सुशासन का पोल खोल रहा है बिहार का खस्ताहाल परिवहन
तेवरआनलाईन, पटना
बिहार में प्राइवेट बसों की संख्या करीब 15 हजार है। बहुत बड़ी संख्या में यात्री अपनी हैसियत के मुताबिक इन प्राइवेट बसों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन इन प्राइवेट बसों की स्थिति ठीक नहीं है, इन बसों में यात्रियों की सुख-सुविधा का तनिक भी ख्याल नहीं रखा जाता है। कहने को तो प्राइवेट बसों में डिल्क्स, लक्जरी कोच और एयरकंडिशन बसे शामिल हैं, लेकिन यात्री इन बसों में सवार होने के बाद अपने आप को ठगा से महसूस करते हैं।
छोटे मार्गों पर प्राइवेट बसें 5 मिनट के अंतरराल पर खुलती हैं और लंबी दूरी के मार्गों पर 15 मिनट के अंतरराल पर। सामानतौर पर एक बस में 52 यात्री के बैठने की क्षमता होती है, जबकि आरामदायक कोचों में 35 यात्रियों की बैठने की व्यवस्था रहती है। लेकिन अधिक पैसे की लालच में निजी बसवाले निर्धारित क्षमता से अधिक यात्रियों को अपनी बसों में ठूस लेते हैं, जिसके कारण यात्रियों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है।
यात्रियों के अलावा प्राइवेट बसों पर व्यापारियों के सामान भी आवश्यकता से अधिक भर दिये जाते हैं। बस के छतों पर तो समान होता ही है, बस के अंदर भी सामान की भरमार लगी रहती है। बस पर आवश्यकता से अधिक यात्री और समान होने की वजह से दुर्घटना की संभावना हमेशा बनी रहती है। कुल मिलाकर बस वाले अधिक से अधिक कमाई करने के चक्कर में लगे रहते हैं, यात्रियों की सुख सुविधा से इन्हें कोई लेना देना नहीं होता।
यात्रा के दौरान बस के अंदर वीडियो पर रात भर फिल्में दिखाई जाती हैं। कहने के लिए तो ये फिल्में यात्रियों के लिए लगाई जाती है, लेकिन इसके दर्शक बस वाले ही होते हैं। यात्रियों की चिंता किये वगैर ये लोग अपनी पसंद की फिल्में लगाकर रातभर देखते रहते हैं। रात भर चलने वाली इन फिल्मों की वजह से यात्री नींद के लिए तरस जाते हैं।
परिवहन निगम के पास 18 डिपो हैं, लेकिन इन डिपो में प्राइवेट बसों को ठहरने की अनुमति नहीं है। प्राइवेट बसों के लिए अपना निजी बस पड़ाव तो है, लेकिन इनकी स्थिति काफी खराब है। यहां तक कि शौचालय की भी व्यवस्था नहीं है। ऐसे में सबसे अधिक परेशानी महिला यात्रियों को होती हैं। कहीं-कहीं पर तो यात्रियों को पीने का पानी के लिए भी तरसना पड़ता है।
निजी बस पड़ावों की कुव्यवस्था रात में सबसे ज्यादा दिखाई देती है। बिजली की व्यवस्था शायद ही किसी निजी बस पड़ाव में है। रात में जब कोई बस इन निजी बस पड़ावों में आता है तो यात्रियों की बुरी गत हो जाती है। अपनी जरूरत की चीजों को पाने के लिए उन्हें एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ता है, फिर भी मिलने की गारंटी नहीं होती। इन बस पड़ावों पर कोई यात्री सूचना केंद्र भी नहीं होता, जिससे यात्रियों को इधर-उधर भटकना पड़ता है।
प्राइवेट बसों की सुरक्षा भी पूरी तरह से भगवान भरोसे ही है। पहले प्राइवेट बसों पर निजी सुरक्षा गार्डों को तैनात किया जाता था, लेकिन पैसा बचाने के चक्कर में बस मालिकों ने निजी सुरक्षा गार्डों का इस्तेमाल करना बंद कर दिया है। अब प्राइवेट बसें वगैर सुरक्षा के ही चल रही हैं। बस पड़ावों पर भी न तो निजी सुरक्षा गार्ड होते हैं और न ही पुलिस। इन बस में यात्रा करने वाले यात्रियों के साथ अनहोनी की आशंका हमेशा बनी रहती है।
