जाति मिटे तो गरीबी हटे

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डॉ. वेदप्रताप वैदिक

                 जातीय गणना के इरादे को देश सफल चुनौती दे रहा है| जबसेसबल भारतनेमेरी जाति हिंदुस्तानीआंदोलन छेड़ा है, इसका समर्थन बढ़ता ही चला जा रहा है| देश के वरिष्ठतम नेता, न्यायाधीश, विधिशास्त्री, विद्वान, पत्र्कार, समाजसेवी और आम लोग भी इससे जुड़ते चले जा रहे हैं| इसमें सभी प्रांतों, भाषाओं, जातियों, धर्मों और धंधों के लेाग है| ऐसा नहीं लगता कि यह मुट्रटीभर बुद्घिजीवियों का बुद्घि-विलास भर है|

                दूसरी खुशी यह है कि जो लोग हमारे आंदोलन का विरोध कर रहे हैं, वे भी यह बात बराबर कह रहे हैं कि वे भी जात-पांत विरोधी हैं| वे जन-गणना में जाति को इसीलिए जुड़वाना चाहते हैं कि इससे आगे जाकर जात-पांत खत्म हो जाएगी| कैसे खत्म हो जाएगी, यह बताने में वे असमर्थ हैं| जातीय जन-गणना के पक्ष में जो तर्क वे देते हैं, वे इतने कमज़ोर हैं कि आप उनका जवाब दें तो भी वे अपने आप ही गिर जाते हैं| फिर भी उन सज्जनों के साहस की दाद देनी होगी कि वे जातिवाद की खुले-आम निंदा कर रहे हैं|

                जन-गणना में जात को जोड़ना ऐसा ही है, जैसे बबूल का पेड़ बोना और उस पेड़ से आम खाने का इंतजार करना ! हर व्यक्ति से जब आप उसकी जात पूछेंगे और उसे सरकारी दस्तावेजों में दर्ज करेंगे तो क्या वह अपनी जात हर जगह जताने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा ? उसकी व्यक्तिश: पहचान तो दरी के नीचे सरक जाएगी और उसकी जातिश: पहचान गद्रदी पर जा बैठेगी| क्या पाठशाला-प्रवेश, क्या नौकरी, क्या पदोन्नति, क्या यारी दोस्ती, क्या काम-धंधा, क्या राजनीति, क्या सामाजिक-जीवन सभी दूर लोगों को क्या उनकी जात से नहीं पहचाना जाएगा और क्या वही उनके अस्तित्व का मुख्य आधार नहीं बन जाएगी ? आज भी जात खत्म नहीं हुई है| वह है, लेकिन उसका दायरा शादी-ब्याह तक सिमट गया है| अब दफ्तर, रेल, अस्पताल या होटल में कोई किसी की जात नहीं पूछता| सब सबके हाथ का खाना खाते हैं और शहरों में अब शादी में भी जात के बंधन टूट रहे हैं| यदि जन-गणना में हम जात को मान्यता दे देंगे तो दैनंदिन जीवन में उसे अमान्य कैसे करेंगे ? जन-गणना में पहुंचकर वह घटेगी या बढ़ेगी ?

