अंग्रेजी और अंग्रेजों के शासन में जी रहे हैं हम

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चंदन कुमार मिश्र

एक वेबसाइट है भारत सरकार की। प्रकाशन विभाग आता है सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत उसी की बात कर रहा हूं। मैं पिछले दो-तीन वर्षों से इस साइट पर जाकर भारत 2008, 2009, 2010 तक किताब डाउनलोड करता था। लेकिन इस बार इण्डिया 2011 वह भी बहुत ही घटिया रूप में सिर्फ़ कुछ पन्नों में उसकी झलक दिखायी गई है, तो बहुत देर के बाद आ गयी है लेकिन भारत 2011 का अभी तक कोई अता-पता नहीं। हमारे प्रधानमंत्री और लगभग सारे मंत्री अंग्रेजों की मानस संतानें हैं। शायद इसलिये ऐसा हो रहे हैं कि जो किताब साल के शुरु में ही आ जाती थी वह आज तक इस साल में 60 दिन बीत जाने पर भी नहीं आयी है। और मुझे लगता भी नहीं कि आयेगी। हमारी सारी सरकारें खासकर वर्तमान सरकार अंग्रेज लोगों से भरी पड़ी है। प्रधानमंत्री को साल में एक दो बार ही आप हिन्दी और पंजाबी बोलते सुन पायेंगे। हमारे देश में एक और इतिहास है कि एक ऐसे आदमी को जिसे भारत की 80 करोड़ से भी ज्यादा जनता बोल सकती है, समझ सकती है ऐसी भाषा नहीं जानने वाले को राष्ट्रपति बनाकर भारत का प्रतिनिधि बनाया जाता है। शायद ही किसी देश में ऐसा हुआ हो कि एक राष्ट्राध्यक्ष अपनी राष्ट्रभाषा जानता ही नहीं हो।

बात यहीं तक नहीं है। लोकसभा में जब किसानों पर या आम आदमी पर गलती से भी कभी बहस हो गयी तब सारी बहस लगभग अंग्रेजी में ही होती है। किसान कितनी अंग्रेजी जानते हैं, सब समझते होंगे या जानते होंगे। हमारे बिहार राज्य के एक महापुरुष हैं – सुशील कुमार मोदी। उन्होंने कुछ महीने पहले एक बात कही थी कि पहले वे लोग अंग्रेजी के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे अब अंग्रेजी के पक्ष में आंदोलन करने की जरुरत है। धन्य हैं ऐसे प्राणी। हमारे सभी नेताओं, मंत्रियों को सिर्फ़ 14 सितम्बर को हिन्दी की याद आती है। अखबारों में विज्ञापन आते हैं, शुभकामनाएं दी जाती हैं, शपथ लिए जाते हैं कि आज से हम ज्यादा से ज्यादा काम (सारे नहीं) हिन्दी में करेंगे। मुख्यमंत्री महाशय किसी-किसी कार्यक्रम में भी शिरकत करते नजर आते हैं, कभी दिनकर के नाम पर तो कभी शिवपूजन सहाय के नाम पर। लेकिन जैसे ही वे एक किताब लिखते हैं या लिखाते हैं पता नहीं, अंग्रेजी में लिखते हैं क्योंकि उसदिन 14 सितम्बर नहीं होता।

बातें तो बहुत हैं इस बारे में लेकिन अभी नहीं बाद में कभी जम कर इस पर लिखेंगे और बात करेंगे। चलते चलते एक-दो छोटी-छोटी बातें सुन लीजिए। बान की मून संयुक्त राष्ट्र के महासचिव होकर भी कोरियाई में भाषण देते हैं। अधिकांश विदेशी नेता अपनी भाषा में कहते, लिखते देखे जाते हैं लेकिन हमारे देश के महान लोग वाकई में विद्वान हैं, खाते हैं, बोलते हैं, लिखते हैं, पढ़ते हैं अंग्रेजी में ही। एक महान आत्मा हैं लालकृष्ण आडवाणी, हिन्दुओं, हिन्दुत्व की खूब बात करनेवाले आत्मकथा लिखते हैं तो अंग्रेजी में और यशवंत सिंह भी लिखते हैं तो अंग्रेजी में।

