विसर्जन के बाद आराध्य देवी-देवताओं की दुर्गति क्यों ?
मानव सभ्यता के इतिहास में मूर्ति पूजा का इतिहास काफी पुराना है। हिन्दू सभ्यता में देवी-देवताओं को आकृति में ढाला में गया है। मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा करके उन्हें पूजने का रिवाज सदियों से अनवरत चला आ रहा है। प्राचीन काल से से तमाम देवी देवताओं को आकार में ढालने के लिए शुद्ध मिट्टी का इस्तेमाल किया जाता रहा, लेकिन विगत कुछ दशक से मूर्ति निर्माण में मिट्टी के अलावा अन्य कई सामग्रियों का भी इस्तेमाल किया जा रहा है, जिसकी वजह से विसर्जन के बाद तमाम जलाशय तो प्रदूषित होते ही हैं, बड़ी संख्या में जलाशयों के तटों पर फैले आराध्य देवों का विकृत को क्षुब्ध करने वाला होता है। ईश्वर और उनसे जुड़े लोक पर्वों में गहरी आस्था रखने वाली श्रद्धा भारती विसर्जन के बाद आराध्य देवी देवताओं की दुर्दशा को लेकर चिंतत हैं। यह आलेख पूरी तरह से उनके दिल से निकला है, जिसे यहां पर हू- बहू रखा जा रहा है। विगत में गणपति पूजा और दुर्गा पूजा के पश्चात हुये विसर्जन में जो कुछ उन्हें देखने को मिला उससे वे काफी विचलित हैं। उनका यह आलेख देव प्रतिमाओं की भयावह स्थिति को उकेरने के साथ-साथ इससे बचने के निदान का रास्ता भी दिखाता है, और वह निदान है शुद्ध मिट्टी की मूर्तियों की स्थापना।
श्रद्धा भारती
इस धरती पर प्राकृतिक आपदाओं, समुद्री सुनामी, बाढ़ इत्यादि के बाद जो मंजर देखने को मिलता है वह काफी भयावह होता है। मानव शरीर का विखंडित रूप भला किसे अच्छा लगेगा। इस तरह के दृश्य देखकर मन विचलति होने लगता है। जब हम मानव शरीर के विखंडित रूप देखना नहीं चाहते तो फिर अपने आराध्य देवों को इस हालत में कैसे देख सकते हैं। देश में अमूमन हर साल बड़ी संख्या में देवी- देविताओं की प्रतिमाओं को स्थापित करके उनकी पूजा की जाती है, लेकिन विभिन्न जलाशयों में इनके विसर्जन के बाद जो दृश्य आंखों के सामने आता है वह विचलित करने वाला है। विसर्जन के बाद तमाम जलाशयों का किनारा इन प्रतिमाओं से पट जाता है। इनके बेतरतीब हालत को देखकर दुख होना स्वाभाविक है।
चूंकि शुद्ध मिट्टी की प्रतिमाएं नहीं होने से वे पानी में घुल नहीं पाती, पर उनका रंग रोगन जो उनकी भव्य मूर्ति को तेजस्वी, ओजस्वी बनाये रखता है, वह उतरने के बाद किसी मानव अंगों व शरीर के रूप में दिखाई पड़ता है। उनकी पार्थिव प्रतिमा बेजान किनारे पर पड़ी रहती है। समुद्र की लहरों से टकरा-टकरा कर खंड –खंड हो जाती है, जिन्हें देखकर मन विचलित हो जाता है। अपने घर लाये गाजे-बाजे के साथ अपने भगवान को दस दिन जिस भाव भक्ति के साथ हम अतिथि रूप में उनका हर पल, हर क्षण ख्याल रखते हैं, विसर्जन के बाद उनको पानी में छोड़ने के बाद पलट कर देखते तक नहीं। क्या हम उनके साथ न्याय कर पा रहे हैं? जिन मनोकामानाओं, सुख वैभव को पाने की लालसा में उन्हें स्थापित करते हैं, क्या विसर्जन के बाद उनका हाल चाल जानने की कोशिश करते हैं ? उन आराध्यों का विखंडित रूप हमें मनोकामनाएं पूरा होने का वरदान देते होंगे? हम इनसान को कोई जरा सा भी धक्का देकर निकल जाये तो, दिखता नहीं, अंधा है क्या , जैसे शब्दों से अपना रोष प्रकट करते हैं। जब हमारे आराध्यों का एक- एक अंग अलग –थलग होता है, उन्हें पहचान पाना मुश्किल होता है कि कौन सा हाथ किस भगवान का है तो वह स्थिति सचमुच में सोचने पर मजबूर करती है। ऐसे दृश्यों को देखकर मैं काफी विचलित हो जाती हूं।
जब मैंने भगवान गणेश के सूढ़ को समुद्र तट पर पड़ा पाया साथ ही उन आराध्यों को टूटे-फूटे हालत में देखा तो मन को बहुत तकलीफ हुई । बचपन से बिना नहाये देवालय में ना जाना, बिना नहाये पूजा सामग्रियों को हाथ ना लगाना, यह सुना, देखा और किया। पर जब हम उनके विसर्जन के लिए समुद्र में भगवान के साथ प्रवाहित करने गये और किया, पर देखा तत्काल ही वो सभी सामाग्री हमारे ही पैरों के नीचे थी। क्या हम उनके साथ न्याय कर रहे हैं? यदि वे मूर्तियां शुद्ध मिट्टी की होती तो उन्हें पानी के साथ घुलने में परेशानी नहीं होती।