                शादी के अलावा जात अगर कहीं जिंदा है तो वह राजनीति में है| जब राजनीतिक दलों और नेताओं के पास अपना कोई शानदार चरित्र् नहीं होता, सिद्घांत नहीं होता, व्यक्तित्व नहीं होता, सेवा का इतिहास नहीं होता तो जात ही उनका बेड़ा पार करती है| जात मतदाताओं की बुद्घि हर लेती है| वे किसी भी मुद्दे का निर्णय उचित-अनुचित या शुभ-अशुभ के आधार पर नहीं, जात के आधार पर करते हैं| जैसे भेड़-बकरियां झुंड में चलती हैं वैसे ही मतदाता भी झुंड-मनोवृत्ति से ग्रस्त हो जाते हैं| दूसरे अर्थों में राजनीतिक जातिवाद मनुष्यों को मवेशी बना देता है| क्या यह मवेशीवाद हमारे लोकतंत्र् को जिंदा रहने देगा| जातिवाद ने भारतीय लोकतंत्र् की जड़ें पहले से ही खोद रखी हैं| अब हमारे जातिवादी नेता जन-गणना में जाति को घुसवाकर हमारे लोकतंत्र् को बिल्कुल खोखला कर देंगे| जैसे हिटलर ने नस्लवाद का भूत जगाकर जर्मन जनतंत्र् को खत्म कर दिया, वैसे ही हमारे जातिवादी नेता भारतीय लोकतंत्र् को तहस-नहस कर देंगे| नस्लें तो दो थीं, जातियां तो हजारों हैं| भारत अगर टूटेगा तो वह शीशे की तरह टूटेगा| उसके हजारों टुकड़े हो जाएंगे| वह ऊपर से एक दिखेगा लेकिन उसका राष्ट्र भाव नष्ट हो जाएगा| नागरिकों के सामने प्रश्न खड़ा होगा-राष्ट्र बड़ा कि जात बड़ी ? यह कहनेवाले कितने होंगे कि राष्ट्र बड़ा है राष्ट्र बड़ा !

                दलितों और पिछड़ों के जातिवादी नेताओं को यह गलतफहमी है कि जातिवाद फैलाकर वे बच निकलेंगे| वे क्यों भूल जाते हैं कि उनकी हरकतें जवाबी जातिवाद को जन्म देंगी ? जन-गणना के सवाल पर ही यह प्रकि्रया शुरू हो गई है| कई सवर्ण नेताओं ने मुझे गुपचुप कहा कि जातीय गणना अवश्य होनी चाहिए, क्योंकि उससे बहुत से जाले साफ हो जाएंगे| सबसे पहले तो यह गलतफहमी दूर हो जाएगी कि देश में सवर्ण लोग सिर्फ 15 प्रतिशत हंै| ताज़ातरीन राष्ट्रीय सेम्पल सर्वे के अनुसार सवर्णों की संख्या लगभग 35 प्रतिशत है और पिछड़ी जातियों की 41 प्रतिशत ! यदि इन जातियों में सेमलाईदार परतोंको अलग कर दिया जाए और वास्तविक गरीबों को गिना जाए तो उनकी संख्या शायद सवर्णों से भी कम निकले| ऐसी हालत में उन्हें अभी जो आरक्षण मिल रहा है, उसे घटाने की मुहिम चलाई जाएगी| 1931 की अंतिम जातीय गणना ने तथाकथित पिछड़ी जातियों की संख्या 52 प्रतिशत बताई थी| इसी आधार पर उन्हें 27 प्रतिशत आरक्षण मिल गया| तो क्या अब उसे घटाकर 20 या 22 प्रतिशत करना होगाइसके अलावा जातीय जनगणना हुई तो आरक्षण प्राप्त जातियों में जबर्दस्त बंदरबांट शुरू हो जाएगी| सभी जातियों के अंदर उप-जातियां और अति-उपजातियां हैं| वे भी अपना हिस्सा मांगेंगी| जो नेता जातीय गणना की मांग कर रहे हैं, उनके छक्के छूट जाएंगे, क्योंकि उनकी प्रभावशाली खापों के विरूद्घ बगावत हो जाएगी| उनकी मुसीबत तब और भी बढ़ जाएगी, जब जाट और गूजर जैसी जातियां सारे भारत में आरक्षण के लिए खम ठोकने लगेगीं| उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत बांध रखी है| इस 50 प्रतिशत को लूटने-खसोटने के लिए अब 500 से ज्यादा जातीय दावेदार खड़े हो जाएंगे| अगर जातीय गणना हो गई तो आरक्षण मजाक बनकर रह जाएगा| कौन नहीं चाहेगा कि उसे मुफ्त की मलाई मिल जाए ? जातीय गणना निकृष्ट जातिवाद को पनपाएगी | जो वास्तव में गरीब हैं, उन्हें कोई नहीं पूछेगा लेकिन जिन जातियों के पास संख्या-बल और डंडा-बल है, वे मलाई पर हाथ साफ़ करेंगी ? इस लूट-खसोट में वे मुसलमान और ईसाई भी तत्पर होना चाहते हैं, जो जातीय-अभिशाप से बचने के लिए धर्मातंरित हुए थे|