इसी बीच एक ऐसे आदमी के बारे में जो निश्चय हि संसार के सबसे बड़े विद्वानों में से एक होगा- राहुल सांकृत्यायन। इस आदमी के बारे में इतना ही कहना काफी होगा। ये सारे नेता और मंत्री मिलकर जितना जानते होंगे उससे ज्यादा ये आदमी जानता होगा। जेल में बंद रहकर भी एक से एक ऐतिहासिक ग्रंथ इसने लिखे। भाषाएं इतनी जानता था जितनी ये नेता और मंत्री मिलकर भी उतनी नहीं जानते होंगे। संख्या देने की जरुरत ही नहीं है। लेकिन इस आदमी की सारी किताबों में कुछ ही किताबें अंग्रेजी में होंगी। मतलब राहुलजी ने अंग्रेजों के जमाने में रहकर भी किताबें अंग्रेजी में नहीं लिखीं। इनके किताबों की संख्या 150 के करीब है। इसमें दस किताबें भी अंग्रेजी में नहीं होंगी। 100 से ज्यादा हिन्दी में ही होंगी। याद रखें किताबों की संख्या न कि भाषणों को लिखकर छापी जाने वाली किताबें। विषय भी अलग-अलग। कभी मार्क्स पर कभी इस्लाम पर तो कभी पूरे विश्व के दर्शन पर, कभी नाटक, कभी उपन्यास, कभी भाषा पर, कभी इतिहास पर, कभी विज्ञान पर कलम चलाने वाले इस आदमी ने संसार के कई देशों की यात्राएं की थीं। अंतिम बात ध्यान रखें इस आदमी का अंग्रेजी ज्ञान कितना रहा होगा मैं नहीं जानता। पर ये जरुर कह सकता हूं कि सभीं नेताओं, मंत्रियों यहां तक कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और राज्यपाल तक सभी को हजारों क्लास दे सके इतना तो वह व्यक्ति जानता होगा।

एक महान आत्मा हैं जवाहरलाल नेहरु। अपनी बेटी को पत्र से लेकर भारत का इतिहास तक अंग्रेजी में लिखते थे।

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

4 COMMENTS

  1. It’s the fact sir and any how we have to accept this bitter truth that eng. has overtaken hindi in every field. If hindi is our mother tongue then we have to say that eng. is global tongue

  2. चिक्कु जी,
    अभी इतने से ही मत घबड़ाइए। अभी तो जमकर इस पर लिखना है। मैं खुद 2005 से 2010 तक अंग्रेजी माध्यम से पढा हूं। पर अंग्रेजी का मोह ज्यादा कभी नहीं रहा। ग्लोब सिर्फ़ 10-12 देश नहीं हैं। अंग्रेजी की आवश्यकता थोपी हुई है। यह हमारी जरुरत शायद ही है। थोड़ा इंतजार करें फिर इस विषय पर ज्यादा कहूंगा। अब एक ऐसे आदमी के बारे में बता रहा हूं जो फ्रांस में वैज्ञानिक भी रहा है। यह लिंक दे रहा हूं, इसे सुनने की कृपा करें। मुझे किसी भी भाषा से किसी तरह की नफरत नहीं है। लेकिन इस विषय पर अच्छा व्याख्यान है उनका। http://www.tulsimanasmandir.org/Angrejee_Bhasha_Ki_Gulaami.mp3 यह फाइल डाउनलोड करें। फिर थोड़ा सोचें।
    चंदन कुमार मिश्र

  3. सर मैं ये नहीं कह रहा कि ये हमारी जरुरत है । मै ये कह रहा हुँ कि ये हमारी मजबूरी है । Leave other countries go to south india people don’t understand hindi there but they understand eng.

