कोलगेट पर ‘चेक एंड बैलेंस’

0
30
17वीं शती में फ्रांसीसी विचारक मांटेस्क्यू ने अपने शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत में राज्य की शक्तियों को तीन भागों में विभाजित करने की बात की है। उस वक्त यूरोप के राजतंत्रवादी व्यवस्था में शक्ति सिर्फ एक व्यक्ति के हाथ में केंद्रित थी। कानून बनाने, जांच करने और सजा सुनाने का अधिकार सिर्फ राजा के पास होता था। राजा सर्वेसर्वा था। मांटेस्क्यू ने राज्य की शक्ति को किसी एक व्यक्ति हाथ में केंद्रित न करते हुये उसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में विभाजित करने की दलील दी ताकि निरंकुशता के लिए कोई गुंजाईश न रहे। इसके साथ ही उसने ‘चेक एंड बैलेंस’ के सिद्धांत का भी प्रतिपादन किया, जिससे राज्य के तीनों महत्वपूर्ण घटक एक दूसरे की निरंकुश प्रवृतियों की रोकथाम करते रहे। ‘कोलगेट’ मसले पर भारत में जिस तरह से कार्यपालिका द्वारा शक्ति का दुरुपयोग किया जा रहा है और जिस तरह से न्यायपालिका सीबीआई को दिशा निर्देश देते हुये उसे सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने के लिए फटकार रही है, उससे भले ही केंद्र सरकार की फजीहत हो रही हो, लेकिन इससे देश में जनतंत्र और जनतांत्रिक संस्थाओं की जड़ें और मजबूत हो रही हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि मुल्क में ‘कोल ब्लॉक’ का जबरदस्त बंदर बांट हुआ है। इस बंदरबांट की आंच प्रधानमंत्री कार्यालय को भी अपने दायरे में समेटे हुये हैं क्योंकि प्रधानमंत्री कार्यालय से कोल ब्लॉक के आवंटन को लेकर सीधे निर्देश दिये गये थे। अपनी रपट में सीएएजी ने सिलसिलेवार तरीके से उन बिंदुओं को रेखांकित किया था, जिसके तहत कोयले की लूट खसोट के एक बड़े कारनामे को व्यवस्थित तरीके से अंजाम दिया गया। सीएजी की रपट से मचे बवाल के बाद ही इस प्रकरण की जांच की जिम्मेदारी सीबीआई को सौंपी गई थी। ऐसा माना जाता है कि सैद्धांतिक और व्यावहारिक तौर पर सीबीआई कार्यपालिका का ही एक हिस्सा है और कार्यपालिका में मौजूद लोग यह कतई नहीं चाहते थे कि उनकी पोल पट्टी खुले अत: उन्होंने सीबीआई की जांच रिपोर्ट से खुलकर छेड़छाड़ करते हुये रिपोर्ट में मनोनुकूल फेरबदल करने से गुरेज नहीं किया। यही बात अदालत को नागवार लगी। अदालत ने पहले से ही हिदायत दे रखी थी कि सीबीआई अपनी जांच रपट सरकार के पास न भेजे। सीबीआई के निदेशक रंजीत सिन्हा ने कबूल किया है कि सीबीआई स्वायत्त संगठन नहीं है और कोयला घोटाले पर रिपोर्ट किसी बाहरी व्यक्ति को नहीं दिखाई गई थी। रिपोर्ट सिर्फ कानून मंत्री अश्विनी कुमार को दिखाई गई थी। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या दुनिया की कोई भी सरकार कभी यह चाहेगी कि उसके अधीन कोई जांच संस्था किसी मसले पर उसके खिलाफ रिपोर्ट दे? कतई नहीं। और कोलगेट प्रकरण में यही हुआ भी। आरोप है कि कानून मंत्री अश्विनी कुमार ने खुद ही सीबीआई की जांच रिपोर्ट में व्यापक तब्दीली की।
जहां तक सियासी दलों का सवाल है तो इस संबंध में एक राजनीतिक चिंतक ने कहा है कि तमाम सियासी दल ‘लीगल गैंग’ के रूप में काम करते हैं। किसी भी सियासी दल को सत्ता में आने के लिए जोरदार मशक्कत करनी पड़ती है। और इस प्रक्रिया में वे हर उस हथकंडे का इस्तेमाल करते हैं, जिसकी जरूरत अमूमन सत्ता में आने के लिए होती है। सत्ता में काबिज होने के लिए सियासी दलों के साथ जुड़े हुये लोग अपनी पूरी ताकत इसलिए लगाते हैं कि सत्ता में आने के बाद उन्हें मनचाहा लाभ मिल सके और व्यावसायिक स्तर पर वे अपने आप को समृद्ध कर सकें ताकि आगे की खींचतान में धन की कमी न हो। सत्ता की खेल की यह एक सतत प्रक्रिया है। कोल ब्लॉक आवंटन के मसले को भी इसी नजरिये से देखने की जरूरत है। बोली लगाये बिना जिस तरह से सियासी लोगों और उनके रिश्तेदारों के बीच कोल ब्लॉक का बंदरबांट हुआ है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि कार्यपालिका की शक्ति का इस्तेमाल सियासतदानों ने अधिकतम आर्थिक लाभ हासिल करने के लिए किया है। यदि सीएजी ने इस ओर ध्यान नहीं दिलाया होता और न्यायपालिका की चौकस निगाह इस पर नहीं होती तो निस्संदेह पूरे मामले की लीपापोती कब की हो गई होती। पूरे प्रकरण में न्यायपालिका ‘चेक और बैलेंस’ की भूमिका बेहतर तरीके से निभा रही है।
