हार्ड हिट

किसका मोहरा बन रहे हैं पहलाज निहलानी ?

फिल्मों पर शिकंजा मोदी मैकेनिज्म का हिस्सा

केंद्र में मोदी सरकार के आगमन के बाद फिल्मों को भी संस्कृतिवाद के दायरे में लाने की साजिशें शुरु हो गई है। इसका मोहरा बने हैं पहलाज निहलानी। इनकी मोदी परस्ती को देखते हुये ही इन्हें फिल्म बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया है। अपनी कुर्सी पकड़ने के बाद से ही इन पर संस्कृतिवादी एजेंडों को आगे बढ़ाने के लिए कहा जा रहा है। पूरा एजेंडा इनके हाथ में पकड़ाया गया और इनसे कहा गया है इसे लागू करें। इसके तहत इन्होंने शब्दों और मुहावरों की एक लंबी चौड़ी सूची तैयार की और फिर एक सर्कूलेशन जारी कर दी। सर्कूलेशन में कहा गया है सूची के ये सारे शब्द आपत्तिजनक हैं। अब तक जिन फिल्मों में इनका इस्तेमाल हुआ है, उससे इन्हें हटा दिया जाये और आगे इस सूची के शब्दों का इस्तेमाल किसी भी फिल्म में न किया जाये।

फिल्मों का अपना एक अंदाज है। दुनिया भर की फिल्में अपने अंदाज से जानी जाती हैं। भारतीय फिल्मों का तो अपना एक खास ही अंदाज है। अब तो इसका क्षेत्रीय स्वरूप और भी वृहतर रूप लेने लगा है। बंगाल और दक्षिण की फिल्मों को छोड़ दिया जाये तो सिर्फ भोजपूरी फिल्मों की संख्या हर वर्ष दोहरा शतक के करीब है। क्षेत्रीय फिल्मों का दायरा भी बहुत बड़ा है। स्थानीय बोली और हाव-भाव की वजह से दर्शक संख्या के आधार पर यह राष्ट्रीय स्तर की मल्टीप्लेक्स फिल्मों पर भी भारी पड़ रही है। कहना होगा कि पहलाज निहलानी की नजर फिल्मों के विकास के इस दायरे पर नहीं है। गौरतलब है कि फिल्मों का विकास एक स्वस्फुर्त प्रक्रिया है। दादा साहेब फालके से लेकर, गुरुदत्त देवानंद, राजकपूर, मनमोहन देसाई, रामगोपाल वर्मा व अनुराग कश्यप जैसे फिल्म मेकरों का एक लंबा सिलसिला है। फिलहाल तो इस सूची के आधार पर इस सिलसिलापर कैंची चलाने की कुख्यात साजिश का यह एक हिस्सा तो है ही आने वाली फिल्मों को भी क्रिएटिव प्रिगनेंसी से दूर करने का दुस्साहस भी है। फिल्मों को किसी खास नजरिये से नहीं देखा जा सकता है, इसकी पहली शर्त है लोकलुभावन हो। जैसा कि, डर्डी पिक्चर में कहा भी गया था, फिल्में सिर्फ तीन बातों से चलती हैं, एनटरटेनमेंट, एनटरटेनमेंट और एनटरटेनमेंट। फिल्मों की पहली शर्त है आडियेंस खींचना और उनकी जेबें ढिली करना। किसी जमाने में नायिका के लिए लड़कियां नहीं मिलती थी, तो लड़कों को ही नायिका की भूमिका निभानी पड़ती थी। देश की सामाजिक बुनावट हमेशा से फिल्मों के खिलाफ रही है इसलिए सरकार ने इसको गढ़ने के प्रति उदासीन बनी रही। हालांकि वैजयंती माला, नर्गिस, सुनील दत्त, राज बब्बर, अमिताभ बच्चन, शत्रुधन सिन्हा, हेमा मालिनी, जय प्रदा जैसे    लोकप्रिय फिल्मी चेहरों का सियासत में आना-जाना रहा है। ये लोग पर्दे पर दर्शर्कों का एनटरटेनमेंट का भूख मिटाते रहे हैं। इनके और इनकी फिल्मों की सफलता का राज भी यही है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भारतीय फिल्म को बहुत मेहनत से समृद्ध किया गया है। अब संस्कृतिवाद की सनक में आकर अचानक इस पर कैंची चलाने का क्या परिणाम हो सकता है इसे सहजता से समझा जा सकता है। और यह तो अभी शुरुआत मात्र है, आगे और भी कई सर्कूलर आ सकते हैं। बोर्ड का अध्यक्ष होते हुये अभी तो पहलान निहलानी को शायद पूरे भारतीय फिल्मों का संस्कृतिवाद के नाम पर ठोंकने पीटने का फरमान मिला हुआ है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि उन्हें इस कुर्सी पर इसी शर्त पर बैठाया गया है। और इन एजेंडो को लागू करने के लिए वो एड़ी-चोटी की जोड़ लगाये हुये हैं।

