बेटी (कविता)

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ऐ श्रृष्टि रचाने वाले, दुनिया को बसाने वाले।

बस इतना तू बता दे मुझको, ऐ इंसान बनानेवाले।

मैं ही जननी हूँ फ़िर भी, मुझसे ही नफरत क्यूँ है?

बेटी हूँ कल की माँ भी, फ़िर मुझपे हुकूमत क्यूँ है?

ऐ रूहों के रखवाले, सबमें प्राण बसाने वाले।

बेटी बोझ है तो फ़िर सबको, पत्नी की जरुरत क्यूँ है?

इंसान को पैदा करती हूँ, अर्धांगिनी उसकी बनती हूँ।

फ़िर गर्भ में मुझको मारने की, इंसानी फितरत क्यूँ है?

ऐ दुनिया के रखवाले, पल भर में ग़म हरनेवाले।

तूने दोनों को बनाया पूरक, फिर बेटी को उकुबत क्यूँ है?

मैं गर्भ से बाहर आके भी, तो सुरक्षित ना रह पाती हूँ।

जब ख़लती है बेटी, तो किसी लड़की की चाहत क्यूँ है?

ऐ दर्द दिलानेवाले, और मरहम भी लागनेवाले।

बस इतना तू बता दे मुझको, ऐ इंसान बनाने वाले।

मैं ही औरत बनती हूँ, मैं ही तो बेटी जनती हूँ।

औरत है बेटी उसको, बेटी के जन्म से दिक्कत क्यूँ है?

सबकी अस्मत के रखवाले, भटके को पथ दर्शानेवाले।

सब सुख मुझसे ही पाके भी यहाँ, मेरी ही जिल्लत क्यूँ है?

घर छोड़ के  बाबुल का मैं, बिन माँ के ही रहती हूँ।

फिर भी दहेज़ उत्पीड़न मेरे ही फितरत में क्यूँ है?

सबको मिट्टी से बनाने वाले, फ़िर मिट्टी में मिलाने वाले।

बस इतना तू बता दे मुझको, ऐ इंसान बनाने वाले।

ज़िल्लत= मानहानि, अपमान, अनादर।  उक़ूबत = दंड, सजा, उत्पीड़न, यातना। ज़हमत= विपदा, दर्द

– © “अनुजरवि”

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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