                जो लोग जातीय गणना के पक्षधर हैं, उनसे कोई पूछे कि आप आखिर यह चाहते क्यों हैं ? आप गरीबी हटाना चाहते हैं या जात जमाना चाहते हैं ? यदि गरीबी हटाना चाहते हैं तो गरीबी के आंकड़े इकट्रठे कीजिए| यदि गरीबी के आंकड़े इकट्रठे करेंगे तो उसमें हर जात का गरीब जाएगा| केाई भी जात नहीं छूटेगी लेकिन सिर्फ जात के अंाकड़े इकट्रठे करेंगे तो वे सब गरीब छूट जाएंगे, जिनकी जाति आरक्षित नहीं हैं| भारत में एक भी जात ऐसी नहीं है, जिसके सारे सदस्य गरीब हों या अमीर हों| जिन्हें हम पिछड़ा-वर्ग कहते हैं, उनके लाखों-करोड़ों लोगों ने अपने पुश्तैनी काम-धंधे छोड़ दिए हैं| उनका वर्ग बदल गया है, फिर भी जात की वजह से हम उन्हें पिछड़ा मानने पर मजबूर किए जाते हैं| क्या आंबेडकर, क्या अब्दुल कलाम, क्या के.आर. नारायण, क्या मायावती, क्या मुलायमसिंह, क्या लालू पिछड़े हैं ? ये लोग अगड़ों से भी अगड़े हैं| क्या टाटा को कोई लुहार कहता है ? क्या बाटा को कोई चमार कहता है ? क्या कमोड बनानेवाली हिंदवेयर कंपनी को कोई भंगी कहता है ? लेकिन जातीय गणना चलाकर हम इतिहास के पहिए को पीछे की तरफ मोड़ना चाहते हैं| हर नागरिक के गले में उसकी जात की तख्ती लटकवाना चाहते हैं| 21 वीं सदी के भारत को हम पोंगापंथी और पीछेदेखू क्यों बनाना चाहते हैं ?

                काका कालेलकर और मंडल आयोग के पास गरीबी के पूरे आंकड़े नहीं थे| इसीलिए उन्होंने सरल उपाय ढूंढा| जाति को आधार बनाया लेकिन यह आधार इतना अवैज्ञानिक था कि नेहरू और मोरारजी, दोनों ने इसे रद्रद कर दिया| वि.प्र. सिंह ने इस अपना राजनीतिक हथियार बनाया| उनकी राजनीति तो कुछ माह के लिए संवर गई लेकिन समाज बिखर गया| असली गरीबों को कोई खास लाभ नहीं मिला| अब जबकि लाखों कर्मचारी हैं, कंप्यूटर हैं, विशेषज्ञ हैंगरीबी के सही-सही आंकड़ें क्यों नहीं इकट्रठे किए जाते ? जात के अधूरे, असत्य और अवैज्ञानिक आंकड़े इकट्रठे करके आप कैसी नीति बनाएंगे, यह बताने की जरूरत नहीं है| जिस जातीय गणना का विरोध 1931 में गांधी, नेहरू और कांग्रेस ने किया और जिसे हमारे संविधान-निर्माताओं ने अनुचित माना, उस कैंसर के कीटाणु को अब राष्ट्र की धमनियों में धंसवाने की कोशिश क्यों हो रही है ? क्या हम भूल गए कि 11 जनवरी 1931 को राष्ट्रीय कांग्रेस नेजन-गणना बहिष्कार दिवसमनाया था ?

