बिहार में सत्ता की ‘साइकोफैंटिक रियलिटी’

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लोकसभा चुनाव में मोदी लहर का असर का बिहार में भी देखने को मिला। नीतीश और लालू की पार्टी बिखर सी गई। अब महागठबंधन का निर्माण कर तथाकथित  सेक्यूलववादी शक्तियां कई छोरों पर मार्चाबंदी कर रही हैं। बिहार की जमीन पर लालू यादव और नीतीश कुमार ने अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत कांग्रेस की मुखालफत करके की थी। अब बीजेपी को मात देने के लिए इस महागठबंधन में कांग्रेस भी शामिल है। सारे खिलाड़ी वहीं हैं लेकिन मैदान में अब उनका पोजिशन बदल गया है। इस बार बिहार में लालू-नीतीश और कांग्रेस की साझा दुश्मन बीजेपी है। इस बदले हुये राजनीतिक माहौल में सत्ता की साइकोफैंसी रियलिटी भी बदल गई है। एक ओर एकजुट होकर बीजेपी की मुखालफत करने वाली शक्तियां कई स्तरों पर लामबंद होने का फार्मूला गढ़ रही हैं तो दूसरी ओर महागठबंधन में शामिल इन धड़ों के अंदर भी सत्ता संघर्ष अपने चरम पर है। बीजेपी में मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार सुशील कुमार मोदी को राजनीतिक तौर पर हलाक करने के लिए अंदरखाते व्यवस्थित हमले हो रहे हैं।

हाल ही में बिहार में हुये उप चुनावों में 10 में 6 सीट हासिल करके महागठबंधन खुद को मनौवैज्ञानिक तौर पर मजबूत प्रदर्शित कर रहा है और यह फैंटसी करने में लगा है कि 2015 में संयुक्त महागठबंधन को जबरदस्त कामयाबी मिलेगी, जबकि हकीकत में गठबंधन के तमाम धड़े एक-दूसरे साथ ‘ साधो और मारो’ की मुद्रा’ में है। यहां तक कि बिहार की वर्तमान राजनीति में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद और जदयू के तारणहार नीतीश कुमार की ‘बदनाम दोस्ती’ एक दूसरे के खिलाफ खंजर से लैश है। दूसरी ओर बीजेपी के अंदर सुशील कुमार मोदी के खिलाफ तलवारें म्यान में कसमसा रही हैं। वैसे ऊपरी तौर पर आइडियोलॉजिकली बिहार में 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव को फासीवादी और सेक्यूलर कलर्स कमोबेश दे दिया गया है। इसके साथ ही जमीनी धरातल पर चुनावी मैदान में ‘बाजीमारू गणित’ को पूरी तरह से व्यवहारिक स्तर पर कसा जा रहा है, जिसके अहम एलिमेंट्स हैं, जात कांबिनेशन, प्रशासनिक अधिकारियों की सही सेटिंग, छोटे-छोटे गुटों का कई स्तर पर सही संतुलन, पार्टी फंड को मजबूत करने वाले स्रोतों की ठोक-बजाई और अचेतन रूप से गोलबंदी करने वाले उग्र नारों की गढ़ाई और सबसे अहम राज्य स्तरीय मुद्दों की बुआई और और सही समय पर कटाई।

नीतीश कुमार और लालू यादव एक मंच पर साथ तो गये हैं लेकिन अभी भी राजद और जदयू कार्यकर्ताओं के बीच एक दूसरे को लेकर शक की दीवार खड़ी है। बिहार की राजनीति में लालू का व्यक्तित्व एक करिश्माई नेता की रही है। लालू के नाम पर आज भी एक बहुत बड़ा जमात जो नीतीश कुमार की वजह से सत्ता से बेदखल कर दिया फिर से सत्ता हासिल करने के लिए लालू के साथ मजबूती से खड़ा है। इस जमात को नीतीश कुमार पर यकीन नहीं है, क्योंकि नीतीश कुमार की राजनीतिक शैली से विगत में इस जमात को गहरा धक्का लगा है। सुशासन के दौर में बिहार सरकार के विभिन्न विभागों से निकलने वाले सारे छोटे-बड़े टेंडर इस जमात को व्यवस्थित तरीके से महरूम कर दिया गया था। विगत में जदयू और राजद कार्यकर्ताओं के बीच सांप और नेवले का संबध रहा है। बिहार की बदलती राजनीतिक परिस्थिति में दोनों बड़े नेता तमाम विरोधाभाषों के बावजूद अपने कार्यकर्ताओं को आपस मिलाते हुये लक्ष्य भेदने की ओर कैसे अग्रसर करते हैं यह देखना रोचक होगा। एक ओर राजद के अंदर लालू प्रसाद यादव के कई अहम सिपहसलार लालू दरबार में अपनी जमीन मजबूत करने के लिए आपस में होड़ करते हुये एक दूसरे को पटकनी देने की जुगत लगा रहे हैं वहीं दूसरी ओर सुशासन के दौरान बिहार की राजनीतिक को व्यक्ति विशेष पर केंद्रित करने और कार्यकर्ताओं की लगातार उपेक्षा किये जाने से बड़ी संख्या में जदयू कार्यकर्ता नीतीश कुमार से बिदके हुये है। इन बिदके हुये कार्यकर्ताओं को पटरी पर लाने के लिए नीतीश कुमार बिहार के विभिन्न जिलों में सीधे कार्यकर्ताओं से संवाद करते हुये उनकी पीठ सहलाने का काम कर रहे हैं। पेशे से इंजीनियर नीतीश कुमार बिहार की राजनीति के एक मजे हुये खिलाड़ी है, कार्यकर्ताओं को अपने पक्ष में करने का हुनर उन्हें अच्छी तरह से आता है, लेकिन अपने कार्यकर्ताओं को विगत में अपने धुर विरोधी राजद के पक्ष में मजबूती के साथ खड़ा कर पाएंगे इसमें शक है।

