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विकास के नाम पर परजीवी दलालों की फौज खड़ी है बिहार में

बिहार को विकास की ओर ले जाने का दावा जोर शोर से  इस बार के चुनाव में हो रहा है, अखबार और टीवी वाले भी कमोबेश इसी सुर को तेज कर रहे हैं, देसी और विदेशी कंपनियों के चमकते हुये होर्डिंग्स इसी अहसास को बल प्रदान कर रहे हैं, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और बयां कर रही हैं। अंतरराष्ट्रीय इकोनोमिक मोडल (जिसे वित्तमंत्री रहते हुये मनमोहन सिंह ने अपनाया था) उसी के तर्ज पर बिहार को विकास की ओर ढकेला जा रहा है। विकास के इसी मॉडल को अपनाने में बिहार अब तक सबसे पीछे रहा है।  

देश के बड़े शहरों जैसे मुंबई, दिल्ली आदि की तरह ही बिहार की शहरी आबादी लोन लेकर कार और मकान खरीदने की ओर अग्रसर है, और उनका पूरा दम मंथली किस्त चुकाने में लग रहा है। यदि हम पटना की बात करें तो, यहां रियल स्टेट के धंधे में जोरदार उछाल आया है। जिस जमीन पर कभी धनखेती होती थी वहां बड़े-बड़े अपार्टमेंट्स बनने लगे हैं, बड़े-बड़े बिल्डरों के साथ-साथ परजीवी दलालों की एक अच्छी-खासी फौज खड़ी हो गई है। इस क्षेत्र में तमाम तरह के रंग-बिरंगे बैंकों ने भी अपने दरवाजे पूरी तरह से खोल दिये हैं। जीवन की मूलभूत जरूरतों को कवर करते हुये शहरी आबादी अनजाने में ही न्यू इकोनोमिक मॉडल में ही सांसे लेना बेहतर मान रही है।

   जब से मनमोहन सिंह की उदारवादी इकोनोमी देश में रन कर रही है, शिक्षा एक बड़ा धंधा बना है। निजी शैक्षणिक संस्थानों के उत्थान को विकास से जोड़ा जा रहा है, जहां के सारे तंत्र सिर्फ लूट और खसोट के लिए इजाद किये गये हैं। फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले टाईधारियों की एक पूरी जमात सिस्टमैटिक तरीके से इस लूट खसोट में लगी हुई है। बिहार को इसलिए पिछड़ा कहा गया क्योंकि लंबे समय तक कानून और व्यवस्था के बिगड़े हालातों के कारण टाईधारियों को यहां लूट-खसोट करने का अवसर नहीं मिला। बिहार में भय और आतंक का माहौल उत्पन्न कर अनजाने में लालू ने बिहारवासियों की जबरदस्त भलाई की है। लालू के शासन में बड़े पैमाने पर लोग बिहार के बाहर निकले और बेहतरीन शिक्षा हासिल करने के साथ-साथ तमाम तरह के धंधई गुर भी सीखते चले गये। नीतीश कुमार ने बिहार को भय मुक्त करके शिक्षा में टाईधारी माफियाओं को अपने धंधे फैलाने का पूरा मौका दिया है। सरकारी स्कूल और कालेज आज भी उपेक्षित हैं, और यदि विकास का मॉडल यही रहा तो आगे भी ऐसे ही उपेक्षित होते रहेंगे। यदि बिहार के विकास को समझने के लिए पटना को मॉडल के रूप में लिया जाये तो सारी तस्वीर एक बार में आंखों के सामने झलक जाती है। मेडिकल और इंजीनियरिंग के पिटने के बाद यहां आईआईटी और जर्नलिज्म की पढ़ाई को लेकर खासा प्रचार प्रसार किया गया है। आईआईटी में दाखिला की तैयारी करने कराने वाले शिक्षण संस्थान क्विंटल के हिसाब से खुले हैं। कुछ संस्थानों को तो विदेशी शिक्षा माफिआओं की ओर से भी ताम्रपत्र दिये जा रहे हैं, वहां के पत्र-पत्रिकाओं में भी इनके गुनगान किये हो रहे हैं। बड़े सलीके से इन्हें यहां पर ह्यूमनिस्टिक रंग में लोगों के सामने परोसा जा रहा है, समाज सेवा की भावना से ओतप्रोत सा लग रहा है। लेकिन इन सब के पीछे शिक्षा के क्षेत्र में मनमोहन सिंह की इकोनोमी ही काम कर रही हैं। इन शिक्षण संस्थाओं पर मोटा धन चढ़ रहा है, और चढ़ाने वाले अधिकतर बिहार के किसान हैं, जो यह समझते हैं कि उनका बेटा इन संस्थाओं में पढ़-लिखकर विदेशों में टाई लगाकर कमाने लायक हो जाएगा। मनमोहन सिंह के विकास का इकोनोमी जड़ को ही कुतर रहा है, न चाहते हुये भी नीतीश कुमार को इसी रास्ते पर आगे चलना उनकी मजबूरी हो गई है। यही कारण है कि समता समाज की बात करने वाले नीतीश कुमार यह बकते हुये फिर रहे हैं कि केंद्र से उन्हें विकास के लिए सहयोग नहीं मिल रहा है, और केंद्र सरकार भी यह कह रही है कि राज्य सरकार को मिले पाई-पाई पैसे का हिसाब कहां है, जबकि केंद्र और राज्य के बीच के आर्थिक संबंध ही ऐसे हैं कि राज्य के हिस्से में केंद्र की ओर से हर मद में एक मुश्त राशि आती ही आती है।

