सात साल में मुझे जवान कर दिया गया….
आशुतोष जार्ज मुस्तफा, मुजफ्फरपुर
मैं काफी गरीब थी। मैं लड़कियों के साथ पड़ोस के एक बुजूर्ग चाचा के यहां खेलने जाती थी। पहली बार मेरे यौनांग के अंदर उन्होंने उंगली डाली। मुझे थोड़ा अच्छा और थोड़ा बुरा लगा। दूसरे दिन चाचा की बदमाशी देखकर कई लड़कियां अब वहां खेलने नहीं जाती थी। लेकिन मैं जाती रही । सिर्फ इसलिए की सुबह की चाय और पावरोटी चाचा के यहां से मिलती थी। चाय और पाव के लालच में सिर्फ सात साल की उम्र में मुझे कली से फूल बनना पड़ा।
पश्चिम बंगाल के 24 परगना में एक विधवा महिला पति की मौत के बाद 75 साल के पड़ोसी बुड्ढे के पास अपनी बच्ची छोड़कर चली जाती है। बच्ची को वह नहलाता है। धुलाता है। पुचकारता भी है। लेकिन जैसे वह छह से सात साल की होती है। एक दिन अकेला पाकर जांघ पर बिठाकर उसके साथ बलात्कार करता है। वह रोती है। चिल्लाती है। वह बुजूर्ग उस बच्ची को खुखरी दिखाकर गर्दन काटने का भय दिखाता है। डर के मारे वह किसी से कहती नहीं है। बेचारी बीन ब्याही मां बन जाती है। बुड्ढा अभी जेल में है।
उपर की दोनों घटनाओं में से पहली घटना महाराष्ट्रा के एक बाराबाला की है जिसने अपनी आत्मकथा बार डांसरों के लिए काम करने वाली समाजसेवी वर्षा काले के कहने पर मराठी में लिखी। जिसे किसी ने हिंदी में ट्रांसलेट किया है। दूसरी घटना स्टेशनों पर मिलने वाली उन पत्रिकाओं के माध्यम से पता चली। यह पत्रिकाएं कुछ कुंठाग्रस्त छोकड़ीबाज संपादकों और पैसे के लालच में शब्दों का सौदा करनेवालों द्वारा दिल्ली से निकाली जाती हैं। ये पत्रिकाएं कुंठित मानसिकता के लोगों का लिंग बड़ा और छोटा करने वाले विज्ञापनों से चलती हैं।
पहली घटना दिल्ली बुक सेंटर से बारबाला मंगाकर पढ़ा। तब जाना। दूसरी घटना ट्रेन से मुजफ्फरपुर जाते वक्त स्लीपर क्लास में भूलवश छूट गई एक पत्रिका रसभरी कथाएं या कहानी से जाना। नाम कुछ ठीक से याद नहीं। खैर मेन मु्द्दे पर आता हूं।
मुजफ्फरपुर के चंद्रलोक होटल में पिछले दिनों बाल अधिकार को लेकर पत्रकारों की एक ट्रेनिंग बुलाई गई थी। जिसमें बाल शोषण,बच्चों के यौन शोषण और उनके अधिकारों पर किस तरह रिपोर्टिंग की जाए यह बताया जा रहा था। इस प्रशिक्षण के दौरान एक प्रेस कीट भी मिला। उसमें कई शोधपरक रिपोर्ट के अलावा बच्चों के साथ होने वाली घटनाओं का जिक्र भी था। फुरसत में परकाया प्रवेश का रोगाणु मुझे तंग करने लगा। कुछ रिपोर्ट मैंने पढ़ डाली। बड़े चौकाने वाले तथ्य सामने आए।
रिपोर्ट में जो बातें लिखी गई थीं, उसे पढ़कर आश्चर्य कम और दु:ख ज्यादा हुआ। यह भी हो सकता है। मेरे बहुतेरे मित्रों को दुख हुआ हो। लेकिन अपना दिल रो उठा। खैर……………………रिपोर्ट में जो तथ्य खुलकर सामने आए उसके मुताबिक सबसे ज्यादा अपने परिवार,चचेरा,ममेरा,फुफेरा और दूर के रिश्तेदारों द्वारा बच्चियों का यौन शोषण किया जाता है। वहीं दूसरी ओर घर के अंदर भी अपनी हवस मिटाने के लिए लोग रिश्तों को ताक पर रख देते हैं। बारबाला की लेखिका वैशाली हल्द्वाणकर ने अपनी किताब में लिखा है। मन की शांति के लिए वह एकबार ओशो का आश्रम ज्वाइन करती है। वहां दो-तीन दिन तो सब ठीक ठाक रहता है। चौथे दिन ही एक ओशो भक्त शराब पीकर उसका बलात्कार कर देते हैं। वैशाली के मुताबिक कई बार तो होटलों में काम करने के दौरान काम दिलाने वाले कईयों ने मूतने वाली गली में खड़ा होकर उसके साथ सेक्स करते हैं।
