किस पहचान से नाता जोड़े बिहारी ?
बिहार दिवस के मौके पर बिहार को राजकीय तौर पर प्रस्तुत करने की पुरजोर कोशिश की जा रही है। तरह-तरह के कार्यक्रमों का आयोजन साल भर चलता रहेगा। पम्पलेट, पन्ने और किताबें भी खूब लिखी जा रही हैं, जिसमें बिहार की चौतरफा कहानी कही जा रही है। ऐसे माहौल में संजय मिश्र बिहार को कई तराजुओं पर तौल रहे हैं, और समय के साथ बिहार के हर उस मोड़ को भी टटोल रहे हैं, जहां पर बिहार किसी न किसी रूप से अंकित रहा है। नक्सल और बौद्ध धारा के साथ-साथ मिथिकीय कहानियों में भी इन्होंने बिहार की जड़ों को छुआ है। बिहार को व्यापकता में उकेरता संजय मिश्र आलेख ।
साल 2000 में जब झारखंड राज्य बनाने की घोषणा हुई, तो बिहार में कोई भूचाल नहीं आया। थोड़ी सी हलचल….और अखबारों में विरोध दर्ज कराने वाले रूटीन से बयान। पटना में कुछ लोग धरने पर बैठे। इस रस्म-अदायगी पर वो वर्ग भी हैरान हुआ जो बिहार की अखण्डता का कायल नहीं था। जी हाँ, ये उस बिहार की दास्तान है जिसके राजनीतिक हेवीवेट लालू प्रसाद ने 15 अगस्त 1998 को दहाड़ते हुए कहा था—” मेरी लाश पर ही बिहार का बंटवारा होगा।” ये उसी बिहार की दास्तान है जिसके निर्माता सच्चिदानंद सिन्हा ने इंग्लैंड में बिहारी कह कर अपना परिचय दिया था…. उस समय….जब बिहार अस्तित्व में भी नहीं आया था।
तब से लेकर सन 2000 तक गंगा में न जाने कितना पानी बहा होगा। आम बिहारी का ये चरित्र दूसरे प्रदेश के लोगों को विस्मय में डाल देता है। दरअसल, उसके ( बिहारी के ) दिल में बिहार के लिए अपनत्व की कमी हरदम खोजी जा सकती है। जब ये कहा जा रहा है कि राज्य के लोगों में बिहारीपन के लिए आह्लाद जगाया जा रहा है, तो शायद वो बिहारी चरित्र की इसी मनोदशा की ओर इशारा करता है। गहराई से सोचेंगे तो इस मनोदशा को परत-दर-परत समझा जा सकता है। राज्य के लोग उस अर्थ में ‘ बिहारी ‘नहीं हो पाते जिस अर्थ में एक बंगाली या मराठी होता है। आखिर, किस पहचान से वो नाता जोड़े ? जबकि उसे पता है कि इतिहास में भौगोलिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक इकाई के रूप में बिहार की कोई अनवरत मौजूदगी नहीं रही है। उसे बताया जाता है कि ‘ बिहार ‘ शब्द बौध भिक्षुओं के ‘ विहार ‘ से निकला है। कोई उसे बिहार-शरीफ में बिहार दिखाने लगता है।
नीतीश कुमार को ‘ बहार ‘ शब्द में ही बिहार नजर आता है। इस संबंध में जितने भी विवेचन दिए जाते हैं वो बौद्ध काल से पुराने नहीं हैं। बिहारीपन के आग्रही कभी ये नहीं बताते कि बौद्ध विहारों का ‘ विहार ‘ शब्द आखिर कहाँ से आया ? उस दौर में, जब वैदिक ज्ञान और अनुभव को ठोस आकार दिया जा रहा था, ऋषी- मुनियों के आश्रम में चहल-पहल परवान पर होती। वहां रहने वाले छात्र जिजीविषा से भरे होते… रोमांचित होकर यज्ञ – मंडप और आस-पास की गतिविधियों को अनुभूत करते। ये जानते हुए कि इन क्रिया-कलापों के मूल तत्वों को उन्हें ही गृहस्थों के बीच बांटना है। वनों में स्थित आश्रमों का ये परिवेश ‘ विहार ‘ कहलाता ।