            जो लोग जातीय गणना के पक्षधर हैं, वे अनजाने ही देश के पिछड़े वर्गों, गरीबों और वंचितों का बंटाढार करवाने पर तुले हुए हैं| वे आरक्षण को अनंतकाल तक बनाए रखना चाहते हैं| देश के 60-70 प्रतिशत लोग सदा अपाहिज बने रहें, सवर्णों की दया पर जिंदा रहे और आरक्षण की बेसाखियों के सहारे घिसटते रहें, यही उनकी गुप्त वासना है| इस वासना के मूल में है, वोटों की राजनीति ! तीन-चौथाई भारत अपंग बना रहे तो बने रहे, हमें तो वह वोट देता रहेगा| डॉ. आंबेडकर खुद इस आरक्षण को दस साल से ज्यादा नहीं चलाना चाहते थे लेकिन अब साठ साल चलकर भी यह कहीं नहीं पहुंचा है| देश की प्रथम श्रेणी की नौकरियों में आरक्षित पद खाली पड़े रहते हैं| अब तक केवल 4-5 प्रतिशत आरक्षित पद ही भरे जाते हैं| योग्यता का मानदंड ढीला कर देने पर भी यह हाल है| हमारे जातिवादी नेता मूल में क्यों नहीं जाते ? वे हमारे देश के पिछड़ों के लिए किसी ऐसे आरक्षण का प्रावधान क्यों नहीं करते, जिसे पाकर वे अगड़ों से भी अधिक योग्य बनें| किसी की दया पर जिंदा रहें| ऐसा आरक्षण नौकरियों में नहीं, शिक्षा में दिया जाना चाहिए| किसी जाति या मजहब के भेदभाव  के बिना प्रत्येक वंचित के बच्चों को दसवीं कक्षा तक मुफ्त शिक्षा, मुफ्त आवास, मुफ्त भोजन और मुफ्त वस्त्र् मुहैया करवाए जाएं| देखिए, सिर्फ दस साल में क्या चमत्कार होगा| भारत का नक्शा ही बदल जाएगा| यदि बच्चों को काम-धंधों का अनिवार्य प्रशिक्षण दिया जाए तो वे सरकारी बाबू क्यों बनना चाहेंगे ? जिस दिन भारत में हाड़-तोड़ काम की इज्जत और लज्जत कुर्सीतोड़ काम के लगभग बराबर या ज्यादा हो जाएगी, उसी दिन इस देश में क्रांति हो जाएंगी| समतामूलक समाज बनेगा| कोई सवर्ण रहेगा और अवर्ण ! द्विज और अद्विज में फर्क नहीं होगा| सभी द्विज होंगे| शिक्षा के गर्भ से दुबारा जन्मे हुए !

                भारत का संविधान प्रतिज्ञा करता है कि वह भारत को जातिविहीन समाज बनाएगा लेकिन हमारे कुछ नेता संविधान को शीर्षासन कराने पर उतारू हैं| संविधान मेंजातियोंको संरक्षण या आरक्षण देने की बात कहीं भी नहीं कही गई है| ‘अनुसूचित जातिशब्द का प्रयोग  जरूर हुआ है लेकिन सबको पता है कि अनुसूचित नाम की कोई जाति भारत में नहीं है| हरिजन, अछूत और दलित शब्द पर ज्यादातर लोगों को आपत्ति थी| इसीलिए अछूतों के लिएअनुसूचित जातिशब्द का प्रयोग हुआ| अस्पृश्यता को खत्म करने के लिए जैसेअनुसूचित जातिशब्द का प्रयोग हुआ, वैसे ही हमने जातिवाद को खत्म करने के लिएमेरी जाति हिंदुस्तानीशब्द का प्रयोग किया है| संविधान मेंपिछड़े वर्गोंकेनागरिकोंके प्रति विशेष सुविधा की बात कही है| थोकबंद जातियों की बात नहीं, जरूरतमंद नागरिकों की बात ! जातीय आधार पर थोक में रेवडि़यां बांटना संविधान का उल्लंघन तो है ही, यों भी उन सबका हक मारना भी है, जो सच में जरूरतमंद हैं| रेवडि़यां भी कितनी हैं ? हर साल पिछड़ों को यदि चार-पांच हजार नौकरियां मिल गईं तो भी क्या उन 70-80 करोड़ लोगों का पेट भर जाएगा, जो 20 रू. रोज़ पर गुजारा कर रहे हैं ? चार-पांच हजार के मुंह में लॉलीपॉप और 80 करोड़ के पेट पर लात, यही जातीय आरक्षण की फलश्रुति है| यदि जातीय गणना के आधार पर आरक्षण 70 प्रतिशत भी हो गया तो किसका भला होगा ? सिर्फ मलाईदार परतों का ! जो नेता और नौकरशाह पिछड़ी जातियों के हैं, उनकेशील और व्यसनसवर्णों से भी ज्यादा गए-बीते हैं| वे अपनी जातियों से कट चुके हैं| जातीय गणना करवाकर वे अपनी जातियों के लोगों को अपनी ही तोप का भूसा बनाएंगे| वे अपने ही लोगों को ठगेंगे | वे संविधान और राज्य की मर्यादा का भी उल्लंघन करेंगे| संविधान और भारत गणराज्य सभी नागरिकों की समान सेवा और रक्षा के लिए बने हैं, कि कुछ खास जातियों के लिए ! सबकी जातें गिनवाकर आप जातिविहीन समाज की रचना कैसे करेंगे, यह समझ में नहीं आता| हम भारत को जातिविहीन बनाने की बजाय जातियों का महाभारत तो नहीं बना देंगे ?

