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भारत की हार और इंडियन राजनीति की जीत – 4

संजय मिश्र, नई दिल्ली

किसी राह चलते व्यक्ति से पूछिए कि सेक्यूलरिज्म क्या है तो वो एकबारगी चौंक उठेगा? दिमाग पर जोर देगा और कहेगा कि कांग्रेस सेक्यूलर है . . . लालू का पार्टी भी और हाँ वामपंथी लोग भी . . . आखिर में थोड़ा झल्लाते हुए कहेगा कि बीजेपी को छोड़ कर सभी। थोड़ा और कुरेदिए तब पूछिए कि जे डी यू क्या है? . . . इस बार झट से जबाव आएगा कि . . . हाँ वो भी क्योंकि मोदी का विरोध करता है . . .  गुजरात में दंगा हुआ था न। अब याद दिलाइये कि सिखों के कत्लेआम की वजह से कांग्रेस भी सेक्यूलर नहीं हुआ . . तो वो अकबका जाएगा।

अब किसी और राही से बात करिए। उससे सवाल करिए कि सामंतवाद क्या होता है? वो कहेगा फॉरवर्ड कास्ट के लोग सामंत होते हैं। कहने का मतलब ये कि आम लोग नहीं जान पाए हैं कि स्टेट के शासन करने का प्राकृतिक स्वभाव ही सेक्यूलर यानि गैर-धार्मिक होता है,  और ये कि सेक्यूलर नहीं  होने का अर्थ धार्मिक होने से है न कि कम्यूनल होने से है,  और ये भी कि आमजन(वोटर)धार्मिक बने रह सकते। वे जान नहीं पाए हैं  कि सामंतवाद

अर्थव्यवस्था की एक स्टेज थी न कि इसका जाति से कोई मतलब  है।  राजनीतिक क्रियाकलापों और संचार माध्यमों के जरिये इन शब्दों के संबंधमें दरअसल सच बताया ही नहीं गया।
विषय बदलते हैं . . .
टू इच एकोर्डिंग टू हिज नीड्स . . . एंड फ्रॉम इच एकोर्डिंग टू हिज कैपसिटी . . .
आप सोच रहे होंगे कि ये क्या माजरा समझाया जा रहा है? आप से कहा जाए कि ये मार्क्सवाद का एसेंस है तो आप हैरान हुए बिना नहीं रहेंगे। ये विचार सुन वामपंथी बिद्केंगे– मुंह चुराएंगे और इस सच को नकारेंगे। आम वामपंथी इससे अवगत नहीं और विषद समझ रखने वाले भारतीय मार्क्सवादी  इन्हें बताते नहीं। ये उस देश का हाल है जहाँ सोशल मीडिया के आने से पहले की तीन पीढ़ी वाम विचारों से लैस रही है . . तब जवान होने का मतलब होता था वामपंथी होना।

सनातन धर्म के उस दर्शन पर गौर करें जिसमें कहा गया कि उनका भी भला हो जो सबल हैं और उनका भी जो समर्थ नहीं  ———- यानि सबके उन्नति की निश्छल कामना। अब मार्क्सवाद के ऊपर कहे विचार और सनातन जीवन शैली के इस सोच का मिलान करें—साफ़ है दोनों नजरिये में समानता झलकती है। अमेरिकी दर्शन के — सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट — वाले सोच के ठीक उलट। तो क्या अमेरिका विरोधी इंडियन मार्क्सवादी कभी सनातन सोच के साथ अपनी कन्वर्जेन्स को एक्सप्लोर करना चाहेंगे। अभी तक इन्होंने ऐसा नहीं किया है।
इन्होने किया क्या है? इंडियन राजनीति की उस बड़ी समझ का साथ दिया है जो कहता है आमजनों को भ्रम में रखो और राज करो। दरअसल ऐसी नौबत आई कैसे? कई कारण खोजे जा सकते। संभव है इंडियन राष्ट्र की कांग्रेसी अवधारणा में भी इसके संकेत मिलें। चलिए इसे ही टटोलते है। ये अवधारणा कहती है— एक दिशा से हिन्दू आए ….. दूसरी तरफ से मुसलमान . . . तीसरी दिशा से सिख। इसी तरह क्रिस्टियन आये— और सबने कहा चलो एक राष्ट्र बनाते। कांग्रेस की अगुवाई में चलती मुहिम में इसे — मोजाइक — कहा जाता। अब मोजाइक भी तो किसिम किसिम के हो सकते जिस पर कोई विमर्श न हुआ।
मकसद दिख ही जाता है। भारत के इतिहास और जीवन शैली को जितना संभव हो झुठलाते जाओ। तभी तो बड़े फक्र के साथ वे कहते कि ये देश तो 65 साल का जवान है— यानि इसका अतीत नहीं बल्कि महज वर्तमान और भविष्य है। तो क्या इंडिया हवा में बनी है? रूट-लेसनेस का आरोप न लगे इसलिए कांग्रेस और इसके हितैषी बताएँगे कि हिन्दू धर्म में जड़ता है और ये प्रगतिशील बनने में बाधक। ख़म ठोक कर बताएँगे कि सनातन जीवन प्रवाह ( कनटिनियूटी) का उत्कर्ष नहीं है इंडिया। लेकिन बड़ी ही चालाकी और ढिठाई से संवैधानिक इंडिया की समस्याओं और ना-समझ क़दमों का ठीकरा हिन्दू व्यवस्था पर जरूर फोर देते ।

हिन्दू तौर-तरीकों के प्रगतिशील नहीं होने की बात पर वामपंथी भी हरकत में आ जाते। वे हिन्दुओं को याद दिलाते कि धर्म तो — अफीम– होता सो इससे विरत रहें। तो क्या सिर्फ हिन्दू धर्म ही अफीम होता? क्या इस्लाम और क्रिस्टियन धर्म अफीम जैसा असर नहीं डाल सकते? इस पर वे चुप्पी साध लेते। साझा हित कि बात है न तभी तो असम में भी अवैध बांग्लादेशी राशन कार्ड और वोटर कार्ड बनबा लेते और ज्योति बासु के बंगाल में भी।
ऐसा कहने वाले मिल जाएंगे कि नेहरु की सोच सिंथेटिक थी। मान लिया पर उन्होंने जतन से भारत को खोजने की कोशिश की। राहुल गांधी भी कभी-कभार ऐसा ही करते। वे ऐसा क्यों करते जिनके सलाहकार 65 साल के इंडिया का जुमला गढ़ते? इसी उधेड़बुन में हैं राहुल। इसलिए कि नेहरु के समय लोग नागरिक हुआ करते जबकि आज वोट-बैंक बना दिए गए है। सेक्यूलर वोट— कम्यूनल वोट— और न जाने कितने तरह के वोट हो गए आज। रहस्य यहाँ है। भूल वश राष्ट्र हित पर चिंता जता कर देखें —पकिस्तान के साथ ट्रैक-2 पालिसी में लगे कांग्रेसी हितैषी लाल-पीले हो जाएंगे। कह दीजिये कि क्या एक दब्बू राष्ट्र की नीव रखी जा रही–तो वे फुफकार उठेंगे।

संजय मिश्रा

लगभग दो दशक से प्रिंट और टीवी मीडिया में सक्रिय...देश के विभिन्न राज्यों में पत्रकारिता को नजदीक से देखने का मौका ...जनहितैषी पत्रकारिता की ललक...फिलहाल दिल्ली में एक आर्थिक पत्रिका से संबंध।

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