जब दूध की रखवाली की जिम्मेदारी बिल्ली को सौंप दी जाएगी तो दूध का क्या होगा, इसका अनुमान सहजता से लगाया जा सकता है। कोलगेट प्रकरण में अदालत की चिंता भी यही थी। यही वजह है कि अदालत यह कतई नहीं चाहती थी कि सीबीआई अपनी जांच रिपोर्ट सरकार के सामने रखे। एडिशनल सॉलिसिटर जनरल हरीन रावल ने पहले अदालत से कहा था कि सीबीआई जांच रिपोर्ट किसी के सामने नहीं रखी गई है। लेकिन बहस के दौरान ही अदालत को शुबहा हुआ कि इस मामले में जरूर कुछ गड़बड़ है और उसने सीबीआई प्रमुख रंजीत सिन्हा को हलफनामा दायर करके स्थिति स्पष्ट करने को कहा। अपने हलफनामे में रंजीत सिन्हा ने स्वीकार किया कि स्टेटस रिपोर्ट का मसौदा कानून मंत्री अश्विनी कुमार, प्रधानमंत्री कार्यालय और कोयला मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों को दिखाया गया था। रंजीत सिन्हा के हलफनामा से सरकार की मंशा पर तो सवाल खड़े होते ही हैं, इस तरह के मामले की जांच को लेकर खुद सीबीआई की भूमिका भी संदिग्ध हो जाती है। फिलहाल विरोधाभाषी दावों की वजह से हरीन रावल को इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा है और इसके साथ ही सीबीआई की विश्वसनीयता भी दरक गई है।
अदालत ने यह सवाल उठाया है कि क्या कानून मंत्री को सीबीआई की जांच रिपोर्ट देखने का अधिकार है? इसके साथ ही अपनी तल्ख टिप्पणी में सीबीआई को कहा है कि उसे राजनीतिक आकाओं से आदेश लेने की जरूरत नहीं है। वैसे देश में आम लोगों के बीच सीबीआई की छवि पूरी तरह से सरकार परस्त एजेंसी की तरह है। कहा तो यहां तक जाता है कि केंद्र सरकार अपने राजनीतिक विरोधियों को उनकी औकात में रखने के लिए भी सीबीआई का इस्तेमाल जमकर करती है। आम धारणा यही है कि मुलायम सिंह यादव और मायावती, जो एक दूसरे के   धुर विरोधी हैं, सीबीआई के इस्तेमाल की वजह से से ही केंद्र में सरकार को समर्थन देने के लिए बाध्य हैं। इसमें सच्चाई चाहे जो हो लेकिन सियासतदानों के मसलों को लेकर सीबीआई की जांच की मकबूलियत घटी है। कोलगेट मसले पर सुनवाई के दौरान अदालत ने साफ तौर पर कहा है कि हमारी पहली प्राथमिकता है सीबीआई को राजनितिक दखल से मुक्त करना। यह इतना बड़ा विश्वासघात है,जिसने पूरी नींव को हिलाकर रख दिया है। अदालत की इस फटकार के बाद सीबीआई की चाल चलन में कोई आमूल चूल सुधार आएगी कह पाना मुश्किल है,क्योंकि कार्यपालिका यानि केंद्र सरकार यह कभी नहीं चाहेगी कि उसके हाथ से एक अहम हथियार निकल जाये।
कोई भी संगठन व्यक्ति विशेष द्वारा ही संचालित होता है। यह एक तल्ख सच्चाई है कि कार्यपालिका की तमाम आनुषांगिक संगठनों को चलाने के लिए सभी आधिकारिकनॉर्म्स का पालन करते हुये जिस तरह से व्यक्तिगत पसंद या नापंसद के आधार पर सटीक व्यक्ति विशेष का चयन सत्ताधारी दल द्वारा किया जाता है वह पूरी तरह से सरकार को हमेशा ‘कंम्फरटेबल जोन’ में रखने की भावना से प्रेरित होती है। ऐसे में कहा जा सकता है कि ‘सीबीआई की स्वतंत्रता’ पूरी तरह से एक ‘यूटोपियाई परिकल्पना ’ही साबित होगी। वैसे फिलहाल अदालत की तल्खी कार्यपालिका के साथ  ‘चेक और बैलेंस’ के एक्सरसाइज के रूप में देखा जा सकता है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here