छठ महापर्व: श्रद्दा के आगे झुक जाते हैं अपराधी भी
अरवल की रेणु देवी अपने दो नन्हें-मुन्हें बच्चे और पति के साथ छठ करने पटना आई हैं। शंभुआ टेड़ी गांव स्थित घर में कोई नहीं है। वह इत्मीनान होकर छठ व्रत के अनुष्ठान में जुटी हुई है। घर की कोई चिन्ता फिक्र नहीं। उसे भरोसा है छठी मईया पर और अगाध निष्ठा है सूर्यदेव पर। सुनसान पड़े घर में चोरी-डकैती की चिन्ता भी रेणु देवी को नहीं सता रही है। वह कहती है कि ‘‘ सुरूज देव के डर से चोर-डकैत के हाड़ कांपss हई। ’’ मतलब साफ है श्रद्धा के आगे अपराधियों का सर नतमस्तक हो जाता हैं।
वैसे तो हिन्दुओं के तमाम पर्व बुराई पर अच्छाई का प्रतीक है। लेकिन बिडंबना यह है कि होली के अवसर पर पिछले दशकों में जिस तरह से खून की होली खेली जा चुकी है। दशहरा में छेड़खानी और बलात्कार व दीपावली में चोरी, डकैती, छिनतई की घटनाओं में बेतहासा वृद्धि दैनिक अखबारों से लेकर पुलिस रिकार्ड में दर्ज है। इन सब का गवाह वह आम जनता भी है जिसके साथ पर्व त्योंहार के अवसर पर ऐसी घटनायें घटित हुई हैं।
बिहार के पूर्व डीजीपी आशीष रंजन सिन्हा अपने अनुभव के आधार पर कहते हैं कि अमूमन छठ के अवसर पर अपराध की घटनाओं में आशातीत कमी आती है। दावा तो नहीं किया जा सकता लेकिन इतना अवश्य कह सकता हूँ कि 80 से 90 प्रतिशत तक अपराध की घटनाओं में कमी आ जाती है।
शराब व्यवसाय से जुड़े लोगों का कहना है कि जहां अन्य पर्व-त्योहार में शराब की बिक्री में बेतहाशा वृद्धि होती है, वहीं छठ व्रत के अवसर पर लगभग 90-95 प्रतिशत की कमी आ जाती है। बताते चलें कि शराब को बुरे कर्मो की जननी मानी गई है, तो जाहिर है इसकी कम खपत यह बयां करने के लिए काफी है कि अपराध का ग्राफ भी इस माहपर्व में उसी अनुपात में कम होता दिखता है।
सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता सुरेन्द्र सिंह कहते हैं कि सिर्फ शराब की बिक्री में कमी होने की वजह से ही अपराध की घटनाओं में कमी हो जाती है, ऐसा कहना तर्कसंगत नहीं लगता, इसके पीछे कई सामाजिक कारण भी स्पष्ट रूप से दिखता है। दरअसल इस पर्व में सामाजिक-सद्भाव को बढाने वाले तत्वों की अधिकता है। जाति-धर्म और मजहब से मुक्त होकर लोग साफ-सफाई की व्यवस्था में जुट जाते हैं। घाट पर ऊंच-नीच, अमीर-गरीब का भेद-भाव भी नहीं दिखता। समाज का सभी कुनबा छठव्रतियों की सेवा में तत्पर रहता है। घर में उपलब्ध सामानों का वितरण भी खुशी-खुशी की जाती है। इस व्रत में लोग अपरिचितों से भी प्रसाद मांगकर खाते है। दूसरी बात यह भी है कि इसमें 21 वीं सदी का समाज देशज दिखता है। जबकि अन्य पर्व त्योहारों में भारतीय संस्कृति और देशजपना लगभग गायब होता है। पश्चिमी सभ्यता और दिखावा ही ज्यादा हावी नजर आता है। संस्कृति के घाल-मेल के कारण भी अपसंस्कृति व अपराध पनपता है। समाज में व्याप्त जातिवाद, सांप्रदायवाद, और सामाजिक-आर्थिक विषमता के बावजूद इस अवसर पर सामाजिक समरसता का माहौल दिखता है। यह ब्रत सदियों से चली आ रही ब्रहम्णवादी व्यवस्था के खिलाफ समाजवाद की शिक्षा देता है। पूजा-पाठ के कर्म से जुड़े पंडित शिवबचन मिश्र कहते हैं कि इस पर्व में लोग अत्यंत ही नेम-धरम से नियमों का पालन करते है, श्रद्धालु भक्तजन साक्षात् भगवान भाष्कर का दर्शन करते है। भगवान भाष्कर की शक्ति से सभी परिचित है। कोई श्रद्धा से तो कोई भय से उनके सामने नतमस्तक होता है।
असल में भारत का संस्कृत अब पर्व त्योहारों तक सिमट कर रह गया है और इस तरह के अवसर पर ही भारत की झलक देखने को मिलती है इसका एक कारण का जिक्र आपने विपरीत दिशा में किया जिसको हम अपने शब्दों में कहें तो ब्राम्हणवादी व्यवस्था आई गिरावट भी है, जिसका मूल कारण में ब्राम्हण खुद हैं ओ अपना आचरण में दिनप्रति दिन गिरावट ला रहे और उसने छुआछुत जैसे कुरीतियों को बखूबी समझा लेकिन एक अच्छे ब्राम्हण का कर्तव्य और व्यव्हार भूल गया।छठ हो या बैद्नाथ धाम कांवर यात्रा मैंने देखा कि लोग जाति तो भुला ही जाते हैं साथ हि एक दुसरे के प्रति समर्पण कि भावना भी प्रबल हो जाती है ……महापर्व की महामंगल कामना आपकि सदा ………….जय हो !!!
वैसे आप जो कह रहीं ये सब निहित है हमारे रामायण और अन्य ग्रन्थ में इस युग में ब्राम्हणों का ह्रास्य होना हि है फिर भी आग्रह पूर्वक रामायण कि ये उक्ति प्रस्तुत है :-कवच अभेद विप्र गुरु पूजा,एही सम विजय उपाई न दूजा …..जय हो !