नीतीश से विपरीत लालू प्रसाद यादव की आज भी अपने कार्यकर्ताओं पर मजबूत पकड़ है, बिहार के पिछड़े तबके खासकर यादवों पर भी लालू यादव का भरपूर असर है। लालू यादव ने अपनी खास राजनीतिक शैली से यादवों के कमान में बिहार के पिछड़ों की राजनीतिक महत्वकांक्षा जगा दी थी। लालू के नेतृतव में बिहार की राजनीति में फिर से वही भूमिका हासिल करने के लिए यादव समुदाय कसमसा रहा है। बिहार में यादवों की आबादी कुल आबादी की तकरीबन 20 प्रतिशत है। और इस वक्त अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा की पूर्ति के लिए यादव पूरी तरह से लालू प्रसाद यादव पर ही निर्भर है। वैसे कुछेक यादव नेता दूसरे दलों में भी कई स्तरों पर अहम भूमिका में हैं लेकिन उनकी मकबूलियत मास लेवल पर यादव समाज में सदिग्ध है। हालांकि संगठन की कमान भूपेंद्र यादव को सौंपने के बाद बीजेपी की ओर यादव का रुझान हो सकता है।

बिहार की राजनीति में यादवों का विशाल जमात यदि लालू की शक्ति है तो कमजोरी भी। राजनीतिक महत्वकांक्षा तो इसके अंदर हिलोरे मार रही है लेकिन तेजी से बदलती दुनिया के अनुकूल यह अपने आप को ढालने में अक्षम साबित हो रहा है। डेमोक्रेटिक नार्म्स को मेंटन करते हुये राजनीतिक एजेंड को सही तरीके से आगे बढ़ाने की काबिलियत से यह यादव समाज अभी अभी दूर है। विगत में सुशासन का नारा बुंलद करके नीतीश कुमार ने बिहार की आबोहवा में व्यापक तब्दीली ला दी है। लोगों की मानसिकता को बदलने का काम किया है। समाजिक न्याय का नारा बुलंद करके सामंतवाद के खिलाफ लड़ते-लड़ते लालू के नेतृत्व में राजद का चरित्र भी सामंती और परिवारवादी हो गया है। इसके बावजूद लालू यादव इस यादव समुदाय के बिहार में एकछत्र नेता हैं। हालांकि उनकी तबीयत नासाज है, लेकिन उनके धुर विरोधी भी यह मानते हैं कि लालू यादव बिहार के एक मात्र ऐसे नेता हैं जिनमें ‘वोट ट्रांसफर’ करने की कूव्वत है।  आज भी लालू के समर्थक लालू के कहने पर किसी गठबंधन के किसी भी प्रत्याशी को वोट देने से नहीं हिचकेंगे, जबकि नीतीश कुमार के राजनीतिक नेतृत्व में इस गुण का अभाव है। राजद के अंदर लालू के समक्ष संकट गुप्त रूप से उनके सिपहसालारों के स्तर पर आ सकता है। सिपहसालारों के बीच एक दूसरे को निपटाने की मानसिकता राजद पर भारी पड़ सकती है। 2015 विधानसभा में बेहतर प्रदर्शन के लिए लालू के सामने एक अहम चुनौती अपने सिपहसालारों की महत्वकांक्षा पर लगाम लगा कर उन्हें सही दिशा देने की होगी।

