मोहन भागवत की भागवत-कथा के मायने

मोहन भागवत कोई भी बात यूं ही नहीं कहते…उनके मुंह से निकला हुआ एक-एक शब्द काफी सोचा समझा हुआ होता है…जब वो कथा सुनाने लगे तो समझ जाइये कि मामला गंभीर है….और खासकर आडवणी की मौजूदगी में एक ऐसी कथा कहे जिसके गंभीर मायने निकलते हैं तब तो निश्चितरुप से मामला गंभीर है…नरेंद्र मोदी को पीएम प्रत्याशी बनाने को लेकर आडवाणी की नाराजगी जग जाहिर है…कई मौकों पर आडवाणी ने  खुलकर अपनी नाराजगी का इजहार भी किया है…तो क्या आडवाणी आज भी नाराज हैं…और संघ प्रमुख मोहन भागवत को ऐसा लगता है कि उनकी नाराजगी की वजह से पूरी बीजेपी बर्बाद हो सकती है.. लगता है संघ प्रमुख मोहन भावगत को भी इस बात का अहसास है कि आडवाणी अभी भी अंदर से धधक रहे हैं….तभी तो अपनी कथा में उन्होंने सांकेतिक तौर पर उन हालातों का चित्रण किया है जिससे बीजेपी गुजर रही है….उस मानसिकता को खींचा है जिससे आडवाणी गुजर रहे हैं….क्या आडवाणी की यह दिल्ली इच्छा नहीं थी कि उन्हें एक बार फिर बीजेपी पीएम प्रत्याशी बनाये…और यदि ऐसा नहीं हुआ है तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है….अब चूंकि समय आगे निकल चुका है….आडवाणी को दरकिनारा करके नरेंद्र मोदी को पीएम पद का प्रत्याशी घोषित किया जा चुका है….ऐसे में अब आडवाणी को क्या करना चाहिए…भागवत कथा इस पर रोशनी डालती है….यह कथा बीजेपी के वर्तमान की व्याख्या करते हुये भविष्य की तस्वीर खींचती है…और साथ ही आडवाणी समेत बीजेपी को भी भविष्य के प्रति आगाह करती है….सुनते हैं भागवत कथा उन्हीं की जुबानी, पुराने जमाने में एक गांव की घटना है। लोग खेती करके जीवन बसर करते थे। घरों में हवन आदि होते थे। लोग सुबह हवन करते और शाम को हवन कुंड साफ करते। एक महिला हवनकुंड के सामने पापड़ सुखा रही थी। उसके मुंह में पान था। तभी वहां कुत्ता आया।

वह उसे भगाने के लिए मुंह खोल नहीं सकती थी। आंगन में पापड़ ही पापड़ थे, वह खराब हो जाते। उसने हवन कुंड में थूक दिया और कुत्ते को भगा दिया। शाम को पतिदेव खेत से आए। हवनकुंड की सफाई करने लगे तो उसमें सोने को टुकड़ा मिला। उसने पत्नी से पूछा तो उसने झिझकते हुए सारी बात बता दी। उसने बताया कि हवनकुंड इतना पवित्र है कि उसने थूका और वह सोना बन गया। पति ने उसे यह बात किसी को न बताने की हिदायत दी। एक दिन महिला ने सहेलियों को यह बात बता दी। अब हुआ यह कि उनका घर छोड़कर हर घर के हवनकुंड से सोना निकलने लगा। गांव वाले उन्हें ताना मारने लगे, तो पत्नी गांव छोड़ने की जिद करने लगी। पति नहीं माना। पत्नी की बहुत जिद के बाद एक साल बाद दोनों ने गांव छोड़ दिया। जब उन्होंने गांव के बाहर टीले से गांव को देखा तो हैरान रह गए। गांव में आग लगी थी। दंगे हो रहे थे। यह देखकर दोनों हैरान रह गए। पति ने तब पत्नी को समझाते हुए कहा कि सभी के हवनकुंड में सोना मिलता था, एक अपने हवनकुंड में यह नहीं हो रहा था। हमने गांव छोड़ा तो अब पाप गांव को खा रहा है।’

संघ प्रमुख मोहन भागवत ने गांव वाली इस कथा को फिर से दोहराया है, इसके पहले भी यह वो कह चुके हैं…2008 में आडवाणी की ऑटोबायॉग्रफी के विमोचन के समय…इस बार भी आडवाणी के किताबों के विमोचन के दौरान ही यह कथा उन्होंने दोहराई है। इस कथा के बाद मोहन भागवत जिस तरह से आडवाणी को नसीहत दे रहे है उससे तो यह लगता है कि आडवाणी को छोड़कर बीजेपी के तमाम नेता पाप कर्म में लगे हुये हैं….यह कहानी बीजेपी के नेताओं के चरित्र पर एक साथ कई सवाल खड़े करती हैं…या यूं कहा जा सकता है कि इस कहानी के माध्यम से संघ प्रमुख खुद बीजेपी के नेताओं के चरित्र पर सवाल खड़ा कर रहे हैं….एक नजर डालते हैं उन संभावित सवालों पर, जो इस कहानी के बाद आडवाणी को पार्टी न छोड़ने की दी गई नसीहत से पैदा होती है…..