           जातीय गणना के पक्षधर अपने समर्थन में अमेरिका का उदाहरण देने लगते हैं| जैसे कालों की गिनती हुई और उन्हें विशेष अवसर दिया गया, वैसे ही भारत में जातीय गणना हो ओर विशेष अवसर दिए जाएं| यह तुलना अज्ञान पर आधरित है| अमेरिका के काले लोगों की तुलना भारत के अद्विजों से बिल्कुल नहीं की जा सकती| भारत की अद्विज जातियां और द्विज जातियां भी ऊपर-नीचे होती रहती हैं| द्विज कब अद्विज और अद्विज कब द्विज बन जाते हैं, पता ही नहीं चलता| 1931 के सेंसस कमिश्नर डॉ. जे. एच. हट्रटन ने तो यहां तक कहा था कि एक ही समय में एक ही जाति एक ही प्रांत में द्विज और अद्विज दोनों है| कई जातियों ने अपने आप को 1911 की जनगणना में चमार लिखाया था| उन्हीं ने 1921 में खुद को क्षत्र्िय और 1931 में ब्राहमण लिखवा दिया| इसी तरह अंग्रेजों के जमाने में हुई जनगणनाओं में जातियों की संख्या कुछ सौ से बढ़कर हजारों में चली गई| जातीय गणना कभी वैज्ञानिक हो ही नहीं सकती, क्योंकि हर व्यक्ति अपनी जाति ऊंची बताता है या अपने जातीय मूल को ऊंचा बताता है| उसे नापने का कोई वस्तुनिष्ट मापदंड है ही नहीं| गरीबी का है, जाति का नहीं| कालों की जाति पूछने की जरूरत कभी नहीं होती| वह तो देखने से ही पता चल जाती है| उनकी सिर्फ गरीबी पूछी गई और उसका इलाज़ किया गया| इसी तरह भारत में हम जाति को भूलें और गरीबी को याद रखें| जात को याद रखने से गरीबी दूर नहीं होगी| गरीब की जात क्या होती है ? वह तो खुद ही एक जात है| भारत की जातियां प्राकृतिक नहीं है| मनुष्यकृत हैंं| वे जैसे पैदा की गई हैं, वैसे ही खत्म भी की जा सकती हैं लेकिन गोरे और काले का रंगभेद तो प्रकृत्तिप्रदत्त हे| इसीलिए रंगभेद और जातिभेद की तुलना नहीं की जा सकती, हालांकि काले और गोरे का भेद भी ऊपरी ही है| सच्चाई तो यह है कि सारी मनुष्य जाति ही एक है| यदि एक नहीं होती तो वह समान प्रसवात्मिका कैसे होती ? जैसे सवर्ण और अवर्ण स्त्र्ी-पुरूष से संतान पैदा होती है, क्या गोरे और काले युग्म से नहीं होती ? काले और गोरे के भेद में भी मनुष्यता का अभेद छिपा है| कोई गणना अगर मनुष्यों के बीच नकली और ऊपरी भेदों को बढ़ाए तो सभ्य समाज उसका स्वागत कैसे कर सकता है ?