राजद, जदयू और कांग्रेस के बीच सीट शेयरिंग को लेकर भले ही अभी सभी लोगों ने चुपी साध रखी है लेकिन आने वाले समय में यह मसला पूरी जटिलता के साथ महागठबंधन के सामने पेश होगा, और एक अहम सवाल मुख्यमंत्री पद को लेकर उठने वाला है। फिलहाल जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान करके भले ही नीतीश कुमार ने महादलितों को साधने की कोशिश की है लेकिन महागठबंन में मुख्यमंत्री के ओहदे को लेकर नीतीश कुमार मनमाना रवैया अख्तियार नहीं कर पाएंगे। यह देखना रोचक होगा कि मुख्यमंत्री पद को लेकर महागठबंधन का सामूहिक रूख क्या होता है। महागठबंधन में कांग्रेस मुख्यमंत्री पद को लेकर बार्गेन करने स्थिति में नहीं लेकिन लालू और नीतीश मुख्यमंत्री ओहदे को दांत से पकड़ कर एक दूसरे से उलझ सकते हैं। हालांकि भाजपा का भय दोनों नेताओं को इस मसले पर सार्वजनिक तौर पर उलझने से रोकेगा, ऐसी स्थिति में अंदरखाते समझौते की पूरी गुंजाईश है। ऐसी स्थिति में राजद और जदयू के सेंकंड लेयर के किसी नेता की भी किस्मत खुल सकती है। सम्राट चौधरी जैसे नेता दोनों महाबलियों के साथ-साथ कांग्रेस नेतृत्व को भी संतुष्ट करते हुये अपनी राह आसान करने में लगे हुये हैं। शहरी विकास मंत्री बनने के बाद वो अपने कद को तेजी से आगे बढ़ा रहे हैं। वैसे कांग्रेस भी अपने संगठन का झाड़पोंछ करने में लगी हुई है। सूबे की सारी स्टेट कमेटियां भंग कर दी गई है। कांग्रेस में जान फूंकने के लिए राहुल गांधी भी नंबर में पटना आने वाले हैं।

बिहार में बीजेपी का पहचान मुख्य रूप से अगड़ों की पार्टी के रूप में है, हालांकि मोदी लहर से लोकसभा चुनाव में पिछड़ों का वोट भी बीजेपी के पक्ष में मुड़ा था। फिलहाल अघोषित रूप से बीजेपी की कमान सुशील कुमार मोदी के हाथ में है, और वो खुद को अभी से मुख्यमंत्री मानकर चल रहे हैं जिसको लेकर बीजेपी के अंदर अगड़ों की जमात में बेचैनी है। सुशील कुमार मोदी को नेपथ्य में ढकेलने के लिए इस लॉबी द्वारा हर तरह के हथियारों का इस्तेमाल किया जा रहा है। पार्टी के अंदर अपने खिलाफ खिंची हुई तलवारों को सुशील कुमार मोदी भी स्पष्ट तरीके से देख रहे हैं। बिहार प्रदेश बीजेपी कार्यकारिणी से जुड़े एक सदस्य का कहना है कि पार्टी के अंदर व्यक्तिवाद को स्थापित करने की कोशिश की जा रही है। चूंकि पार्टी का संगठन मजबूत है इसलिए अभी खुलकर बगावत नहीं हो रही है।

फिलहाल सूबे में केंद्रीय फार्मूले के तहत बीजेपी कई छोटे-छोटे दलों और उनके नेताओं को साथ लेकर चल रही है। इसमें लोक जनशक्ति पार्टी भी शामिल है और उपेंद्र कुशवाहा भी। यदि बीजेपी के अंदर उठा-पटक होता है तो इसका असर इसके सहयोगी दलों पर भी पड़ना लाजिमी है। वैसे अभी तक सहयोगी दल सूबे में बीजेपी से लाभांवित ही होते रहे हैं। बीजेपी के अंदर छिड़ी जंग से भले ही इसके कैडर वोट न बिदके लेकिन पार्टी के अंदर जातीय अस्मिता पर गोलबंदी तेज हो सकती है और जातीय गोलबंदी पर टिकी छोटी-छोटी सहयोगी पार्टियां भी इसकी लपेट में आ सकती है। ऐसे में बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व सूबे के नेतृत्व को क्या आकार देता है।

बिहार की जनता राजनीतिक तौर पर लाख जागरूक हो लेकिन उसे यकीन है कि बिहार की राजनीति राष्ट्रीय राजनीति के दिशा निर्देशों से प्रभावित नहीं होगी और यहां होगा वही जो अब तक शीर्ष पर बैठे नेता चाहेंगे। बिहार की राजनीति के मर्म को समझने वाले एक शख्स ने स्पष्टतौर पर कहा, ‘चाहे कुछ भी जाये यहां की राजनीतिक खेल में चलेगा उन्हीं चार-पांछ नेताओं का ही जो लंबे समय से यहां की गली-कूची की राजनीति करके खुद को स्थापित किये हुये हैं। अंतिम समय में ये लोग लोगों का दिमाग बदल देते हैं।’

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