फिल्मों की भाषा बदली है, इसमें दो राय नहीं है। ऐसा इसलिए है कि समाज की भाषा बदली है। नेट का जमाना आ गया है। लिखे जो खत तुझे, वो तेरी याद में जैसे गीतों के लिए पृष्ठभूमि खत्म हो चुकी है। एसएमएस मैसेज ने खतों को गटर में ढकेल दिया है। समाज का तौर तरीका बदला है, और फिल्म मेकिंग का स्टाइल भी पोयटिक लैंड छोड़कर रियलिस्टिक स्टफ पर आ गई है। ऐसे में अब तक छप्पन जैसी फिल्मों में कोई पुलिस अधिकारी पर्दे पर चलंत गालियां का इस्तेमाल करता है  तो उसे रियलिस्टिक तरीके से दिखाने में क्या नुकसान है ? क्या इससे समाज और गंदा होगा ? लोग गालियां सीखेंगे ?  साहित्य की तरह फिल्म भी समाज का दर्पण है। इसका अपना लैंग्वेज है। उसके विकास को अवरुद्ध करने का किसी भी सरकार या बोर्ड के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है। और कोई इस पर यदि जबरदस्ती कुल्हाड़ी चलाये तो निश्चिततौर पर उसे रोका जाना चाहिए। पहलाज निहलानी अब यही काम कर रहे हैं।

वैसे खबर आ रही है कि फिल्म बोर्ड की एक बैठक में दूसरे मेंबरानों ने उनकी अच्छी खबर ली है। उन्हें गरमा गरमा बहस में हर तरह से समझाने की कोशिश की गई है कि यह एक फिल्म मेकर की स्वतंत्रता क्रियटिव लिबर्टी के खिलाफ है। प्रोड्यूसर विधु विनोद चोपड़ा ने इस खतरे के प्रति आगाह करते हुये कहा है कि यदि इसके खिलाफ आवाज बुंलद नहीं की गई तो शीघ्र ही ऐसा दिन आएगा जब हम थियेटर में फिल्म दिखाने के बजाये चेतावनी देते नजर आएंगे।

इस बात में दो राय नहीं है कि भारतीय फिल्मों के इतिहास में भारत का सरकार का योगदान न के बराबर है। आज जिसे फिल्म इंडस्ट्री कहा जा रहा है वह सरकारी मापदंड पर इंडस्ट्री है ही नहीं। भारत में फिल्मों का विकास व्यक्ति विशेष के प्रयत्नों से हुआ है। यही वजह है कि यहां फिल्म स्कूल की परंपरा रही है। अलग-अलग मेकरों ने अलग-अलग तरह की शैलियां विकसित की है। यह सच है कि पहले के फिल्म मेकरों का सौंदर्य पक्ष ज्यादा मजबूत होता था। आजादी के पहले की ब्लैक व्हाइट फिल्मों को भी अपना एक औरा था। सशक्त कहानी और अपटूडेट डॉयलाग के साथ-साथ प्रेजेंटेशन पर खासा ध्यान दिया जाता था। अंग्रेजों द्वारा सेंसर बोर्ड बनाने का मुख्य उद्देश्य देश में बनने वाली विद्रोही फिल्मों को रोकना और अंतरराष्ट्रीय मंच पर एलाएय पावर के पक्ष में इसका इस्तेमाल करना था। अब उस दौर से फिल्म इंडस्ट्री काफी आगे निकल चुका है। नये नये आइडिया के साथ नये नये मेकर आ रहे हैं, और नई-नई तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं। भले ही खुदा होने वाला इश्क आज कुत्ता हो गया हो, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आज भारतीय फिल्म हाई एक्सपेरिमेंटल दौर से गुजर रही है, ऐसे में नैतिकता के नाम कैंची चलाने का नकारात्मक प्रभाव तो फिल्म पर पड़ेगा ही। इसके अलावा एक और बहुत बड़ा खतरा है फिल्मों को एक खास दिशा में रेग्यूलेट किये जाने का। बेशक देश में जारी सांस्कृतिवाद को ढोने के लिए यह मोदी मैकेनिज्म का एक हिस्सा है।

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