लगभग सभी प्राइवेट बस पड़ावों पर दलालों और एजेंटों का पूरी तरह से कब्जा है। जैसे ही कोई यात्री बस पड़ाव के पास आता है, दलाल और एजेंट अपनी-अपनी बसों में बैठाने के लिए उस पर टूट पड़ते हैं। ऐसे में उस यात्री की अच्छी खासी फजीहत हो जाती है। दलालों और एजेंटो को प्रति यात्री कमिशन बस मालिकों से मिलती है।
मार्ग परमिट को लेकर सरकारी महकमें में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण निजी बस मालिक खासे परेशान है। अधिकारियों की जेबें गरम करते करते उनके पसीने छूट जाते हैं, फिर भी उन्हें मार्ग परमिट के लिए लंबे समय तक इंतजार करना पड़ता है। रजिस्ट्रेशन के बाद बसों को मार्ग परमिट लेना जरूरी होता है। सरकार को अग्रिम भुगतान कर बसें मार्ग परमिट के इंतजार में खड़ी रहती हैं, जिससे बस मालिकों को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है।
मार्ग परमिट को लेकर प्राइवेट बस मालिकों के बीच एक होड़ सी लगी रहती है, इस होड़ को देखते हुये सरकारी अधिकारियों का रवैया भी लूट खसोट वाला होता है। परिवहन व्यवसायियों को सेवा शुल्क के रूप में सरकारी कर एवं फीस के अलावा लगातार भुगतान करना पड़ता है, जो प्राइवेट बस मालिकों के आय का 25 प्रतिशत हिस्सा होता है।गाड़ियों के दुर्घटनाग्रस्त होने पर तो संबंधित थाने की मानो लौटरी ही निकल पड़ती है। गाड़ी छोड़ने के लिए 20-25 वसुल लेना उनके लिए आम बात है। दुर्घटना की जांच करने में एक सप्ताह से 15 दिन लगा दिया जाता है। कोर्ट कचहरी में बस मालिकों को अलग से पैसे देने पड़ते हैं। बीमा कंपनियां वाहनों की बीमा तो करती हैं, लेकिन दुर्घटनाग्रस्त होने पर क्षतिपूर्ति राशि देने में वर्षों लग जाते हैं। बीमा की रकम हासिल करने के लिए बस मालिकों को बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं। इसके बावजूद उन्हें उचित रकम नहीं दी जाती है।
ठेके पर दिये जाने के कारण निजी बस पड़ावों पर हमेशा अपराधियों का जमघट लगा रहता है। ठेके पर देने की प्रक्रिया भी अपराधियों को बढ़ावा देने वाला है। बिहार सरकार द्वारा मोटर गाड़ी अधिनियम के अनुरूप पूरे बिहार में बस पड़ाव का निर्माण नहीं करवाया गया है। इस मामले में जिला प्रशासन मनमाना रवैया अपनाये हुये है। असुरक्षित और असुविधापूर्ण बस पड़ावों की भरमार है। बस पड़ावों की निलामी होती है, और इस निलामीमें अधिकतर असमाजिक तत्व ही भाग लेते हैं। राज्य में अधिकतर बस पड़ावों का संचालन असामाजिक तत्वों के ही हाथ में ही है। इन बस पड़ावों पर लूट और हत्या की संभावनायें बनी रहती हैं।
परिवहन विभाग प्राइवेट बसों का भाड़ा निर्धारित करती है, लेकिन गाड़ियों की कीमत के साथ पार्ट्स, डीजल, ट्यूब, टायर कीमत बढ़ने के भी आज तक भाड़ा में वृद्धि नहीं की गई है। इसे लेकर भी बस मालिकों में नाराजगी बनी रहती है।
