नारी नमस्ते

लोग हर चीज़ से, हर काम से इतना जल्दी ऊब क्यों जाते हैं..?

हमारा मन कभी एक जगह नहीं ठहरता। मन इतना चंचल होता है कि उसे हर समय नए विचार, नई चीजें, नया आनंद चाहिए।
हर समय कुछ न कुछ अलग चाहिए — कुछ नया।

लेकिन जो बाहरी सुख हैं, जिनको हमारा मन खोजता है, वे सब सीमित और क्षणिक होते हैं,
इसलिए हम उनसे बहुत जल्दी ऊब जाते हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है:
“दुखालयम् अशाश्वतम्” — यह संसार दुख का घर है और अस्थायी है।
इसलिए जब हम संसार में स्थायी सुख खोजते हैं, हम निराश हो जाते हैं।

हमारी चेतना, हमारी आत्मा — जो हमेशा परम सुख की तलाश में रहती है —
जब वह इस परम आनंद को बाहरी जगत में खोजती है,
तो हमारे हाथ केवल निराशा लगती है।

क्योंकि जिस परम सुख की खोज हमारी चेतना करती है,
उसे हम बाहर — वस्तुओं में, रिश्तों में, परिवार में — ढूँढते रहते हैं।
और जब वहाँ से वह सुख प्राप्त नहीं होता, तो हम फिर किसी नई चीज़ की ओर दौड़ लगाने लगते हैं।

इसलिए, अपने मन को बाहरी जगत से हटाकर,
अपने भीतर लौटना है।
उसे ध्यान की ओर मोड़ना है।

क्योंकि एकमात्र आंतरिक सुख —
उस परमात्मा से जुड़े रहने का आनंद,
हमारी चेतना का वह शाश्वत सुख ही एकमात्र स्थायी सुख है।

इसलिए जब आप अपने भीतर लौट आते हैं,
तो बार-बार ऊबना भी रुक जाता है —
क्योंकि फिर आपकी चेतना उस आंतरिक आनंद पर ठहर जाती है
जो हमेशा से है और हमेशा रहेगा।

क्योंकि — एकमात्र वही सुख स्थायी है…!

-साक्षी

editor

सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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