साहित्य में पलायन का दर्द-भाग 3

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करिके गवनमा भवनमा में छोरि के
अपने पड़इले पूरबवा बलमुआ
अंखिया से दिन भर गीरे लोर ठर ठर
बटिया जोहत दिन बीतेला बलमुआ……

पलायन के आगोश में दुखों का अंबार रहता है। ये किसी का दिल दहलाने के लिए काफी है…….. फिर कवि ह्रदय क्यों न चीत्कार करे। बिहार के साहित्य में पलायन का दर्द रह रह कर झांकता रहा है। इसमें मुरझाए चेहरों के पोर पोर से उभरते दर्द हैं….विरह की वेदना है….साथ ही जिम्मेदारिओं के बोझ से जूझते अफ़साने हैं। जब कोई व्यक्ति घर-बार छोर कमाने निकलता है तो भावनात्मक उफान और गृहस्थी चलाने की विवशता का असर सबसे ज्यादा उसकी पत्नी पर पड़ता है। आज की कवितायेँ हों या पुराने कवियों के पद….परदेस जाने की कसक फूट पड़े हैं। भिखारी ठाकुर और विद्यापति के पदों में पलायन की पीड़ा के सूक्ष्म आयाम आज भी विचलित करने की क्षमता रखते हैं।

सुखल सर सरसिज भेल झाल
तरुण तरनि तरु न रहल हाल
देखि दरनि दरसाव पताल………

विद्यापति के इस पद में अकाल का वर्णन है। रौदी की वजह से तालाब सूख रहे हैं…. पल्लव सूख गए हैं…..खेतों में दरार आ गया है। ऐसे में गृहस्थी कैसे चले….परदेस तो जाना ही पड़ेगा। पत्नी घबराती है कि सुख तो जाएगा ही साथ ही परदेस जाकर पति कहीं उसे भूल न जाए। विद्यापति के एक पद में ये दुविधा है….

माधव तोंहे जनु जाह विदेसे
हमरो रंग- रभस लय जैबह लैबह कोण सनेसे ………
एक और पद देखें—-
हीरा मनि मानिक एको नहि मांगब
फेरि मांगब पहु तोरा …….

बावजूद इसके जब पति पत्नी से विदेस जाने की अनुमति माँगता है तो पत्नी मूर्छित हो जाती है। ये पद देखें…

कानु मुख हेरइते भावनि रमनि
फूकरइ रोअत झर झर नयनी
अनुमति मंगिते वर विधु वदनी
हर हर शबदे मुरछि पडु धरनी ……..

भाव-विह्वल पति जब रात में सोई हुई पत्नी को जगा कर विदेस जाने की सूचना देता है तो पत्नी घबरा कर उठती है….. लेकिन अपना गम पीकर पति की यात्रा मंगलमय बनाने के लिए विधान में लग जाती है । देखें ये पद –

उठु उठु सुन्दरि हम जाईछी विदेस
सपनहु रूप नहि मिळत उदेश
से सुनि सुन्दरि उठल चेहाई
पहुक बचन सुनि बैसलि झमाई
उठैत उठलि बैसलि मन मारि……

लेकिन पत्नी इतनी विकल है कि पति के लिए मंगल तिलक लाने की जगह एक हाथ में उबटन और दूसरे हाथ में तेल ( जो कि यात्रा के समय अशुभ माना जाता है ) ले आती है। देखें ये पद —–

एक हाथ उबटन एक हाथ तेल पिय के नमनाओ सुन्दरि चलि भेलि ……..

पति जा चुका है….पत्नी व्यथित है… भिखारी ठाकुर के पद में इस मनोभाव को महसूसें—-

पिया मोर गईले परदेस ए बटोही भैया
रात नहि नींद दिन तुनीना चैन बा
चाहतानी बहुत कलेश ए बटोही भैया …….

पत्नी चाहती है कि वो सारे सुख त्याग दे लेकिन उसका पति लौट आये । कवि रवींद्र का एक गीतल देखें—

हम गुदरी पहीरि रहि जेबै
हमरा चाही ने रेशम के नुआ
हमर सासु जी के बेटा दुलरूआ
कतेक दिन रहबै यौ मोरंग में
आम मजरल मजरि गेलै महुआ
हे यौ सपने मे बीति गेलै फगुआ
हमर बाबूजी के कीनल जमैया
कतेक दिन रहबै यौ मोरंग में ……

रोना धोना छोड़ पत्नी घर की जिम्मेदारिओं मे रत हो जाती है। समस्याएँ फुफकारती हैं। भिखारी ठाकुर का एक पद बड़ा ही मार्मिक है —–

गंगा जी के भरली अररिया
नगरिया दहात बाटे हो
गंगा मैया, पनिया में जुनिया रोअत बानी
कंट विदेस मोर हो …..

घरेलू समस्याएँ सुलझाते सुलझाते वो न जाने कब पति की जिम्मेदारी ओढ़ लेती है …. इस काम मे वो इतनी मग्न है कि अपने आप को पति समझने लगती । अचानक से उसे भान होता कि वो तो नारी स्वभाव ही भूल गई। विद्यापति का इस अहसास का वर्णन दुनिया भर में अन्यतम माना जाता है—–

अनुखन माधव माधव सुमिरैत सुन्दरि भेल मधाई
ओ निज भाव स्वभावहि बिसरल अप्पन गुण लुब्धाई
अनुखन राधा राधा रटतहि आधा आधा वानि
राधा सौं जब पुन तहि माधव माधव सों जब राधा
दारुण प्रेम तबहु नहि टूटत बाढ़त विरहक बाधा …….

विपत्ति कम होने का नाम नहीं लेती …उसके ह्रदय का हाहाकार विद्यापति के इस पद मे देखें—

सखि हे हमर दुखक नहि ओर
ए भर बादर माह भादर
शून्य मंदिर ओर …..

अब वो मरना चाहती है …… सखि से कहती है कि उसमे व्याप्त पति के गुण निधि किसे सौप कर जाए —-
मरिब मरिब सखि निश्चय मरिब
कानु हेन गुण निधि कारे दिए जाब …..

1 COMMENT

  1. @Markus I get your drift on where you were going there. I often think of my past and use it as a means to analyze where I am and where I want to get to. Where I struggel is balancing it all out. How do you guys balance things out?

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