चुनावों के दौरान बहुत बड़ी संख्या में प्रशासन निजी बसों को पकड़ कर उन्हें चुनावी ड्यूटी पर लगा देती हैं। ऐसी स्थिति में इन बसों की रोज की कमाई मारी ही जाती है। सरकार की ओर से किये जा रहे भुगतान में भी काफी टाल मटोल किया जाता है। जो राशि मिलती भी है प्रत्येक दिन आने वाले खर्च के अनुरुप भी नहीं होती।
बिहार में निजी बसों से रंगदारी वसुलने की परंपरा पुरानी है, और यह परंपरा आज भी जारी है। रंगदारी देना बस मालिकों की मजबूरी है। निजी बसों से जगह-जगह पर रंगदारी वसुलने की प्रथा आज भी जारी है, भले ही इसको रोकने के दावे बढ़ चढ़ किये जा रहे हो। अपनी बसों की सुरक्षा के लिए बस मालिकों को पुलिस और स्थानीय रंगदारों दोनों की जेबें गर्म करनी पड़ती है। रुट में चलते हुये इन दोनों से पंगा लेने का मतलब होता है जल में रह कर मगर से बैर करना। प्राइवेट बस मालिक सरकार को प्रति तीन माह पर 64 सौ रुपये टैक्स देते हैं, वहीं प्राइवेट बस पड़ावों पर प्रति बस प्रति माह 9 हजार रुपये रंगदारी टैक्स के रूप में देना पड़ता है। बिहार में गैर सरकारी टैक्स की यह परंपरा 1990 में शुरु हुई थी, जो आज भी बदस्तूर जारी है।
मजे की बात ये है कि प्राइवेट बस पड़ावों पर लंबी दूरी वाले बसों को भी नहीं छोड़ा जाता है। इनसे भी जबरन वसुली की जाती है, जबकि लंबी दूरी वाली बसों का इन प्राइवेट पड़ावों से कोई वास्ता नहीं है। अपने बसों को सुरक्षित रखने के लिए रंगदारी टैक्स इन्हें देना ही पड़ता है।
पूजा और त्योहार के दिनों में भी प्राइवेट बसों की शामत ही आ जाती है। जगह-जगह इनसे पूजा के नाम पर चंदा वसुला जाता है। नहीं देने पर बसों को तो नुकसान पहुंचाया ही जाता है, ड्राइवर और कंडक्टरों के साथ मारपीट भी की जाती है। वैसे पूजा के दौरान प्रशासन द्वारा सड़कों आकर चंदा काटने वाले लोगों को बार-बार चेतावनी दी जाती है, लेकिन इसका कुछ खास असर नहीं होता।
अब तो बिहार परिवहन विभाग भी निजी बसों का इस्तेमाल करने लगी है। चूंकि परिवहन विभाग की अधिकतर बसें खराब है, ऐसे में अपनी साख बचाये रखने के लिए विभाग को निजी बसों पर निर्भर करना पड़ रहा है। बिहार राज्य पथ परिवहन निगम अपने रुट पर प्राइवेट बसों को भी आमंत्रित कर रही है। चूंकि परिवहन निगम की बसों की स्थिति अच्छी नहीं है, अधिकतर बसें खराब हो चुकी है।
हाल ही में निगम प्रशासक प्राइवेट बसों को निगम के मार्गों पर चलने के लिए अनुबंध किया है। जनवरी 2011 में पथ परिवहन निगम के प्रशासक उदय सिंह कुवत निजी बस परिचालक ड्रडेन एक्सप्रेस ट्रांसपोर्ट से 105 प्राइवेट बसों का अनुबंध किया है। इनमें से 20 बसें अभी चल रही हैं। अभी 200 और प्राइवेट बसों के अनुंबंध की योजना है। यानि ड्रडेन एक्सप्रेस की कुल 305 बसे चलाने की योजना है।
बिहार में निजी वाहन रखने वालों ने टैक्स के करोड़ों रुपये सरकार को नहीं दिये है। राज्य में 25 हजार 335 वाहनों पर 164.66 करोड़ रुपये का टैक्स बकाया है। वाहनों का टैक्स बकाया रखने वाले शहरों में पूर्णिया पहले नंबर पर है, दूसरे स्थान पर पटना और तीसरे स्थान पर नालंदा है। यात्रियों को होने वाली लाख परेशानियों के बावजूद निजी वाहनों की रफ्तार थमी नहीं है। आज भी बड़ी संख्या में लोग निजी वाहनों का इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन जरूरत है इनमें व्यापक सुधार की।