                जातीय जनगणना भारत को दुनिया के सभ्य समाज में बैठने लायक नहीं रहने देगी| अभी भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र् माना जाता है| जातीय जन-गणना के बाद उसे लोकतंत्र् नहीं, जातितंत्र् माना जाएगा| जन्म के आधार पर भेद-भाव करनेवाला भारत दुनिया का एक मात्र् राष्ट्र होगा| कई रंगभेद विरोधी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारतीय प्रतिनिधियों को जातिभेद के कारण भयंकर लताड़ें खानी पड़ती हैं| लोकतंत्र् में हर नागरिक समान होता है लेकिन जातितंत्र् में तो ऊँच-नीच का गगनचुंबी पिरेमिड उठ खड़ा होगा|यदि देश में 10 हजार जातियां होंगी तो यह जातीय पिरेमिड 10 हजार तल्लेवाला होगा| महाशक्ति के दर्जे पर पहुंचनेवाले भारत के लिए इससे बड़ा खतरा क्या होगा कि विदेशी शक्तियां इस जातीय विभाजन का इस्तेमाल अपनी स्वार्थ-सिद्घि के लिए करेंगी| यह संयोग मात्र् नहीं है कि भारत के विशेषज्ञ माने जानेवाले अनेक विदेशी समाजशास्त्र्ी जातीय गणना के कट्रटर वकील बन गए हैं| क्यों बन गए हैं ? वे कहते हंै कि भारत को जानने-समझने के लिए सही-सही आंकड़ें चाहिए| वे भारत को जानना-समझना क्यों चाहते हैं ? किसलिए चाहते हैं ? क्या इसलिए नहीं कि वे अपने-अपने राष्ट्रों के संकीर्ण स्वार्थों को सिद्घ करना चाहते हैं ? वे जातीय गणना के जरिए जातिवाद के उस जहर को दुबारा फैलाना चाहते हैं, जो 1857 के बाद अंग्रेजों ने फैलाया था| अंग्रेज ने प्रथम स्वाधीनता संग्राम के ठीक चार साल बाद जनगणना शुरू की और उसमें धीरे-धीरे मजहब और जात का जहर घोल दिया| 1871 की जनगणना से जन्मी हंटर आयोग की रपट 1905 के बंग-भंग का कारण बनी| मुसलमानों के बारे में इकट्रठे किए गए आंकड़ों का जो हश्र 1905 और 1947 में हुआ, वह अब जातियों के आंकड़ों का नहीं होगा, इसकी क्या गारंटी है ? जाति का ज़हर स्वाधीनता आंदोलन को नष्ट कर सकता था इसीलिए कांग्रेस ही नहीं, भगतसिंह, सुभाष, सावरकर और यहां तक कि आंबेडकर जैसे लोगों ने भी जातिवाद का विरोध किया| आंबेडकर ने तोजातिप्रथा का समूलनाथनामक ग्रंथ भी लिखा| आजादी के बाद राममनोहर लोहिया नेजात तोड़ोआंदोलन भी चलाया| जातीय गणना आंबेडकर और लोहिया के सपनों को दफन कर देगी|

भारत के किसी भी आर्स-ग्रंथ में जनमना जाति का समर्थन नहीं है बल्कि कई जगह कहा गया है – ‘जनमना जायते शूद्र:, संस्कारात्र बिजर्उच्यतेअर्थात जन्म से सब शूद्र होते हैं, संस्कार से द्विज बनते हैं| गीता में भगवान कृष्ण भी यही कहते हैं| – चातुर्वण्यं मया सृंष्टम  गुणकर्मविभागश: | याने चारों वर्ण मैंने गुण-कर्म के आधार पर बनाए हैं| मनुस्मृति में भी जन्मना जाति का स्पष्ट विरोध है| इसीलिए मैं कहता हूं कि जो लोग जातीय आधार पर राजनीति कर रहे हैं, उन्हीं की व्याख्या के अनुसार वे घोरमनुवादीहैं| उन्होंने मनु की मूर्खतापूर्ण व्याख्या की और वे खुद उसमनुवादके सबसे बड़े प्रवक्ता बन गए हैं| कैसी विडंबना है कि जिन्हें जातिवाद के समूलनाथ का व्रत लेना चाहिए था, वे उसके सबसे बड़े संरक्षक बन गए हैं|

