरी के नीचे इन कोशिशों का वीभत्स रूप सामने आ चुका है… मुसलमान अब दंगों के दाग वाले परसेप्शन से मुक्त कर दिए गए हैं और हिन्दुओं का मानना है कि इस दाग को बहुसंख्यकों पर थोपा जा रहा है…ये बताने की जरूरत नहीं कि ऐसा करने के पीछे कांग्रेस की अगुवाई वाले जमात का क्या मकसद होगा? पर क्या कोई देश बहुसंख्यकों पर दंगों के दाग के बावजूद प्रगति की राह पकड़ने का ख्वाब देख सकता है?
जारी है—–