यूनिसेफ द्वारा पत्रकारों को दी गई शोधपरक रिपोर्ट में बच्चों को पड़ोसी से लेकर परिवारिक मित्र व रिश्तेदारों से बचाकर रखने की सलाह दी गई है। वैसे कहने को तो बच्चे भगवान का रुप होते हैं। उनकी मुस्कान राष्ट्र की शान होती है। बच्चे रामकृष्ण परमहंस का रुप होते हैं। लेकिन यह बातें आजकल देश में सिर्फ सेमिनारों और कुछ एनजीओं के कार्यक्रमों तक सिमट कर रह गई है। जरुरत है इसे लेकर एक वैचारिक क्रांति करने की। कुदने की। जुझने की। पहल करने की। हालांकि बीच में एनडीटीवी पर देश के ज्वलंत मुद्दों को लेकर कई रिपोर्टिंग की गई। लेकिन बाकी चैनलों और पत्र पत्रिकाओं से इस अभियान के बारे में कुछ करने और सोचने की आशा करना…………………। मैं जब किशनगंज एरिया में स्ट्रींगर के रुप में इटीवी में काम करता था। वहां काम के दौरान एक साल में ट्रैफिकींग के 275 मामले सामने आए थे। लेकिन शायद ही कभी पत्रकार उन मुद्दों को लेकर प्रशासन को घेरते देखे गए।
खैर फ्रस्ट्रेशन में आकर मैने एक कविता भी लिख डाली है।
आज दोनों के चेहरे की खुशी देखते बन रही थी।
वे दो ही थे…………………।
कंधे पर कचरे का बोरा उठाये हुए..।
इनका परिचय भी काफी रोचक है।
ये संस्कृतिविहीन पीढ़ी के पाप थे।
जिन्हें अपनी इलिट्ता छुपाए रखने के लिए कहीं फेका गया
था।
वो तो……मानिए… उस गली के कुते की जो इन मांस के
लोथड़ों को केवल सुंघकर छोड़ दिया था ।
इनका घर भी उन अपार्टमेंटों के गलियों में था।
जब भूख लगती थी तो उसी खिड़की की ओर देखते थे।
शायद कोई रोटी का टूकड़ा फेक दे….।
जहां से उन्हे मांस के लोथड़े के रुप में फेका गया था।
लेकिन आज रोटी नहीं फेकी गई..।
उपर से गिरे थे कंड़ोम के कुछ फटे अवशेष…।
थू..थू कर निकल भागे थे। हंसते हुए बोरे लेकर।
अरे यह क्या…… आज तो दिवस है….।
कौन ………………..।
अरे वहीं अपने जैसे बच्चों के लिए बाल दिवस..।
पहुंच गये थे वहां जहां दिवस पर कार्यक्रम हो रहा था।
पिछवाड़े खड़े थे………………।
जहां उत्सव के बाद फेके जाने थे जूठन।
टकटकी लगाकर डूब चुके थे।
नान और अधखायी रोटी की कल्पना में।
आज जरुर कुछ अच्छा खाने को मिलेगा…।
थोड़ी देर बाद..धपाक से कुछ गिरा..।
दोनों दौड़े थे उस ओर ………………।
लेकिन यह क्या इनसे पहले तो वहां वो पहुंच गये थे।
कुत्ते……………..। गलियों के आवारा कुत्ते……….।
जो न जाने कब से टकटकी लगाए बैठे थे।
काफी गर्व से खाते हुए कुते अपने अंदाज में शायद कह रहे थे।
बच्चू जब तेरी मां ने तुझे फेका था….।
तब इसी दिन के लिए हम सुंघकर छोड़ दिए थे।
परिचय: आशुतोष के कैरियर की शुरुआत ईटीवी से हुई उसके बाद मौर्य टीवी फिर हिन्दुस्तान मुजफ्फरपुर में कापी राइटर और अब क्षेत्रिए चैनल देश लाईव में नार्थ बिहार के ब्यूरो चीफ के रुप में कार्यरत।
जब यहां हाथ-पैर चलाने के लायक होने के बाद भी बच्चों और लड़कियों के साथ यही होता है तब बच्चों की चिंता में कौन समय खर्च करेगा। मुझे लगता है कि शायद हरेक बच्चे के साथ ऐसी कुछ हरकतें कभी न कभी होती हैं। हो सकता है कि बचपन में बहुत छोटी उम्र में ऐसा होने के कारण याद नहीं रहता हो। वैसे मुझे संदेह है कि ये याद नहीं रहेगा। पर डर से कोई नहीं कहता। एक चीज तय है कि इन सबका एक बहुत ही बुरा मनोवैज्ञानिक असर पड़ता है बालमन पर। यह एक ऐसी समस्या है जिसके लिए कानून कुछ नहीं कर सकता। लोगों के मन में जब तक गंदगी या मानसिक शैतानी रहेगी तब तक ये सारी बातें होती रहेंगी। आखिर कितने मुद्दों को लेकर वैचारिक क्रांति करेंगे हम। जिंदगी का सारा क्षेत्र ही क्रांति के लायक बनता जा रहा है। हम सिर्फ़ सदियों में जी रहे हैं। कहने को हम इक्कीसवीं सदी कह रहे हैं । लेकिन समाज का अधिकांश भाग आदिमानव के समय में ही घुसता जा रहा है। फर्क यही है कि हमने कपड़े पहनने , खाना पकाकर प्लेटों में खाने, कुछ बोल लेने जैसे काम सीख लिये हैं।
Anybody cares…why porn are shown for free on internet??Govt wants people to corrupt mentally and physically..so they can rule over these bastard sheeps!!
क्या रंजन भाई अजीब हाल है। बास्टर्ड शीप्स किसे कह रहे हैं?
That’s what , the govt ( leaders) thinks about us(people),Chandan!!