डॉ. लोहिया ने कहा था, ‘मैं समझता हूं कि हिंदुस्तान की दुर्गति का सबसे सबसे बड़ा कारण जाति प्रथा है|’ उन्होंने विदेशी हमलावरों की विजय का कारण भी देश में चली रही जाति प्रथा को ही माना है| जाति-प्रथा सामाजिक जड़ता की प्रतीक है| जब तक देश में जाति प्रथा कायम रहेगी, किसी को सामाजिक न्याय मिल ही नहीं सकता| अपनी योग्यता से कोई आगे नहीं बढ़ सकता| यदि आप ब्राह्रमण के घर में पैदा नहीं हुए तो शोध और अध्ययन नहीं कर सकते, यदि आप राजपूत नही ंतो हमलावरों से कैसे लड़ेंगे, यदि आप बनिए के घर पैदा नहीं हुए तो पूंजी कैसे बनाएंगे और यदि आप शूद्र के घर जन्मे हैं तो आप सिर्फ झाड़ू लगाएंगे या मजदूरी करेंगे| किसी भी राष्ट्र को तबाह करने के लिए क्या इससे अधिक कुटिल सूत्र् कोई हो सकता है? भारत महाशक्ति बन रहा है तो इस सड़े हुए सूत्र् के पतले पड़ने के कारण| अब जातीय गणना करवाकर इस सूत्र् को, इस धागे को क्या हम मोटे से रस्से में नहीं बदल देना चाहते हैं ? पिछले सौ-सवा सौ में देश की विभिन्न जातियों के जो कठघरे ज़रा चरमराए हैं और इस चरमराहट के कारण जो सामाजिक तरलता बढ़ी है, क्या जातीयता बढ़ाकर हम उसे भंग नहीं कर देंगे ? यदि शासकीय नीतियों का आधार जाति को बनाया जाएगा तो क्या हमारे अनेक पिछड़ी जातियों के नेताओं, विद्वानों और उद्योगपतियों को दुबारा उनके पुश्तैनी धंधों में धकेला जाएगा ? क्या उन्हें भेड़-चराने, मैला साफ करने और जूते गांठने पर मजबूर किया जाएगा ? यदि नही  तो फिर जातीय चेतना जगाने की  तुक क्या है ?

जात को खत्म किए बिना देश से गरीबी खत्म नहीं की जा सकती| जन-गणना में जाति जुड़वाने के बजाय मांग तो यह होनी चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति अपने नाम के आगे से जातीय उपनाम (सरनेम) हटाए, जैसे कि हमारी मतदाता-सूचियों में होता है| अंग्रेज के आने के पहले क्या भारत में कोई जातीय उपनाम लगाता था ? राम, कृष्ण, बुद्घ, महावीर, सूर, तुलसी, कबीर, अशोक, अकबर, प्रताप, शिवाजी, नानक, कबीरकिसके नाम से उसकी जाति पता चलती है | गुलामी में पनपी इस विष-बेल को हम कब काटेंगे ? जो भी जातीय उपनाम लागएं, ऐसे उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने दिये जाएं और सरकारी कर्मचारियों पर भी यहीं प्रतिबंध लागू किया जाए| जातीय आधार पर आरक्षण मांगनेवाले दलों की वैधता रद्रद की जाए| जाति के इन बाहरी चिन्हों को नष्ट किया जाए तो वह अंदर से भी टूटेगी|

जात-पांत के पतले पड़ने के कारण ही भारत की गुप्त ऊर्जा का अपूर्व विस्फोट हुआ है| ऐसे लाखों-करोड़ों लोग हैं, जो अपने जातीय धंधों की अंधी गली से बाहर निकले और उन्होंने अपनी व्यक्तिगत प्रतिभा से सारे राष्ट्र को रोशन कर दिया| जातीय गणना होने पर इन लोगों को अपनी जात लिखानी होगी| इनका इससे बड़ा अपमान क्या होगा ? देश का सबसे बड़ा विज्ञानकर्मी क्या यह लिखवाएगा कि वह मछुआरा है ? क्या यह सत्य होगा ? जातीय गणना देश में झूठ का विस्तार करेगी|

