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विजया भारती की काव्य संग्रह “रंग पिया का सोहना” में नारी संघर्ष के साथ-साथ नारी मन की भी बात

काव्य संग्रह “रंग पिया का सोहना” का विमोचन

नई दिल्ली, तेवरऑनलाइन। “रंग पिया का सोहना नारी-चेतना से आपूरित है। विजया भारती ने इस पुस्तक में नारी-संघर्ष की तो बात की ही है, साथ ही नारी-मन की भी बात की है। इसमें ममता, करुणा, दया आदि मनोभाव हैं, जो हमारी चेतना को जागृत करते हैं।” ये बातें गोवा की महामहिम राज्यपाल व वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. मृदुला सिन्हा ने विश्व-प्रसिद्ध लोकगायिका विजया भारती के प्रथम काव्य संग्रह ‘रंग पिया का सोहना’ के लोकार्पण के अवसर पर कही।

समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में खास तौर पर गोवा से पधारीं डॉ. मृदुला सिन्हा ने नई दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में आयोजित भव्य लोकार्पण-समारोह में बेहद विद्वतापूर्ण, आत्मीय और सरस वक्तव्य दिया। उन्होंने कहा कि मैंने अपनी दादी-नानी से लेकर नातिन-पोतियों तक नारी की पाँच-पाँच पीढ़ियों को देखा है, उनमें बाहरी साज-श्रृंगार, पहनावे आदि में भले ही कुछ परिवर्तन हो गए हैं, किंतु नारी की भीतरी संवेदना नहीं बदली है। उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त की कि यह भाव विजया भारती की इस पहले कविता-संग्रह में भी स्पष्ट परिलक्षित है। डॉ. मृदुला सिन्हा ने आज की स्त्रियों की सफलता को उनकी सबलता से जोड़ा और उनकी अस्मिता की लड़ाई को स्त्री का अधिकार बताया। उन्होंने समाज, स्त्री, लोक-चेतना, लोक-व्यवहार और लोक-परंपरा आदि दृष्टिकोणों पर अपने अनुभवसिद्ध विचार रखे। उन्होंने स्त्री-पुरुष की दूरगामी सफलता में स्त्री-पुरुष के सह-अस्तित्व को स्वीकार किया। बदलते समाज और परिवेश पर अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा कि स्त्रियाँ चाहे कितनी भी स्वच्छंद या मुक्त क्यों न हो जाएँ, वे मन से स्त्रियाँ ही होती हैं। कोई भी पीढ़ीगत असमानता महिलाओं के अंतर्मन को नहीं बदल सकती।

डॉ. मृदुला सिन्हा ने विजया भारती के काव्य संकलन ‘रंग पिया का सोहना’ की एक रचना की निम्न पंक्तियों को खास तौर पर रेखांकित किया –

शूलों की राहों पर चलते, कदमों में बवंडर रखती हूं।

लहरें कितनी प्रतिकूल रहें, मुट्ठी में समंदर रखती हूं।

डॉ. मृदुला सिन्हा ने कहा कि इस तरह की रचनाएँ अधिक से अधिक संख्या में प्रकाशित होनी चाहिए, ताकि स्त्री को एक नया आत्मविश्वास और समाज को दर्पण मिले। उन्होंने प्रसंगवश अपनी लेखन-यात्रा के कई व्यक्तिगत अनुभव साझा किए।

समारोह का प्रारंभ राष्ट्रगान और सम्मान्य अतिथियों द्वारा दीप-प्रज्वलन के साथ हुआ। सरस्वती-वंदना प्रस्तुत की सुश्री नेहा शर्मा ने। इस अवसर पर स्वागत-वक्तव्य वरिष्ठ पत्रकार ओंकारेश्वर पांडेय ने दिया।

अपने बीज-वक्तव्य में हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. गंगा प्रसाद विमल ने कहा कि विजया भारती की रचनाएं एकदम खांटी प्राकृतिक यानी नैसर्गिक हैं। इनकी साहित्यिकता इनके सहज संप्रेष्य होने के कारण सव्यंसिद्ध हैं। निजता से एकदम सार्वजनिक रुपांतरण की कला इनमें रची बसी है। बिना प्रदर्शन, बिना आंदोलन, बिना छद्म बहुत महीन कलात्मकता से इनकी रचनाओं में स्त्री प्रश्न उभरता है, जो समूची स्त्री जाति के संताप का मौलिक उद्घोष है। विजया भारती की रचनाएं नये वातायन के आलोक पथ हैं। सहृदय रसिकों के आनंद के नये स्रोत। जिस तरह विजया भारती अपनी गायिकी से लोक में प्रसिद्ध हैं, उसी प्रकार इनकी कविताओं का भी भरपूर स्वागत होगा।

