सोनू को पीपली लाइव बनाने से अच्छा है राइट टू एजुकेशन की बात हो
एक बच्चा सोनू अचानक से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सामने प्रस्तुत होता है और कहता है कि उसके स्कूल में अंग्रेजी के शिक्षक उसे ठीक से नहीं पढ़ाते हैं। अंग्रेजी उसकी समझ में नहीं आती। वह आईएएस बनना चाहता है और सरकार से गुजारिश करता है कि उसके लिए एक अच्छे स्कूल की व्यवस्था की जाए।
मुख्यमंत्री के सामने बेधड़क तरीके से अपने अंग्रेजी के शिक्षक की शिकायत करने और खुद के लिए एक बेहतर स्कूल की मांग करने के बाद वह स्वभाविक रूप से मीडिया की नजरों में आता है। मीडिया दिनभर उसके इर्द-गिर्द घूमता है और उसकी बातों को तवज्जो देता है। वह सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल होता है। लोग उसको जानने लगते हैं। वह नेताओं की नजरों में आता है। लंबे समय तक पक्ष और विपक्ष में रहने के बावजूद बिहार की शिक्षा व्यवस्था से आंख मोड़े सुशील कुमार मोदी, आर के सिन्हा, पप्पू यादव जैसे नेता लोग सोनू को पढ़ाने की पहल करते हैं। सरकार के संबंधित अधिकारी भी सोनू की पढ़ाई के लिए बेहतर स्कूल की व्यवस्था करने का आश्वासन देते हैं। अपने इर्द-गिर्द नेता और मीडिया को घूमता देखकर सोनू का दिमाग बहकने लगता है। वह मीडिया के साथ बदतमीजी करने लगता है और नेताओं के समागम में आने के बाद नेतागिरी वाले बयान भी जारी करने लगता है। पढ़ाई की बात भूल कर यह कहने से भी गुरेज नहीं करता कि उसकी लोकप्रियता से उसके गांव वाले भी जलने लगे हैं। यहां तक कि वह खुद के लिए सुरक्षा की भी मांग करने लगता है। इतना ही नहीं वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी गुजारिश करता है कि वह उसको फोन करें और उससे बात करें। उसकी सुरक्षा की मांग के साथ ही लोगों के कान खड़कने लगते हैं। और एक हलके में से यह बात उठने लगती है कि सोनू पढ़ाई के नाम पर राजनीति कर रहा है। वह आईएएस बने या ना बने लेकिन एक नेता जरूर बन सकता है।
इस बीच मीडिया भी अपने असली भूमिका में आती है और सोनू से कुछ जमीनी सवालात करना शुरू कर देती है उसके शिक्षा से संबंधित,आईएएस बनने की उसकी रणनीति से संबंधित। इन सवालों का सीधा जवाब देने के बजाय वह चीखने चिल्लाने लगता है, वह जोर-जोर से कहता है कि उसे परेशान किया जा रहा है। वह यहीं पर नहीं रुकता बल्कि अपने हाथ से अपना गला भी दबाने लगता है, दिल में तेज दर्द होने की बात करते हुए अपना छाती पकड़ लेता है और फिर ठीक से सांस न ले पाने की शिकायत करता है।
इस हाई मेलोड्रामा के बाद सोनू की बिगड़ती हुई तबीयत को देखते हुए डॉक्टर ने उसे आराम करने की सलाह देते है।
अब सवाल उठता है कि क्या सोनू एक इंडिविजुअल केस है या वाकई में वह बिहार की बिगड़ती हुई शिक्षा व्यवस्था का एक प्रतीक बनकर के उभरा है ?
