‘राइट टू रिजेक्ट’ से लैस वोटर

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हर पॉलिटिकल सिस्टम की अपनी एक मजबूत फिलॉसॉफी होती है। चाहे राजतंत्र हो या निरकुंशतंत्र या फिर जनतंत्र, हर सिस्टम के अपने मूल्य होते हैं, अपनी कार्यप्रणाली होती है, नीतियों को लागू करने के लिए अपना तंत्र होता है। लेकिन यह भी सच है कि कोई भी पॉलिटिकल सिस्टम मुकम्मल नहीं होता, सुधार की गुजांइश हर सिस्टम में हमेशा बनी रहती है। सुधार को लेकर लचीलापन न रखने की वजह से ही विगत में राजतंत्र और निरकुंशतंत्र कई मुल्कों में धराशायी हो गये हैं। एक लंबी प्रक्रिया और अनुभव के बाद राजनीतिक चिंतकों ने डेमोक्रेसी को अब तक का सबसे बेहतर तंत्र करार दिया है क्योंकि इसमें जनता की प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष भागीदारी सुनिश्चित की गई है। अपने पसंदीदा उम्मीदवारों को चुनने के लिए जनता को वोट का अधिकार दिया गया है। इसी अधिकार का इस्तेमाल करके जनता अपनी सामान्य इच्छा (जनरल विल) को व्यक्त करती है। यानि वैसे प्रतिनिधियों को इकतरार में लाती है, जिन्हें वे अपने ऊपर शासन करने के योग्य समझती है। लेकिन तमाम खूबियों के बावजूद डेमोक्रेसी में जनप्रतिनिधियों के चयन के विकल्प सीमित हंै। इसी वजह से  रूसो की ‘जनरल विल थ्योरी’ की सही मायने में हत्या हो जाती है। वोटर चुनाव में शिरकत कर रहे किसी एक प्रतिनिधि को चुनने के लिए बाध्य हैं, भले ही उसे यह लगता हो कि कोई भी प्रतिनिधि उस पर शासन करने के योग्य नहीं है। कम से कम भारत में तो अभी तक मतदान को लेकर यही व्यवस्था थी। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद भारत में भी आम जनता को ‘राइट टू रिजेक्ट’ का अधिकार हासिल होने जा रहा है। ऐसे में इससे जुड़े सभी पहलू की पड़ताल निश्चिततौर पर की जानी चाहिए ताकि ‘राइट टू रिजेक्ट’ को लेकर लोगों के बीच एक स्पष्ट समझ बन सके। भारत जैसे मुल्क में जहां मतदान को लेकर एक बहुत बड़ा तबका उदासीनता अख्तियार किये हुये रहता है, ‘राइट टू रिजेक्ट’ के तमाम बिंदुओं पर एक व्यापक चर्चा लाजिमी है। यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि डेमोक्रेसी की सफलता अधिक से अधिक जनभागीदारी से ही संभव है।
आलोक नंदन
डेमोक्रेसी को मजबूत करने की कोशिश
इसमें कोई दो राय नहीं है कि समय के साथ भारतीय डेमोक्रेसी परिपक्व हो रहा है। लेकिन यह भी सच है कि इसमें व्याप्त कई खामियों को भी महसूस किया गया है। राजनीति में ऐसे लोग बड़ी तादाद में शामिल हो गये हैं, जिससे डेमोक्रेसी की मूलभूत भावनाएं आहत होती हैं। अपराधी और घोटालेबाज संगठित गिरोह के रूप में डेमोक्रेटिक सिस्टम को अंदर से खोखला कर रहे हैं। पहले ये लोग चुनावों में नेताओं के पीछे लामबंद होकर अपने कारनामों को अंदाज देते थे और अब खुद चुनावी मैदान में पैसे और हथियार के बल पर दंगल मारने में कामयाब हो रहे हैं। जिस तरह से भारत की राजनीति व्यवस्था में अपराधियों और दागी चरित्र वाले लोगों का बोलबाला बढ़ता जा रहा है, उसे लेकर चहुंओर जबरदस्त चिंता जताई जा रही थी। किसी- किसी चुनाव क्षेत्र में तो सारे के सारे प्रत्याशी आपराधिक पृष्ठभूमि के ही होते हैं। अधिक से अधिक सीट हासिल कर सरकार बनाने की ललक में राजनीतिक दल भी ऐसे लोगों को तरजीह देते रहे हैं। राजनीतिक दलों का मकसद महज सीटों में इजाफा करना रह गया है, जनता की भावना इनके लिए कोई मायने नहीं रखती। और मजे की बात है कि इस संदर्भ में अप्रत्यक्ष रूप से ‘लोहा लोहे को काटता है’ का तर्क देते हुये अपने कदम को ये जायज भी ठहराने की कोशिश करते रहे हैं। ऐसे राजनीतिक दलों और उनके नेताओं से लोगों को निजात दिलाने के लिए पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने 2004 में सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर कर कहा था कि जो मतदाता ईवीएम में सूचीबद्ध किसी प्रत्याशी को वोट नहीं देना चाहते, उन्हें नकारात्मक मतदान का अधिकार होना चाहिए। उनका प्रयास अब रंग दिखाने लगा है। देर से ही सही सुप्रीम कोर्ट प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति पी. सतशिवम और न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई और न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की पीठ ने चुनाव आयोग को जनता के लिए ‘राइट टू रिजेक्ट’ के अधिकार को लागू करने की हिदायत देते हुये कहा है, ‘एक जीवंत लोकतंत्र में मतदाताओं के पास ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प चुनने का अवसर होना चाहिए। इससे राजनीतिक दलों को स्वस्थ प्रत्याशी चुनने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। यह स्थिति स्पष्ट रूप से हमें नकारात्मक मतदान की नितांत जरूरत को दर्शाता है।’ सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश निस्संदेह मुल्क में डेमोक्रेसी को मजबूत करने की दिशा में एक अहम कदम है।