आजकल की आधुनिक सामग्रियों से निर्मित प्रतिमाएं पानी में जाकर रंग छोड़ती हैं पर वे पार्थिव मूर्तियां किनारे पर मानव अंगों से अलग नहीं लगती। उनका सही मायने में विसर्जन ही नहीं होता। किनारे आने पर उनसे प्रदूषण का खतरा बढ़ जाता है। इससे वहां रहने वाले लोगों में बीमारी फैलने की आशंका से उन्हें वहां से हटाना पड़ता है। तो हम अंदाजा लगाये कि जब पानी में प्रतिमाएं नहीं घुलीं तो कहीं अन्य सूखे स्थान पर कैसे गलती होंगी। यदि वो शुद्ध मिट्टी की निर्मित होंगी तो वो वहीं पानी में शीघ्र घुल जाएंगी। इसलिए हमें हर वर्ष शुद्ध मिट्टी की तथा छोटी सी मूर्ति हर धार्मिक आयोजनों पर लाने की कोशिश करनी चाहिये। सच यदि आप भी उसी नजर देखेंगे जिनसे मैंने देखा है तो तो आप भी वही महूसस करेंगे जो मैंने किया है।
मैं स्वयं एक ब्राह्रमण परिवार में जन्मी हूं और आस्था की धनी हूं। ये सभी बातें मैं इसलिये लिख रही हूं कि मैं खुद अपने घर गणपति की स्थापना करती हूं। मैंने पाया कि जो उत्साह पहले दिन या उनके आने से पहले रहता है वह धीरे-धीरे तीन-चार दिनों में कम होने लगता है। ऐसा लगा जैसे हम अहसान कर रहे हैं आराध्यों पर।
भगवान को घर में बिठाने के बाद बाहर के पंडालों का ज्यादा ख्याल रहता है। चूंकि घर छोड़ना नहीं था, इसलिये बाहर के गणपति को नहीं देख पाई। उन्हें ना देखने का दुख अपने घर में विराजित देव से ज्यादा रहा। मन में लगा अगले साल बाहर के सभी देवों को देखने जाएंगे। अपने घर के दैनिक गणपति की पूजा उन दिनों उसी भक्ति भाव व पूर्ण समर्पण के साथ कर लेंगे । वो सदा हमारे साथ ही हैं। या फिर शुद्ध मिट्टी से निर्मित छोटी से छोटी मूर्ति घर में स्थापित करेंगे। मेरे आराध्य आपके आराध्य भी हैं। चूंकि इनकी दुर्दशा अपनी आंखों से देखा, तो तकलीफ हुई, मन दुखी हुआ।
मेरा मकदस किसी के धार्मिक भावनाओं को आहत करना नहीं है और न ही किसी पर दोषारोपण करना । यहां कोई दोषी नहीं है, न ही हमारी भावनाएं, न हीं आस्थाएं व परंपराएं। हमारा देश इसी एक बात के लिए फलाफूला है, जहां हमारी आस्थाएं पंखुरी की शक्ल में फलीभुत होती है और हम इन्हीं के शरण में जीना व मरना चाहते हैं। मेरा मन चाहता है कि ज्यादा से ज्यादा हम धार्मिक भावनाओं को फलने –फूलने दें। यदि हम एक सोसाइटी में रहते हैं वहां एक ही गणपति की स्थापना सभी मिलकर करें। इसी बहाने सब मिलजुलकर पूजा –अर्चना कर सकेंगे। बच्चों को भी विविध प्रकार के सांस्कृतिक कार्यकर्मों से बांधकर रखेंगे। उस बहाने हम भी अपने बच्चों के साथ कुछ दिन अपने बचपन के दिनों में पहुंचकर भाग ले सकेंगे।
हमारी कोशिश शुद्ध मिट्टी की प्रतिमा को घर लाने की होनी चाहिये ताकि उनका स्थान देव की तरह रहे और वे पार्थिव मूर्तियां पानी में घुलकर सही रूप में विसर्जित हो पाये । इससे हमारे देश के सभी जलाशयों को भी जीवन मिले, साथ-साथ हमें भी।
मैं उन सभी प्रशासनिक, क्षेत्रीय इकाइयों-विभागों व सभी संगठनों की जिन्होंने नि:स्वार्थ भाव से अपनी सेवाओं और सहयोग द्वारा सभी व्यक्तिगत, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक कार्यक्रमों को पूर्णत: बिना असुविधाओं के अहसास के पूरी की है दिल से आभारी हूं। तथा प्रदूषणरहित समुद्री किनारों, नदियों, तालाबों कुओं को सुरक्षित रखने का सपना रखने वालों व मीडिया परिवार की भी आभारी हूं।
मेरा विनम्र आग्रह व विनती उन सभी मंडलों ,आयोजकों, हर उस घर के लोगों से है जो आराध्यों के आगमन से विसर्जन के सफर में अपने भगवान के साथ हर पल, हर क्षण अटूट श्रद्धा विश्वास के साथ रहते हैं। उनसे विनती है कि उन्हें आखिरी विदाई के समय यूं हदयविदारक दृश्यों में परिवर्तित ना होने दें। उन्हें यूं ना छोड़ के आये। अपना योगदान शुद्ध मिट्टी की प्रतिमाओं को स्थापित करने का संकल्प लेकर उनके साथ न्याय करें। साथ ही औरों भी जागृत करें।
ये किसी एक तट या किनारे की बात नहीं है। संपूर्ण देश की हर जलाशयों की बात है।
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very nice reporting . Insan aaj bhagwan ka bhi nahin raha .