मोहन भागवत ने बीजेपी नेताओं को भी यह स्पष्ट संदेश दिया है कि आडवाणी के बिना पार्टी तबाह हो जाएगी…तो क्या यह मान लिया जाये कि सर संघ संचालक की नजर में आडवाणी के बाद बीजेपी को संभालने वाला कोई दूसरा नेता नहीं है….और यदि ऐसा है तो क्या यह आडवाणी सहित बीजेपी के शीर्ष नेताओं की यह कमी नहीं है कि उन्होंने बीजेपी के अंदर नये नेतृत्व को नहीं उभारा…और इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या नरेंद्र मोदी मोहन भागवत की नजर में एक अक्षम नेता है, जो आडवाणी की गैर मौजूदगी में बीजेपी को लंका बना देंगे…कम से कम कहानी के बाद आडवाणी को दी गई नसीहत से तो यही लगता है। संघ प्रमुख मोहन भागवत की कथा और आडवाणी को दी गई नसीहत से उपजने वाले सवालों से बीजेपी साफ तौर पर बचने की कोशिश कर रही है।

भले ही बीजेपी इन सवालों को टाल रही है, लेकिन जिस तरह  से भागवत ने बीजेपी को भी आडवाणी को तव्वजों देने को कहा है उससे साफ पता चलता है कि बीजेपी में अंदर खाते बहुत कुछ चल रहा है….2014 के लोकसभा चुनाव में इसका असर देखने को मिल सकता है….बीजेपी के अंदर टिकट बंटवारे से लेकर प्रचार अभियान तक में आडवाणी और मोदी के बीच टशन देखने को मिल सकता है…अब यह देखना रोचक होगा कि मोहन भागवत की नसीहत कितना कारगार साबित होती है।

आडवाणी कभी बीजेपी के स्टार नेता थे…जहां जाते थे उनके चारो ओर भीड़ इकट्ठी हो जाती थी…उनकी आवाज लोगों में उत्साह का संचार करती थी…यही वजह है कि उन्हें बीजेपी ने फ्रंट मोर्चे पर लगा रखा था….जहां कहीं भी उनकी जरूरत होती थी वो वहां मौजूद रहते थे….राम मंदिर आंदोलन के दौरान उन्होंने खूब पसीना बहाया था….वो देश के एक छोर से दूसरे छोड़ तक लगातार रथ हांकते रहे थे….अपने खून पसीने से उन्होंने बीजेपी की जड़ों को सींचा है…..यहां तक कि बीजेपी को 2 सीट से आगे खींच कर उसे सत्ता में लाने में भी उनकी अहम भूमिका रही है…बीजेपी में आडवाणी की शानदार चमक से कोई इन्कार नहीं कर सकता….लेकिन ऐसा क्या हुआ कि आडवाणी अचानक अपनी चमक खो बैठे….बीजेपी के जो नेता उनके एक इशारे पर कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार रहते थे वही उन्हें पीछे धकलने लगे।

भारतीय राजनीति में आडवाणी शुरु से ही कट्टर हिन्दुत्व का झंडा उठाये हुये थे….बीजेपी के अंदर कट्टर हिन्दुओं की पहली पसंद आडवाणी ही थे…..शुरुआती दौर में बीजेपी के ऊपर सेक्यूलर रंग नहीं चढ़ा था…बीजेपी के तमाम नेता जो कभी जनसंघ में थे हिन्दुत्व का झंडा थामे हुये थे….आडवाणी इन सब के चहेते नेता थे…..अपने भाषणों  में वो आग उगलते थे और उग्र हिन्दूवाद को बढ़ावा देते थे…..लोकसभा चुनावों में बड़ी पार्टी बनने के बाद बीजेपी में पीएम के तौर पर आडवाणी का नाम भी जोर शोर से उछलने लगा था…लेकिन  उग्र हिन्दूवादी चेहरा होने की वजह से उन्हें उदारवादी अटल बिहारी वाजपेयी के सामने पीछे हटना पड़ा…इसके बावजूद उन्हें उप प्रधानमंत्री के पद पर बैठाया गया….जब बीजेपी का इंडिया शाइनिंग का नारा नहीं चला, और देश की जनता ने बीजेपी को सत्ता से बेदखल कर दिया तो पार्टी को आगे ले जाने की जिम्मेदारी आडवाणी को सौंपी गई…उन्हें पीएम फेस के तौर पर पेश किया गया, लेकिन वो फिर से बीजेपी को सत्ता में लाने में नाकामयाब रहे…और इसी के साथ ही उन की नाकामयाबियों की कहानी शुरु हो गई….पार्टी के अंदर ही दबी जुबान में यह कहा जाने लगा कि आडवाणी में पार्टी को सत्ता में लाने की क्षमता नहीं है….और देश की सेक्यूलर जनता भी उन पर यकीन करने को तैयार नहीं है क्योंकि वो कट्टर हिन्दुओं का प्रतिनिधत्व करते रहे हैं। आडवाणी की लोकप्रियता पहले से ही गिरती जा रही थी, कट्टर हिन्दुओं का विश्वास आडवाणी पर से उस दिन डगमगा गया जब उन्होंने पाकिस्तान में जिन्न के मजार पर जिन्ना की तारीफ करते हुये उसे सबसे बड़ा राष्ट्रवादी नेता करार दिया। इसकी तीखी प्रतिक्रिया बीजेपी के अंदर हुई है, और पूरे देश में आडवाणी के समर्थक भी इससे निराश हुये…एक तरह से आडवाणी के पराभव की यह अगली कड़ी साबित थी। इसके असर आडवाणी आज तक नहीं उबर पाये हैं, भले उन्होंने इस पर लाख सफाई देने की कोशिश को हो, लेकिन बीजेपी के अंदर का एक बहुत बड़ा तबका आडवाणी को खारिज कर चुका है।

