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कश्मीर में मीडिया के दमन पर चुपी क्यों ?

अफजल गुरु को फांसी देने के बाद जिस तरह से कश्मीर के तमाम अखबार और न्यूज चैनल तीन दिन तक बंद रहे उससे इतना तो स्पष्ट हो गया है कि आज भी भारत में अभिव्यक्ति की आजादी पूरी तरह से सरकार भरोसे है। वह जब चाहे अखबारों का गला पकड़ सकती है और न्यूज चैनलों की कनेक्टिविटी रोकर कर उन्हें झटका दे सकती है। जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री   उमर अब्दुल को अफजल गुरु को फांसी देने के पहले ही केंद्र सरकार ने एलर्ट कर दिया था। हंगामे की डर से अतिरिक्त सावधानी बरतते हुये उमर अब्दुला ने कश्मीर और उससे सटे इलाकों में  कर्फ्यू लगाते हुये तमाम अखबारों पर भी ‘अघोषित पाबंदी’ लगा दी। एक तरह से कश्मीर के लोगों को तीन दिन तक ‘गुफा मानव’ के रूप में तब्दील करके उन्हें उनके घर में कैद कर दिया गया। इस बाबत पूछे जाने पर केंद्र सरकार के नुमाइंदों का टका सा जवाब था कि कानूव व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मदेरी सूबे की सरकार की है। यदि सुरक्षा के लिहाज रियासती सरकार द्वारा कुछ कदम उठाए जाते हैं तो इसमें बुरा क्या है। सवाल उठता है कि सुरक्षा के नाम पर लोगों को अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार को कुचलना कहां तक जायज है? सुरक्षा की आड़ में तो पूरे देश की मीडिया को रौंदा जा सकता है।
संसद पर हमले के साजिशकर्ता अफजल गुरु को फांसी देने की मांग विभिन्न हलकों द्वारा लगातार की जा रही थी, इसके बावजूद कश्मीर में एक तबका अफजल गुरु को हीरो मान रहा था। उमर फारुक को डर था कि अफजल गुरु के समर्थक कश्मीर में हंगामा खड़ा सकते हैं। अफजल गुरु की मौत से वहां अपना आधार खो जुके अलगाववादी शक्तियों को एक बार फिर बल मिल सकता है। उमर फारुक अलगाववादियों को कोई मौका देना नहीं चाहते थे। यही वजह है एहतियातन सभी अलगावादियों को नजरबंद करने के साथ-साथ घाटी में कर्फ्य लगा दिया गया और अंदर खाते अखबारों को भी इस मसले पर खामोश रहने को कहा गया। कहा यह भी जा रहा है कि कश्मीरी अखबारों के अंदर एक तबका अफजल गुरु को फांसी पर लटकाये जाने के खिलाफ था। सरकारी दबाव के बाद इन लोगों ने खुद से ही अखबारों को न निकालने का फैसला लिया। बहरहाल मामला चाहे जो हो कर्फ्यू के दौरान अपने घरों में बंद कश्मीरी बाहरी सूचना के लिए तरसते रहे। कश्मीर में अभिव्यक्ति की आजादी तो दांव पर लगी ही, लोगों को सूचना हासिल करने के अपने मौलिक अधिकार से भी वंचित होना पड़ा।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कश्मीर से निकलने वाले अधिकतर अखबारों पर आतंकी सगठनों का पहरा है। उनकी मुखालफत करने की हिम्मत वहां के अखबारों में नहीं है। यहां तक कि कश्मीर में काम करने वाले विदेशी मीडिया के प्रतिनिधि भी वहां सक्रिय आतंकी संगठनों को नाराज करने की जहमत नहीं उठाते हैं। यही वजह है कि विदेशी मीडिया द्वारा वहां सक्रिय आतंकियों को आतंकी ने कह कर चरमपंथी कहा जाता है। ऐसे में इस बात की पूरी संभावना थी कि वहां के अखबारों पर अफजल गुरु को एक शहीद के तौर पर चित्रित करने का दबाव होता और काफी हद तक इस दबाव से संचालित होकर ही वहां के अखाबरों के तमाम संस्करण निकलते।