यदि इंडिविजुअल केस है तो उसका साइकोएनालिसिस किया जाना चाहिए। इसके साथ ही सबसे पहले उसे यह जानकारी उपलब्ध कराई जानी चाहिए कि आईएएस बनने के लिए शिक्षा की एक निश्चित प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। ग्रेजुएशन करने के बाद ही कोई व्यक्ति आईएएस की तृस्तरीय परीक्षा व्यवस्था की प्रक्रिया से गुजर सकता है। उम्र और अनुभव के लिहाज से अभी वह इतना परिपक्व नहीं है कि आईएएस बनने की पूरी प्रक्रिया को सहजता से समझ जाए। अभी उसको फोकस करना होगा अपने प्रिलिमनरी एजुकेशन पर, हाई स्कूल के एजुकेशन पर, प्लस टू और प्लस 3 के एजुकेशन पर। यदि इस प्रक्रिया में उसे आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है तो समाज में कई लोग ऐसे हैं जो मदद के लिए उसकी तरफ हाथ बढ़ा भी रहे हैं और आगे भी बढ़ा सकते हैं।
यदि सोनू को बिहार की बिगड़ी हुई शिक्षा व्यवस्था का प्रतीक माना जाए तो निश्चित तौर पर इसकी पूरी वैज्ञानिक पड़ताल की जानी चाहिए। पहले सोनू के उस अंग्रेजी के शिक्षक की योग्यता की पड़ताल की जानी चाहिए जिससे पढ़ने के लिए सोनू तैयार नहीं है और वह उसे अयोग्य घोषित कर चुका है। यदि कोई छात्र किसी शिक्षक की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है तो दो बातें हो सकती हैं, या तो छात्र का दिमाग इतना मजबूत नहीं है कि वह अंग्रेजी जैसी भाषा को सहजता से समझ सके यह फिर शिक्षक इतना कुशल नहीं है कि छात्र को समझा सके। बिहार के तमाम सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी के जितने भी शिक्षक हैं, बेहतर होगा हर विषय के शिक्षक को ले लिया जाए, उनका अंग्रेजी का भाषा और अंग्रेजी के साहित्य से संबंधित एक टेस्ट लिया जाए। यह देखना रोचक होगा कि इस टेस्ट में कितने शिक्षक पास होते हैं। पास ना होने की स्थिति में शिक्षकों को बेहतर तरीके से पढ़ाने की व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि वह छात्रों को सही तरीके से पढ़ा सकें। सोनू को पीपली लाइव बनाने से बदहाल शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त कर पाना संभव नहीं है।
बिहार में हजारों लाखों सोनू,मोनू, गुड़िया, रिंकी हैं, जिन्हें बेहतर क्वालिटी की शिक्षा चाहिए। एक सोनू का देहरादून में एडमिशन करा देने से बिहार के तमाम दूसरे सोनू मोनू को बेहतर शिक्षा मिल पाना मुमकिन नहीं है।
क्वालिटी शिक्षा की जरूरत समय के साथ और शिद्दत से महसूस की जा रही है। क्वालिटी शिक्षा के नाम पर निजी शैक्षणिक संस्थानों का अरबों खरबों का कारोबार चल रहा है। जबकि सरकारी शैक्षणिक संस्थानों की स्थिति यह है कि वहां काम करने वाले शिक्षकों को शराब पकड़ने के काम में सहायक की भूमिका में लगा दिया गया है। शिक्षकों के एक झुंड को ठेकेदारी प्रथा के अंतर्गत शैक्षणिक कार्य में लगा दिया गया है। उचित वेतन के अभाव में यह पहले से ही कुंठित हैं, ऊपर से इनकी क्वालिटी की जांच करने की भी कोई पुख्ता व्यवस्था सरकार की ओर से नहीं की गई है और ना ही बदलते समय के अनुसार इनकी शैक्षणिक पद्धति में सुधार के लिए इनके प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई है। ऐसे में बिहार के बच्चों के लिए इनके द्वारा क्वालिटी एजुकेशन उपलब्ध करवा पाना बैल से दूध खींचने के बराबर है।
भारतीय संविधान के आर्टिकल 21A में शिक्षा के अधिकार की बात की गई है। इसके मुताबिक यह राज्य का दायित्व है कि 6 साल से 14 साल के बच्चों को वह अनिवार्य रूप से मुफ्त में शिक्षा उपलब्ध कराए। इसके तहत सिर्फ सोनू ही क्यों हर बच्चे को शिक्षा उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी राज्य की है। समाज के हर वर्ग को यह समझना होगा कि असल चुनौती शिक्षा के मोर्चे पर है। कोई कुत्ता भी भूख से नहीं मरता। आदमी किसी न किसी तरह अपने लिए भोजन की व्यवस्था तो कर ही लेगा लेकिन शिक्षा के लिए उसे अपने दिमाग को लंबे समय तक एक निश्चित प्रक्रिया से गुजारना पड़ेगा ही पड़ेगा। सोनू के लिए आईएएस बनने की राह आसान नहीं है। लाखों छात्र सालों साल किताबों में आंख फोड़ते हैं तब जाकर के इंटरव्यू बोर्ड तक पहुंचते हैं। शोरगुल से उसे तात्कालिक पोलैरिटी तो मिल सकती है लेकिन आईएएस की सीट नहीं। नेतागिरी करनी हो तो और बात है। कई बड़बोले नेता आएं बाएं हांक करके आज उच्च कोटि के जनप्रतिनिधि बने हुए हैं। ये जनप्रति कभी राइट टू एजुकेशन की बात नहीं करते, इसके लिए दृढ़ निश्चय के साथ अवाम को ही खड़ा होना होगा। तभी प्रत्येक सोनू को क्वालिटी एजुकेशन उपलब्ध करा पाना संभव है। सोनू को पीपली लाइव बनाने के बजाय मीडिया को भी राइट टू एजुकेशन को लेकर के मुहिम छेड़ने की जरूरत है।