आश्रमों के कण – कण में समाई ये फिजा राजाओं की ओर से आयोजित यज्ञ और शास्त्रार्थ से बिलकुल ही अलग होती। ये बातें, भगवान् बुद्ध के समय से पहले की हैं। बुद्ध धर्म के लोगों ने इसी ‘ विहार ‘ शब्द को भाव की पवित्रता के साथ आत्मसात किया। ये सच है कि बिहार के सामान्य इतिहासकार इस असलियत से वाकिफ नहीं हैं। लेकिन, कई इतिहासकार इसकी जानकारी रखते हैं। इसकी पड़ताल होनी चाहिए कि किस मजबूरी के तहत इस वास्तविकता को लगातार छुपाया गया। अक्सर कहा जाता है कि बिहार ने दुनिया को प्रजातंत्र की नसीहत दी ।
यहाँ ये बताना जरूरी है कि जिस काल-खंड के बारे में ये दावा किया जाता है उस समय भारतीय उप-महाद्वीप में कई जगह गणतंत्रात्मक शाषण चल रहा था। …उनमें बिहार भी शामिल था। बावजूद इसके बिहार अकेले इसका श्रेय लेने पर तुला रहता है। वामपंथ, समाजवाद और बाद के समय में नक्सलबाड़ी आन्दोलन के लिए बिहार उर्वर जमीन साबित हुई। जमींदारों की उपस्थिति, समाज में सांस्कृतिक जागरण का अभाव और बिहारीपन की ठोस अवधारणा की गैर- मौजूदगी ने इन विचारों को संजीवनी दी। इन विचारों से जुड़े जुनूनी नेताओं को लगा कि बिहार ‘ नो मेंस लैंड ‘ की तरह है ….और फैलाव के लिए मुफीद जगह। लिहाजा , किसी तरह के बिहारीपन को ‘ सींचने ‘ की इन्होने जहमत नहीं उठाई। जबकि बिहार के जो हुक्मरान समाजवादी विचारों को ‘ ओढ़ने वाले ‘ रहे उन पर बुद्ध वाद हावी रहा। वामपंथियों के साथ ऐसे समाजवादी नेता भी मानते रहे कि बुद्ध के दर्शन और इस्लाम में ही प्रजातंत्र है। इसलिए बिहार की पहचान में बुद्ध ही ज्यादा दिखते।
बुद्ध ईश्वर और आत्मा में यकीन नहीं करते जबकि महावीर ईश्वर और पुनर्जन्म को मानने वाले ठहरे। यही कारण है कि महावीर का गुण-गान गाहे-बगाहे ही होता। ये अकारण नहीं कि पटना के कई सार्वजनिक भवनों की बनावट में स्तूप – शैली और मुग़ल शैली के दर्शन हो जाएंगे। रह- रह कर मौर्य साम्राज्य के शौर्य को बिहार का शौर्य बताया जाता है….ये जानते हुए कि मौर्य शासन साम्राज्यवादी और तानाशाही प्रवृति को इंगित करता है। अतीत से प्रेरणा लेना अच्छी बात है लेकिन यहाँ आकर आम बिहारी फंस जाता है। समाजवाद और तानाशाही प्रवृति से एक साथ वो कैसे ताल-मेल बिठाए? उसे बिहारीपन ‘ क्रैक्द मिरर ‘ लगने लगता है। उसे कहा जाता है कि चन्द्रगुप्त, चाणक्य , आर्यभट , बुद्ध, चंपारण के गांधी , और जे पी महान हुए । ऐसा कहने वाले विदेह जनक, सीता , याज्ञवल्क्य , विश्वामित्र , भारती , मंडन , वाचस्पति , कुमारिल भट , उदयन , विद्यापति और भिखारी ठाकुर जैसों के बारे में चुप्पी साध लेते। ये राजा अशोक का नाम भी कम ही लेते क्योंकि तब उदार और सहिष्णु बनना पडेगा।
बिहार का जनमानस एकबारगी मुदित होता है और फिर उलझन में पर जाता है…. वो जानता है कि लालू युग में भी बिहारीपन को खूब उछाला गया। पर वो समझ नहीं पाता कि बिहार में विकास के मुद्दे पर चिढ़ने वाले लालू ने उस समय विन्ध्याचल में धर्म-शाला बनवाने में रूचि कैसे ली ? ज़रा याद कीजीये सारनाथ में हुए आर जे डी सम्मलेन को। लालू ने वहां ‘ पूर्वांचल राज्य ‘ बनाने की वकालत ही नहीं की बल्कि उसे अपने एजेंडे में प्रमुखता दी। अब, आम बिहारी के असमंजस को महसूस करिए, जिसे पता है कि पूर्वांचल राज्य का सपना देखने वाले बिहार में भी बड़ी तादाद में हैं। वो (बिहारी) ये सोच कर असहज हो जाता है कि शाहाबाद और सारण क्षेत्र के अधिकाँश बड़े नेताओं की ‘ आत्मा ‘ तो पूर्वांचल में होती पर शरीर बिहार में….