यदि ऐसा होता तो भी अखबारों पर ‘अघोषित पाबंदी’ किसी भी मायने में उचित नहीं है। कश्मीर से निकलने वाले छोटे-बड़े तमाम अखबार समय के साथ जहीन हो गये हैं। उन्हें पता है परिस्थितियों के मुताबिक अच्छी बुरी खबरों को कैसे लोगों तक पहुंचाना है। अफजल गुरु की फांसी के तीन दिन बाद तक वहां के तमाम अखबारों का बंद रहना निसंदेह अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकारों के लिए चिंता का विषय है। वैसे वहां की मुकामी हुकूमत का यही कहना है कि अपनी ओर से उन्होंने अखबारों पर किसी तरह की पाबंदी नहीं लगाई थी।
अखबारों के साथ केबल टीवी को भी ठप कर दिया गया था, जिसकी वजह से लोग सूचनाओं से पूरी तरह से महरूम रहें। स्थानीय खबरों को घर-घर पहुंचाने का काम कश्मीर में केबल टीवी वाले लंबे समय से करते आ रहे हैं। इन्हें भी अघोषित रूप से बंद करने का आदेश दिया गया था। केबल टीवी में काम करने वाले तमाम लोग तीन दिन हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। उनका कहना था कि हुकूमत को डर है कि अफजल गुरु की फांसी से संबंधित खबरों को देख-सुन कर यहां के लोग भड़क उठेंगे। घाटी में प्रदर्शन तो हो रहे हैं लेकिन हम उन्हें दिखा नहीं सकते हैं।
संचार क्रांति के नये युग में सोशल साइट्स अभिव्यक्ति का एक नया हथियार बनकर भले ही उभरा हो, लेकिन इसकी गर्दन सरकार जब चाहे मरोड़ सकती है। कश्मीर में इसका नमूना स्पष्ट रूप से देखने को मिला। जामर के माध्यम से इंटरनेट को भी पूरी तरह से ठप कर दिया गया था। यहां तक कि लोगों के मोबाइल फोन भी पहुंच से बाहर थे। मुल्क के दूसरे हिस्सों में रहने वाले कश्मीरी अपनी बातों को धड़ल्ले से सोशल साइटों पर शेयर कर रहे थे। अफजल गुरु की फांसी से संबंधित हर पहलू पर बेबाकी से टिप्पणी कर रहे थे और इन टिप्पणियों के पक्ष और विपक्ष में लोग प्रतिक्रियाएं भी दे रहे थे। यानि कि राष्टÑीय स्तर पर तो इस मसले को लेकर बहस मुबाहसों का दौर चल रहा था, लेकिन कश्मीरियों को इससे पूरी तरह से दूर रखा गया था, जैसे कश्मीर इस देश का हिस्सा है नहीं है।
स्वस्थ्य डेमोक्रेसी की पहली शर्त है सूचनाओं का खुलकर आदान प्रदान होना। सूचनाओं के जरिये ही एक स्वस्थ्य समाज तबादला ख्याल जारी रखता है। स्थानीय हुकूमत द्वारा कश्मीर में सूचनाओं पर जिस तरह से पहरा लगाया गया उससे सचेत होने की जरूरत है। सबसे खतरनाक बात तो यह है कि कश्मीर में मीडिया के साथ जो कुछ भी हुआ है वह पूरी तरह से ‘अघोषित तौर’ पर हु्आ है। अनाधिकारिक तौर पर हुकूमत के नुमाइंदे यही कह रहे हैं कि जो कुछ भी किया गया है वह राष्टÑीय सुरक्षा को ध्यान में रखकर किया गया है। देश में स्वतंत्र प्रेस के लिए यह प्रवृति खरतनाक है। कल मरकजी सरकार भी राष्टÑीय सुरक्षा का हवाला देकर यदि मीडिया के मुंह पर लगाम लगाने की कोशिश करेगी तो क्या तमाम मीडिया वाले चुप बैठेंगे? यदि नहीं तो कश्मीर में मीडिया के दमन पर चुपी क्यों है?