  4. पहली बात ये कि मैं सर नहीं हूं भाई। एक मामूली आदमी हूं। आपके अनुसार ये हमारी मजबूरी है। इतना तो आप समझते ही होंगे कि एक मजबूर आदमी कमजोर होता है। कमजोर होना कोई गुनाह नहीं हैं। लेकिन कमजोरी जानने के बाद भी कमजोर बने रहना निश्चय ही बहादुरी तो नहीं है। अगर मैं कमजोर हूं तो मेरा फर्ज और सबसे बड़ी जरुरत है इसे दूर करना। मान लीजिए कि आपसे एक ग्लोबल आदमी कहता है मैं तुम्हें बहुत पैसे दूंगा, संसार में तुम्हें प्रसिद्ध बना दूंगा, नोबेल और आस्कर पुरस्कार दिला दूंगा तो क्या मजबूर होकर हम भगतसिंह या अन्य शहीदों की तस्वीरों पर थूक देंगे! यह सोचना भी बहुत बड़ा अपराध है। मैं उनके अरबवें हिस्से में भी नहीं आ सकता। इस देश को बचाने के लिए उन्होंने क्या क्या किया सब जानते हैं। लेकिन क्या हमें अपनी मजबूरी में इतना कृतघ्न बन जाना चाहिए कि उनके आदर्शों और सपनों को कचरे के ढेर में फेंककर हमेशा के लिए छोड़ देना चाहिए। क्या मैं ये जान सकता हूं कि अंग्रेजों के आने से पहले हम अपने देश में कैसे बातचीत करते थे। यानि उस समय कोई भी आदमी दक्षिण भारत की न तो यात्रा करता होगा न ही कुछ समझता होगा। ये बात आपको मानने लायक लगती है? थोड़ी प्रतीक्षा करेंगे तब इसपर ज्यादा लिखूंगा, पहले भी कह चुका हूं। आपने इस आलेख को पढा । इसके लिए शुक्रिया। मैंने जो लिंक दिया है उसे सुनने का कष्ट करें। और आखिरी बात। अगर अंग्रेजी के बिना हमारा काम नहीं चल सकता तो हमें खुद पर शर्म आनी चाहिए। अंग्रेजी हमारी मजबूरी और जरुरत कुछ अंग्रेजों की मानस संतानों द्वारा बनायी गयी है, न कि असल में है। और अगर हम अंग्रेजी के बिना काम नहीं चला पायें और तकनीकी और विज्ञान में पिछड़ जाएं तो हमें इसका ज्यादा दुख नहीं होगा लेकिन लगभग 90 करोड़ लोग चैन से पेट भर खा सकें, थोड़ी सी चैन की नींद ले सकें, चैन से छत के नीचे रह सकें तो हमें यह प्रगति अपनी तकनीकी प्रगति से खरबगुना ज्यादा सकून दे सकेगी, ऐसा मेरा मानना है। और अंत में एक बहुत ही जरुरी बात। अगर दक्षिणी लोग अंग्रेजी सीखकर हमसे सम्पर्क करते हैं तो हिन्दी सीखकर क्यों नहीं। एक बात से तो आप भी जरुर सहमत होंगे कि कोई भी आदमी मां के पेट से भाषाएं सीखकर नहीं आता, चाहे वह मातृभाषा ही क्यों न हो। आप, मैं या कोई भी हिन्दी जन्म से नहीं जानते न ही घर में बोली जानेवाली भाषा ही हम जन्म से जानते हैं। फिर अंग्रेजी ही क्यों हमारे सम्पर्क का जरिया बने। आखिर जब सीखनी ही है तब हिन्दी क्यों नहीं। दूसरा तर्क जो दिया जाता है कि अंग्रेजी हिन्दी से आसान है और इसे जल्दी सीखा जा सकता है। मैं दावा करता हूं कि कोई भी भारत का रहनेवाला अगर इस बात को साबित कर दे तो मैं उसे मान लूंगा। मैं साबित कर सकता हूं कि अंग्रेजी से आसान हिन्दी है, है और है।
    चंदन कुमार मिश्र

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