और नश्वर शरीर को तो सुख-सुविधा और भोग-विलास से मतलब। मिथिला में आत्मा-सम्मान की चेतना उदयन और अ-याची की गाथा में विराट रूप में प्रकट होती है। वे अपने सद्गुणों से प्रेरणा का स्रोत बने रहे। लेकिन आज का मिथिला जीवन बचा लेने की होड़ में इतना खोया है कि उसके संस्कार में समा गई अवनति-पूर्ण समाज की बुराइयां उसे नजर नहीं आती। मोटे तौर पर, उसकी छट-पटाहट में न तो बिहारीपन के लिए स्पष्ट सोच उभर पाती है और न ही मिथिला राज्य के लिए ख़ास दिलचस्पी। मगध एक सांस्कृतिक क्षेत्र है…..मिथिला की तरह पूर्ण -परिभाषित।
मगध में ही बिहार की सत्ता का केंद्र है। ऐसे में मगही मानस में गुमान आ जाना लाजिमी है। यही वजह है कि मगही लोग और उसके नेता अक्सर ‘ फील गुड ‘ की दशा में पहुँच जाते हैं। वे बताएंगे कि पूरे सूबे की बेहतरी का बोझ है उनपर। संयोग से बिहार में राज करने वाले दो ऐसे मगही नेता हुए जो संयत शासन देने वाले कहलाते। श्री कृष्ण सिंह के बिहार को –एपल्बी — ने ‘ बेस्ट एडमिनिस्टर्ड स्टेट ‘ कहा। अभी के नीतीश कुमार हैं जो ‘ बिहार मॉडल ‘ की महक को फैलाने में जी-जान से लगे हैं। लेकिन बीच-बीच में इनकी तन्द्रा भंग हो जाती है।
25 मार्च को पटना हाई-कोर्ट ने कह दिया कि ‘ एल एन एम् यू राज्य का सबसे गया गुजरा विश्वविद्यालय है ‘। ये नीतीश के लिए झटका है। ख़ास कर तब जब वे पटना और आस-पास को शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में वैश्विक पहचान दिलाना चाहते हैं। कोर्ट के रिमार्क के बाद संभव है नीतीश को भान हुआ हो की पटना से नालंदा की दूरी नापने से न तो बिहार का काया-कल्प होने वाला और न ही बिहारीपन को खाद-पानी मिलने वाला। …अच्छा है … नालंदा विश्वविद्यालय बन रहा है। काश…इसके चालू होने के बाद नालंदा से निसृत ज्ञान की रौशनी पटना में बैठने वाले सत्ताधारी वर्ग को विवेक-शील बनाता रहे।
संजय जी,
बिहार में नालंदा विश्वविद्यालय का पिछले 5-7 साल से नाम सुनाई पर पड़ रहा है लेकिन पता नहीं किसी भी नेता को यह पता नहीं चलता आदमी का विकास धीरे-धीरे सदियों में होता है लेकिन आदमी के द्वारा बनाये जाने वाले किसी भी व्यवस्था में कुछ साल काफी होते हैं। यह तो तय ही लगता है नालंदा विश्वविद्यालय अगले कुछ सालों में बन ही जायेगा भले ही कागज पर बने।
जिस शख्स का नाम नीतीश कुमार है यह अपनी छवि और लोकप्रियता में बिहार के सारे लोगों को और यहां की सारी सम्पत्ति को बर्बाद कर डालेगा। वोट मिल जाना किसी को अच्छा साबित नहीं कर देता। लोगों ने लालू के विकल्प में वस्तुनिष्ठ प्रश्न का उत्तर नीतीश लिख दिया है। लगता है बिहार का सारा पैसा सिर्फ़ विकास के नाम पर विज्ञापन में ही खर्च हो रहा है।
It’s a nice article.People are always get befooled by politicians coz they never realise the importance of unity.I think ..Central govt gives Rs. 10000 carores to Bihar govt…anyone asks…what happens to those money??Educate them to ask the questions..to our leaders…things will improve..!!