जातीय गणना उन सब परिवारों को भी काफी पसोपेश में डाल देगी, जो अंतरजातीय हैं| जिन परिवारों में पिछली दो-तीन पीढि़यों में अंतरजातीय, अंतरधार्मिक और अंतरराष्ट्रीय विवाह होते रहे हैं, वे अपनी जात क्या लिखाएंगे ? जातीय गणना प्रकारांतर से कहेगी कि इस तरह के विवाह उचित नहीं हैं, क्योंकि वे जातीय मर्यादा को भंग करते हैं| व्यक्ति-स्वात्रंत्र्य पर इससे बड़ा प्रहार क्या होगा ? भारत के नागरिकों के जीवन का संचालन भारत के संविधान से नहीं, गांवों की खापों और पंचायतों से होगा, जिनके हाथ स्वतंत्र्चेता युवजनों के खून से रंगे हुए हैं|

     भारत के उच्चतम न्यायालयों के अनेक निर्णयों में जाति को पिछड़ापन के निर्धारण में सहायक तो माना है लेकिन उसे एक मात्र् प्रमाण नहीं माना है| उच्चतम न्यायालय नेमलाईदार परतोंकी पोल खोलकर यह सिद्घ कर दिया है कि गरीबी का निर्धारण सिर्फ जाति के आधार पर नहीं किया जा सकता| यदि आरक्षण का आधार सिर्फ जाति है तो उसी जाति के कुछ लोगों कोमलाईदारकहकर आप जात-बाहर कैसे कर सकते हैं ? यदि करते हैं तो आपको मानना पड़ेगा कि गरीबी का निर्धारण सिर्फ जाति के आधार पर नहीं हो सकता| वास्तव में गरीबी का निर्धारण तो गरीबी के आधार पर ही हो सकता है| उच्चतम न्यायालय ने अपने ताज़ातरीन निर्णय में दक्षिण भारतीय राज्यों की इस तिकड़म पर भी प्रश्न चिन्ह लगा दिया है कि उन्होंने अपने यहां आरक्षण 69 प्रतिशत तक कर दिया है| न्यायालय ने उन्हें सिर्फ एक साल की मोहलत दी है, यह सिद्घ करने के लिए कि उन्होंने जो बंदरबांट की है, उसका आधार क्या है ? जाहिर है कि इस बंदरबांट का जातीय आधार उच्चतम न्यायालय की कूट-परीक्षा के आगे ध्वस्त हुए बिना नहीं रहेगा| जाति की आड़ में गरीबी को दरकिनार करने की साजिश कभी सफल नहीं हो पाएगी|

गरीबी के इस तर्क-संगत आधार को मानने में हमारे राजनीतिक दल बुरी तरह से झिझक रहे हैं| ऐसा नहीं कि वे इस सत्य को नहीं समझते| वे जान-बूझकर मक्खी निगल रहे हैं| वे वोट बैंक के गुलाम हैं| वे यह मान बैठे हैं कि यदि उन्होंने जातीय गणना का विरोध किया तो उनके वोट कट जाएंगे| उन्हें नुकसान हो जाएगा| वे यह भूल जाते हैं कि जातीय वोट मवेशीवाद के तहत जातिवादी पार्टियों को ही मिलेंगे| उन्हें नहीं मिलेंगे| इसके बावजूद उनकी दुकान चलती रह सकती है, क्योंकि देश के बहुसंख्यक लोग जाति नहीं, गुणावगुण के आधार पर वोट करते हैं| यदि ऐसा नहीं होता तो केंद्र में कांग्रेस और भाजपा की सरकारें कैसे बनतीं ? देश में जितनी शिक्षा, संपन्नता और आधुनिकता बढ़ेगी, जाति का शिकंजा ढीला होता चला जाएगा| जाति गरीबी को बढ़ाती है और गरीबी जाति को बढ़ाती है| जिस दिन हमारे नेता गरीबी-उन्मूलन का व्रत ले लेंगे, जाति अपने आप नेपथ्य में चली जाएगी| सदियों से निर्बल पड़ा भारत अपने आप सबल होने लगेगा|

         (लेखक, ‘सबल भारतके संस्थापक हैं औरमेरी जाति हिंदुस्तानीआंदोलनके सूत्र्धार हैं) 

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