दागियों पर लगाम संभव
मगरबी मुल्कों में एक मजबूत डेमोक्रेटिक सिस्टम को स्थापित करने को लेकर लगातार प्रयोग किये जा रहे हैं। फ्रांस, बेल्जियम, ब्राजील, यूनान, फिनलैंड, स्वीडन, अमेरिका, कोलंबिया और स्पेन आदि मुल्कों में आम जनता को ‘राइट टू रिजेक्ट’के अधिकार से पहले ही लैस कर दिया गया है। यहां तक कि बांग्लादेश जैसे पिछड़े मुल्क के लोग भी ‘राइट टू रिजेक्ट’का इस्तेमाल कर रहे हैं। अब भारत भी उन 13 मुल्कों में शामिल हो जाएगा, जहां की जनता अपने प्रतिनिधियों को खारिज करने का अधिकार है। भारत की राजनीतिक संस्कृति मगरबी मुल्कों की राजनीतिक संस्कृति से पूरी तरह से मुखतलफ है। शक्ति पृथककरण के सिद्धांत के तहत स्थानीय निकायों को भी मजबूत करने की व्यवस्था की गई है। फिलहाल वोटिंग मशीन में ‘राइट टू रिजेक्ट’ का प्रावधान पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में करने का निर्देश दिया गया है। और यदि यह प्रयोग सफल होता है तो इसे अगले वर्ष होने वाले आम इंतखाब में लागू किया जाएगा। अब देखना यह है कि मगरबी मुल्कों से इतर भारत की जनता इसका कितना इस्तेमाल करती है और यह चुनावी नतीजों को यह कहां तक प्रभावित कर पाता है। इतना तो यह है कि ‘राइट टू रिजेक्ट’ का तत्काल असर उन राजनीतिक दलों पर पड़ने वाला है, जो अब तक चुनावी मैदान में आपराधिक छवि वाले नेताओं को उतारने से गुरेज नहीं करते थे। अस्वीकार्यता के भय की वजह से राजनीति दल दागी उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारने से निस्संदेह परहेज करेंगे। वैसे भी पिछले कुछ अरसे मुल्क में दागी नेताओं को लेकर मुल्क में जबरदस्त आक्रोश है। ऐसी नेताओं को खिलाफ यदि व्यापक पैमाने पर ‘राइट टू रिजेक्ट’ बटन का इस्तेमाल होता है तो किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए। सिविल सोसाइटी पहले से ही भारतीय डेमोक्रेसी में व्याप्त खामियों को लेकर लगातार तहरीर चला रही हैं।
चौतरफा स्वागत
सामाजिक हलकों में ‘राइट टू रिजेक्ट’ का स्वागत तो हो ही रहा है, लोगों की मानसिकता का आकलन करते हुये सियासी गलियारों में भी इसका इस्तकबाल किया जा रहा है। कांग्रेस यह मान रही है कि सैद्धांतिकतौर पर इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन इसके व्यावहारिक पहुलओं को अच्छी तरह से समझने की जरूरत है। कांग्रेस के मीडिया सेल के प्रमुख अजय माकन अनमने रूप से ही सही, लेकिन इसके पक्ष में हामी भर रहे हैं। भाजपा की ओर से मुल्क के भावी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ‘राइट टू रिजेक्ट’ को लेकर काफी उत्साह दिखा रहे हैं।  अपने ब्लॉग पर उन्होंने यहां तक लिखा है कि ‘मैं पूरे हृदय से इसका स्वागत करता हूं। मुझे पूरा भरोसा है कि इसका हमारी राजनीति पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा।’ निस्संदेह इसका दूरगामी प्रभाव मुल्क की राजनीति पर पढ़ने वाला है। मनमाफिक प्रत्याशी न होने की वजह से एक बहुत बड़ा तबका बूथ पर जाकर वोट डालना भी गंवारा नहीं समझता था। दागी प्रत्याशियों को लेकर इनके मन में आक्रोश तो होता था लेकिन इनके पास कोई विकल्प नहीं था। अब यह तबका अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए जरूर निकलेगा और इसके साथ ही राजनीति में दागी प्रत्याशियों के खिलाफ विरोध की तहजीब पनपेगी और समय के साथ मजबूत होगी।  इसी तरह आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल भी स्वीकार करते हैं कि ‘राइट टू रिजेक्ट’ चुनाव सुधार की प्रक्रिया में एक बड़ा कदम है, लेकिन यह सिर्फ पहला कदम है। कहा जा सकता है कि आने वाले समय में रिजेक्ट की संस्कृति मतदान से संबंधित अन्य कई सुधारों को भी हवा देगी। वैसे ‘राइट टू रिजेक्ट’ साथ-साथ ‘राइट टू रिकॉल’ को अधिकार भी आम जनता को दिये जाने के पक्ष में चिंतन-मनन और तहरीरें चल रही हैं। बहुत संभव है ‘राइट टू रिकॉल’ ‘राइट टू रिजेक्ट’ की अगली कड़ी साबित हो। वैसे भी किसी भी राजनीति तंत्र के साथ ‘लर्न और एरर’ की प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है और डेमोक्रेटिक तंत्र में तो इसकी गुंजाईश कुछ ज्यादा ही है।

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