कश्मीर में मीडिया के दमन पर चुपी क्यों ?अफजल गुरु को फांसी देने के बाद जिस तरह से कश्मीर के तमाम अखबार और न्यूज चैनल तीन दिन तक बंद रहे उससे इतना तो स्पष्ट हो गया है कि आज भी भारत में अभिव्यक्ति की आजादी पूरी तरह से सरकार भरोसे है। वह जब चाहे अखबारों का गला पकड़ सकती है और न्यूज चैनलों की कनेक्टिविटी रोकर कर उन्हें झटका दे सकती है। जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री   उमर अब्दुल को अफजल गुरु को फांसी देने के पहले ही केंद्र सरकार ने एलर्ट कर दिया था। हंगामे की डर से अतिरिक्त सावधानी बरतते हुये उमर अब्दुला ने कश्मीर और उससे सटे इलाकों में  कर्फ्यू लगाते हुये तमाम अखबारों पर भी ‘अघोषित पाबंदी’ लगा दी। एक तरह से कश्मीर के लोगों को तीन दिन तक ‘गुफा मानव’ के रूप में तब्दील करके उन्हें उनके घर में कैद कर दिया गया। इस बाबत पूछे जाने पर केंद्र सरकार के नुमाइंदों का टका सा जवाब था कि कानूव व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मदेरी सूबे की सरकार की है। यदि सुरक्षा के लिहाज रियासती सरकार द्वारा कुछ कदम उठाए जाते हैं तो इसमें बुरा क्या है। सवाल उठता है कि सुरक्षा के नाम पर लोगों को अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार को कुचलना कहां तक जायज है? सुरक्षा की आड़ में तो पूरे देश की मीडिया को रौंदा जा सकता है। संसद पर हमले के साजिशकर्ता अफजल गुरु को फांसी देने की मांग विभिन्न हलकों द्वारा लगातार की जा रही थी, इसके बावजूद कश्मीर में एक तबका अफजल गुरु को हीरो मान रहा था। उमर फारुक को डर था कि अफजल गुरु के समर्थक कश्मीर में हंगामा खड़ा सकते हैं। अफजल गुरु की मौत से वहां अपना आधार खो जुके अलगाववादी शक्तियों को एक बार फिर बल मिल सकता है। उमर फारुक अलगाववादियों को कोई मौका देना नहीं चाहते थे। यही वजह है एहतियातन सभी अलगावादियों को नजरबंद करने के साथ-साथ घाटी में कर्फ्य लगा दिया गया और अंदर खाते अखबारों को भी इस मसले पर खामोश रहने को कहा गया। कहा यह भी जा रहा है कि कश्मीरी अखबारों के अंदर एक तबका अफजल गुरु को फांसी पर लटकाये जाने के खिलाफ था। सरकारी दबाव के बाद इन लोगों ने खुद से ही अखबारों को न निकालने का फैसला लिया। बहरहाल मामला चाहे जो हो कर्फ्यू के दौरान अपने घरों में बंद कश्मीरी बाहरी सूचना के लिए तरसते रहे। कश्मीर में अभिव्यक्ति की आजादी तो दांव पर लगी ही, लोगों को सूचना हासिल करने के अपने मौलिक अधिकार से भी वंचित होना पड़ा।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कश्मीर से निकलने वाले अधिकतर अखबारों पर आतंकी सगठनों का पहरा है। उनकी मुखालफत करने की हिम्मत वहां के अखबारों में नहीं है। यहां तक कि कश्मीर में काम करने वाले विदेशी मीडिया के प्रतिनिधि भी वहां सक्रिय आतंकी संगठनों को नाराज करने की जहमत नहीं उठाते हैं। यही वजह है कि विदेशी मीडिया द्वारा वहां सक्रिय आतंकियों को आतंकी ने कह कर चरमपंथी कहा जाता है। ऐसे में इस बात की पूरी संभावना थी कि वहां के अखबारों पर अफजल गुरु को एक शहीद के तौर पर चित्रित करने का