साहित्य अकादेमी के सचिव डॉ के. श्रीनिवास राव ने कविता के कथ्य और उसकी उत्प्रेरणा पर अपनी बात रखते हुए कहा कि कविताएँ मात्र शब्द नहीं, अपितु भाव की अभिव्यक्ति है, जिसे एक कवि जीकर ही महसूस कर सकता है। उन्होंने आगे कवयित्री को बधाई देते हुए कहा कि निश्चित तौर पर वो कवि-मर्म को समझते हुए अपने जीवंत लेखन को आगे भी ज़ारी रखेंगी और समाज के हित में मुखरता से कलम चलाती रहेंगी।

हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला के प्रोफेसर, तथा राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के पूर्व अध्यक्ष और प्रसिद्ध पत्रकार डॉ बल्देव भाई शर्मा ने पुस्तक के बाह्य आवरण और साज-सज्जा की प्रशंसा करते हुए इसे दार्शनिक पक्ष से जोड़ा। उनका कहना था कि एक लोकगायिका होने के नाते कवयित्री विजया भारती समाज और संस्कृति को समुत्थानित तो कर ही रही हैं, साथ ही अब अपनी कविताओं के माध्यम से वे समाज में फैली भीरूता को भी कम करेंगी। उन्होंने कहा कि कवि भोगे हुए सच को ही अपनी कविताओं के माध्यम से नई धरातल देता है और दरअसल जो वियोगी मन है, वही कविता कर सकता है। उन्होंने अपनी संक्षिप्त, किंतु सारगर्भित बात रखते हुए कवयित्री से कविता के रथ को आगे बढ़ाने का आग्रह भी किया और भविष्य में ऐसी और पुस्तकों के लेखन के लिए प्रेरित किया।

भारतीय सांस्कृतिक संबंध-परिषद् के महानिदेशक अखिलेश मिश्रा ने संस्कृतनिष्ठ और संस्कृतमूलक हिंदी की बात करते हुए प्रसंगवश राम और सीता को वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिक मानते हुए रामायण और उसकी महत्ता को सार्वकालिक बताया। उनका मानना था कि कविताएँ प्राचीन काल में भी कही और गाई जाती थी, लेकिन वे सवैयों, चौपाइयों और शबद के रूप मे गाई जाती थीं। लेकिन अब कविता का मूल रूप परिवर्तित हो गया है। उन्होंने कहा कि कविताएँ अब अपने समय से लड़ने का अचूक हथियार हैं, जिसके बूते प्रतिकूल समय से लड़ा जा सकता है। अखिलेश मिश्रा ने कहा कि विजया भारती बहुमुखी प्रतिभा संपन्न बहुआयामी व्यक्तित्व की स्वामिनी हैं। इनकी लोकगायिकी तो विश्व प्रसिद्ध है ही, इनकी काव्य रचना की सघनता और गुणवत्ता को देखकर आश्चर्यचकित हूँ।

भारत सरकार के पूर्व विदेश सचिव और मराठी, हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं के सुप्रसिद्ध साहित्यकार व कवि डॉ. ज्ञानेश्वर मुले ने कहा कि विजया जी की कविताओं में स्त्री-मन की स्वच्छंद उड़ान है, और यह इसलिए कि वे लोक-परिवेश में जीती हैं। संप्रति राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्य डॉ. ज्ञानेश्वर मुले ने विजया के काव्य संकलन रंग पिया का सोहना के शीर्षक से लेकर कलेवर व रचनाओं की भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए कहा कि इसी प्रकार से हमें अँगरेजी के व्यामोह से बाहर निकलकर अपनी मातृभाषा में ही रचनारत रहना चाहिए, जिससे कि हमारी अभिव्यक्ति में सहजता और मौलिकता बनी रहे।