यदि कृषि की बात करें तो विदेशी बीजों से बिहार के बाजार अटे पड़े हैं और इतना ही नहीं इन बीजों को सहजता से उपलब्ध कराने के लिए कई बैंक भी किसानों के लिए खड़े हैं। खादों के संबंध में भी कमोबेश यही स्थिति हैं। कृषि यंत्र जैसे ट्रैक्टर आदि के क्षेत्र में भी इटली और फ्रांस कंपनियां धावा बोल चुकी है। नीतीश कुमार दावा करते फिर रहे हैं कि उनकी अगली सरकार बनी तो वह भ्रष्टाचार के खिलाफ हल्ला बोलेंगे। भ्रष्टाचार एक गंभीर मुद्दा है, और यदि चाणक्य की माने तो इस पर अंकुश लगाया जा सकता है, लेकिन पूरी तरह से काबू नहीं पाया जा सकता। ऐसे में नीतीश कुमार कहां तक सफल हो पाते हैं समय ही बताएगा।

वैसे बिहार स्वत: रूप से करवट ले रहा है, नई पीढ़ी खड़ी हो गई है, लेकिन उनकी दिशा किस ओर होगी यह बहुत कुछ बिहार के विकास भावी मॉडल पर डिपेंट करेगा। कर्पूरी ठाकुर ने बिहार के स्कूलों से अंग्रेजी हटाकर एक बहुत बड़ा गुनाह किया था। आज बिहार के छोटे से छोटे स्कूलों में भी अंग्रेजी को मजबूती से पढ़ाने की जरूरत है, लेकिन यह बिहार का दुर्भाग्य ही हैं कि स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ाने के लिए इतनी बड़ी संख्या में यहां शिक्षक तक मौजूद नहीं है। लोहा लोहे को काटता है, फर्राटेदार अंग्रेजी बोल कर तमाम तरह के हथकंडे अपनाते हुये नोट बटोरने वाले गिरोहों को बैकफुट पर फेंकने के लिए बिहार के बच्चा-बच्चा के जुबान पर अंग्रेजी तो लाना ही होगा। बिहार के विकास के मॉडल में अंग्रेजी को तरजीह देनी होगी ताकि मनमोहन सिंह के ग्लोबल इकॉनोमी का आकलन वे लोग बड़े होकर बिहार के हित में खुद कर सकें।

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4 Comments

  1. Good read … headline catchy … good points, some of which I have learned along the way as well (humility, grace, layoff the controversial stuff). Will share with my colleagues at work as we begin blogging from a corporate perspective. Thanks!

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