बीजेपी आडवाणी के बिना चलना सीख रही है…या यूं कहा जा सकता है कि आडवाणी धीरे-धीरे बीजेपी की एक्टिव पोलिट्स से दूर होते जा रहे हैं…उनका अधिकांश समय अब पठन-पाठन और लेखन में व्यतीत हो रहा है….वो जमकर पढ़ रहे हैं और जमकर लिख भी रहे हैं…मतलब साफ है आडवाणी धीरे-धीरे बीजेपी से दूरी बना रहे हैं….उनके दिल और दिमाग में एक बार फिर पीएम के तौर जोर आजमाईश करने की इच्छा थी…लेकिन नरेंद्र मोदी के सामने आने से उन्हें पीछे हटना पड़ा…एक एक करके पार्टी के अंदर उनकी करीबी नेता भी नरेंद्र मोदी के पक्ष में खड़ा होते चले गये….एक तरह से राजनीतिक सन्यास की ओर आडवाणी को ढकेल दिया गया….ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि अब आडवानी खुद को बीजेपी में कितना सहज महसूस कर रहे हैं….कभी इसी पार्टी में उन्हें मान सम्मान और ऊंचाई हासिल हुई थी…और आज यही पार्टी उनकी बातों पर तव्वजों न हीं दे रहा है। ऐसे में आडवाणी को पार्टी में क्यों कर रहना चाहिए।

ऐसा नहीं है कि आडवाणी की मान मन्नौवल नहीं हुई है….नरेंद्र मोदी की यह पूरी कोशिश रही है कि वो आडवाणी को साथ लेकर चले…उनका आर्शिवाद हासिल करें। इसके साथ ही बीजेपी के अंदर एक धड़े को यह यकीन था कि आडवाणी कभी यह नहीं चाहेंगे कि नरेंद्र मोदी को पीए का प्रत्याशी बनाया जाये…ऐसे मे मोदी समर्थक यह धड़ा शुरु से ही पार्टी के अंदर दो-दो हाथ करने के लिए तैयार था….मोदी के इशारे पर यह धड़ा लगातार बीजेपी के दूसरे बड़े नेताओं पर मोदी को पीएम पद का प्रत्याशी घोषित करने के लिए दबाव बनाता रहा और फिर सफल भी रहा। मतलब साफ है कि यदि आडवाणी अपना रुख नहीं बदलते तो उन्हें उसी वक्त संयास लेने पर मजबूर कर दिया जाता…आडवाणी इस हकीकत को अच्छी तरह से भांप गये थे, तभी तो उन्होंने चुपी साध ली थी।

आडवाणी को जिस तरह से दरकिनारा किया गया है, उससे एक सवाल उठता है कि क्या बीजेपी आडवाणी के बिना सही दिशा में चल पाएगी…..आडवाणी एक अनुभवी नेता हैं….भारतीय राजनीति में उन्होंने एक लंबी पारी खेली है…यहां तक कि बीजेपी को भारतीय राजनीति में चमत्कारिक स्थिति में लाने में आडवाणी की अहम भूमिका रही है…आज बीजेपी जहां खड़ी है उसमें आडवाणी का अहम योगदान है…अचानक आडवाणी को पीछे धकेल कर मोदी को आगे करने के पीछे महज मोदी की लोकप्रियता एक मात्र वजह है या इसके पीछे बीजेपी की कोई दूरगामी रणनीति काम कर रही है……क्या बीजेपी मोदी को आगे करके आगामी लोकसभा चुनाव में अधिक से अधिक वोट हासिल करना चाहती है और फिर बाद में  272 के जादुई आंकड़े से पीछे छूटने की स्थिति में आडवाणी को आगे करके सेक्यूलर खेमों को अपने साथ जोड़ सकती है….राजनीति में कुछ भी संभव है…..

यदि भविष्य की अटकलों पर न जाये तो वर्तमान में बीजेपी के अंदाज को देखकर यही लगता है कि अब बीजेपी आडवाणी को छोड़कर आगे बढ़ने का मन बनाये है, आडवाणी साथ आते हैं तो भी ठीक….और नहीं आते आते हैं तो भी ठीक…हालांकि मोहन भागवत ने कथा का हवाला देते हुये आडवाणी को नसीहत दी है कि वो गांव न छोड़े….कहीं उनके बाहर जाते ही गांव में आग न लग जाये।

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