अपने उद्गार में कवयित्री विजया भारती ने सभी अतिथियों के प्रति अपना आभार व्यक्त किया। उन्होंने काव्य संकलन में शामिल रचनाओं के चयन में मदद करने के लिए विशेष रूप से डॉ. गंगा प्रसाद विमल और पंडित सुरेश नीरव तथा इसके प्रकाशन के लिए आलोकपर्व प्रकाशन के स्वामी श्री रामगोपाल शर्मा के प्रति विशेष आभार जताया। अपनी सुमधुर स्वर में अपनी दो कविताओं का सस्वर पाठ कर उन्होंने पूरे सभागार का दिल जीत लिया।

पहले तो विजया भारती ने पढ़ा –

हैं कई गरमागरम उसके फसाने शहर में,

घात के मेले लगे हैं इस बहाने शहर में

लेकिन उनकी इस रचना ने खूब वाहवाही बटोरी–

सुर सभा में कल कई बगुले पुरस्कृत हो गये

कोयलें अमुवां पे अपनी चीस में गाती रहीं

नाम जिनके दर्ज थे, वो ही खिले, फूले फले

महक वाले गुलाबों की उम्र भी जाती रही

उपस्थित श्रोताओं ने करतल ध्वनि से उनका उत्साहवर्धन किया।

उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भोजपुरी, मैथिली व अंगिका भाषाओं समेत अठारह भाषाओं में गाने वाली जानी मानी लोक गायिका विजया भारती को गत वर्ष एक पत्र लिखकर उन्हें कुपोषण तथा बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसे विषयों पर सरकार के विशेष अभियान में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया था, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया।

आकाशवाणी की ए ग्रेड कलाकार विजया ने महुआ टीवी चैनल पर लगातार चार सालों तक बिहाने बिहाने कार्यक्रम की एंकरिंग कर कीर्तिमान बनाया था वे एक अन्य टीवी सीरियल भौजी नंबर वन की प्रमुख जज के रूप में भी खासी चर्चित रही हैं। वे भोजपुरी संगीत में अश्लीलता के विरुद्ध अभियान भी चलाती रही हैं।

इस अवसर पर भारत सरकार के पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं शिक्षाविद् डॉ. रामकृपाल सिन्हा, पश्चिमी दिल्ली के पूर्व सांसद महाबल मिश्रा, संस्कार भारती के अखिल भारतीय प्रमुख अमीरचंद, वरिष्ठ साहित्यकार सत्यप्रकाश असीम और कवयित्री के पिता ज्योतिषविद् एवं आध्यात्मिक गुरु परमानंद झा ने अपने आशीर्वचनों से विजया भारती को शुभकामनाएँ दीं।

खचाखच भरे सभागार में मंच का शानदार संचालन प्रसिद्ध कवि एवं चिंतक पंडित सुरेश नीरव ने किया। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि विजया भारती अपनी गायिकी के माध्यम से वृहत्तर समाज में कल तक श्रवणीय और मननीय थीं, अब अपनी कविता-पुस्तक के माध्यम से पठनीय भी बन गई हैं। नीरव जी के वाक्कौशल ने श्रोताओं का मन मोह लिया। धन्यवाद-ज्ञापन किया आलोकपर्व प्रकाशन के स्वामी रामगोपाल शर्मा ने। इस अवसर पर दिल्ली-एनसीआर और देशभर के विविध भागों से साहित्यकार, पत्रकार, कलाकार एवं रंगकर्मी उपस्थित थे।

इनमें मौलिक भारत ट्रस्ट के अध्यक्ष और डायलॉग इंडिया पत्रिका के संपादक अनुज अग्रवाल,   अखिल भारतीय महिला जैन महासभा की उपाध्यक्ष डॉ. ज्योत्सना जैन, वीर कुंअर सिंह ट्रस्ट के अध्यक्ष निर्मल सिंह, स्वस्थ भारत संगठन के संस्थापक आशुतोष कुमार सिंह, पूर्वांचल समाज के राकेश परमार, कवयित्री कविता विकास, नृत्यांगना अनु सिन्हा, पूरन पांडेय, अरुण कुमार, आलोक अग्रवाल, महेश वर्मा, रंजीत मिश्रा, कुमुद मेहता, भीष्म मेहता,  गरिमा भारती, भव्य राज पांडेय, डॉक्टर बिपिन झा, जय आरती झा, राजेन्द्र चड्डा, आस्था झा, अमन झा, व्योम विवेक, वीणा मित्तल आदि अनेकानेक लोग उपस्थित थे।

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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