दबाव होता और काफी हद तक इस दबाव से संचालित होकर ही वहां के अखाबरों के तमाम संस्करण निकलते। यदि ऐसा होता तो भी अखबारों पर ‘अघोषित पाबंदी’ किसी भी मायने में उचित नहीं है। कश्मीर से निकलने वाले छोटे-बड़े तमाम अखबार समय के साथ जहीन हो गये हैं। उन्हें पता है परिस्थितियों के मुताबिक अच्छी बुरी खबरों को कैसे लोगों तक पहुंचाना है। अफजल गुरु की फांसी के तीन दिन बाद तक वहां के तमाम अखबारों का बंद रहना निसंदेह अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकारों के लिए चिंता का विषय है। वैसे वहां की मुकामी हुकूमत का यही कहना है कि अपनी ओर से उन्होंने अखबारों पर किसी तरह की पाबंदी नहीं लगाई थी। अखबारों के साथ केबल टीवी को भी ठप कर दिया गया था, जिसकी वजह से लोग सूचनाओं से पूरी तरह से महरूम रहें। स्थानीय खबरों को घर-घर पहुंचाने का काम कश्मीर में केबल टीवी वाले लंबे समय से करते आ रहे हैं। इन्हें भी अघोषित रूप से बंद करने का आदेश दिया गया था। केबल टीवी में काम करने वाले तमाम लोग तीन दिन हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। उनका कहना था कि हुकूमत को डर है कि अफजल गुरु की फांसी से संबंधित खबरों को देख-सुन कर यहां के लोग भड़क उठेंगे। घाटी में प्रदर्शन तो हो रहे हैं लेकिन हम उन्हें दिखा नहीं सकते हैं। संचार क्रांति के नये युग में सोशल साइट्स अभिव्यक्ति का एक नया हथियार बनकर भले ही उभरा हो, लेकिन इसकी गर्दन सरकार जब चाहे मरोड़ सकती है। कश्मीर में इसका नमूना स्पष्ट रूप से देखने को मिला। जामर के माध्यम से इंटरनेट को भी पूरी तरह से ठप कर दिया गया था। यहां तक कि लोगों के मोबाइल फोन भी पहुंच से बाहर थे। मुल्क के दूसरे हिस्सों में रहने वाले कश्मीरी अपनी बातों को धड़ल्ले से सोशल साइटों पर शेयर कर रहे थे। अफजल गुरु की फांसी से संबंधित हर पहलू पर बेबाकी से टिप्पणी कर रहे थे और इन टिप्पणियों के पक्ष और विपक्ष में लोग प्रतिक्रियाएं भी दे रहे थे। यानि कि राष्टÑीय स्तर पर तो इस मसले को लेकर बहस मुबाहसों का दौर चल रहा था, लेकिन कश्मीरियों को इससे पूरी तरह से दूर रखा गया था, जैसे कश्मीर इस देश का हिस्सा है नहीं है। स्वस्थ्य डेमोक्रेसी की पहली शर्त है सूचनाओं का खुलकर आदान प्रदान होना। सूचनाओं के जरिये ही एक स्वस्थ्य समाज तबादला ख्याल जारी रखता है। स्थानीय हुकूमत द्वारा कश्मीर में सूचनाओं पर जिस तरह से पहरा लगाया गया उससे सचेत होने की जरूरत है। सबसे खतरनाक बात तो यह है कि कश्मीर में मीडिया के साथ जो कुछ भी हुआ है वह पूरी तरह से ‘अघोषित तौर’ पर हु्आ है। अनाधिकारिक तौर पर हुकूमत के नुमाइंदे यही कह रहे हैं कि जो कुछ भी किया गया है वह राष्टÑीय सुरक्षा को ध्यान में रखकर किया गया है। देश में स्वतंत्र प्रेस के लिए यह प्रवृति खरतनाक है। कल मरकजी सरकार भी राष्टÑीय सुरक्षा का हवाला देकर यदि मीडिया के मुंह पर लगाम लगाने की कोशिश करेगी तो क्या तमाम मीडिया वाले चुप बैठेंगे? यदि नहीं तो कश्मीर में मीडिया के दमन पर चुपी क्यों है?

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