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दि लास्ट ब्लो (उपन्यास, चैप्टर 2)

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दिवाकर की अरुण से पहली मुलाकात तकरीबन 25 साल पहले पटना के अवाम अखबार के दफ्तर में हुई थी। कॉलेज में छात्रों की गुंडगर्दी पर एक रिपोर्ट लिखकर वह वहां पहुंचा था। अरुण उस समय नगर पेज का इंचार्ज हुआ करता था। कई गलतियां निकालने के बाद अरुण ने रिपोर्ट को खारिज कर दिया था। दिवाकर भी उससे यह कहते हुये भीड़ गया था कि एक ओर गुंडों ने कॉलेज में हुडदंग मचा रखा है और आप यहां रिपोर्ट में गलतियां तलाश करते हुये इसे छापने से इंकार कर रहे हैं। पुलिस है कि उन्हीं गुंडों के साथ मिलकर उल्टे छात्रों को पीट रही है। ऐसी हालत में छात्रों के पास विकल्प क्या बचा है, सिवाय कॉलेज छोड़ देने के या फिर लड़ने-भिड़ने के। अरुण ने उस दिन दिवाकर को काफी देर तक समझाने के बाद उसे रूस की बोल्शेविक क्रांति पर जॉन रीड की लिखी पुस्तक “दस दिन जब दुनिया हिल उठी” देते हुये कहा था, “इस पुस्तक को पढ़ने के बाद तुम अच्छी तरह से समझ जाओगे कि रिपोर्टिंग कैसे की जाती है।”

घर आने के बाद जब दिवाकर ने उस पुस्तक को खोलकर पढ़नी चाहा तो उसके पल्ले कुछ खास नहीं पड़ा। इतना तो वह समझ गया था कि जॉन रीड ने बोल्शेविक क्रांति के दौरान रुस में रहकर रिपोर्टिंग की थी। वह अमेरिका का रहने वाला था और जैसे ही रुस में क्रांति शुरु हुई वह वहां चला आया। तकरीबन एक सप्ताह तक किताब से जूझने के बाद वह फिर अरुण से मिलने अवाम अखबार के दफ्तर पहुंचा। उसने अरुण को बताया कि किताब का कंटेंट और भाषा दोनों उसकी समझ में नहीं आ रहा है। अरुण उसे पढ़ने का सूत्र समझाते हुये कहा, “इस तरह की किताबों को तीन बार पढ़ना चाहिए। पहली रीडिंग सहजता से की जानी चाहिए ताकि यह पता चले कि पुस्तक किस विषय पर लिखी गई हो, दूसरी रीडिंग पेंसिल और नोटबुक के साथ करनी चाहिए और वे सारी कठिन शब्दों की सूची तैयार करनी चाहिए जिसे वह समझ नहीं पा रहा है या फिर जिससे उसकी पहली बार मुलाकात हो रही हो। फिर तीसरी रीडिंग की तैयारी थोड़ी ठहर कर करनी चाहिए, उन सभी कठिन शब्दों के अर्थ जान लेने के बाद जो दूसरी रीडिंग के दौरान तुम्हारे नोटबुक में आ  चुके हैं। इसके बाद तीसरी रीडिंग में सबकुछ आइने की तरह साफ हो जाता है।”

उस दिन जाते-जाते अरुण ने दिवाकर के हाथ में एक किताब और पकड़ा दी थी। वह पोलिटिकल इकॉनामी की एक मोटी सी डिक्शनरी थी। लेकिन वह डिक्शनरी दूसरे डिक्शनरियों से भिन्न थी। एक-एक शब्द को दो-दो पृष्ठों में समझाया गया था। इस डिक्शनरी के मिल जाने और अरुण द्वारा समझाये गये पढ़ने के तरीकों को अपनाने के बाद वाकई में दिवाकर को अपने सामने एक नई दुनिया खुलती नजर आ रही थी।

वह खुद को जॉन रीड के साथ रुस की गलियों में कभी बख्तरबंद फौजी गाड़ियों के पास महसूस करता, तो कभी सिगरेट और सिगार के धुओं के बीच किसी तंग हॉल में बोल्शेविकों की सभाओं में क्रांति को लेकर उनकी तकरीरों के बीच खुद को पाता था, तो कभी उन पोस्टरों को निहारते हुये जो बोल्शेविकों के हक में रुसी शहरों की दिवारों पर चस्पा की जा रही थी, तो कभी उन बूटों की चरमराहट की आवाजें सुनता जो बोल्शेविकों को दबाने में लगी हुई फौजों के चलने से पैदा होती थी। उसे इस बात का जरा भी इल्म नहीं हुआ कि इस्क्रा की चिंगारी कब उसके दिमाग में छिटकती चली गई और कब वह जेहनी तौर पर बोल्शेविको के साथ उनकी जंग में शामिल होता गया। जॉन रीड की सिर्फ एक पुस्तक ने रुस और दुनियाभर से संबंधित क्रांतिकारी घटनाओं के प्रति उसकी जेहनी भूख को बुरी तरह से भड़का दिया था। अब उसकी अरुण के साथ लगातार मुलाकात होने लगी। वह हर बार उसके हाथ में कुछ न कुछ पढ़ने को पकड़ा ही देता था। इसी दौरान उसे यह अहसास हुआ कि उसकी अंग्रेजी कमजोर है और दुनिया के साथ मजबूती से जुड़ने के लिए अंग्रेजी का जानना जरुरी है। उसने अंग्रेजी सीखने का निश्चय किया और इसका जिक्र अरुण से किया। अरुण ने उसे प्रो. एस.पी. यादव के पास यह कहते हुये भेज दिया कि यदि वह पढ़ाने के लिए तैयार हो गया तो तुम्हारी अंग्रेजी तो अच्छी हो ही जाएगी, इसके साथ-साथ तुम्हें और भी बहुत सारी चीजों की जानकारी होगी क्योंकि पढ़ाने के दौरान वह लगातार दुनियाभर में होने वाले उथल पुथल के बारे में बोलता रहता है। लेकिन उसकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह जल्दी किसी को पढ़ाने को तैयार नहीं होता है, थोड़ा सनकी और बददिमाग है। अगड़ी जातियों को खुलकर गालियां देता है। लेकिन वह अंग्रेजी भाषा को वैज्ञानिक तरीके से पढ़ाता है, फार्मूलाबद्ध।

अंग्रेजी सीखने की चाहत में दिवाकर प्रो. एस.पी यादव के पास पहुंचा। वह एक मोटा, काला और ठिगने कद का इंसान था। जितना उसका शरीर मोटा था उससे ज्यादा उसके सिर का आकार बड़ा था। ऐसा लगता था जैसे मोटे शरीर पर बड़ा सा फुटबॉल रख दिया गया हो। उसकी आंखें धंसी हुई थी और चेहरा बड़ा था। गले में रुद्राक्ष का माला होता था और बदन के नीचले हिस्से पर सिर्फ एक लुंगी। गर्मी के दिनों में ऊपर का पूरा बदन नंगा रहता था जबकि जाड़े में वह एक साथ कई कई स्वेटर पहन कर रहता था।

उसके कमरे में एक बेड लगा हुआ था और बेड के करीब ही कुछ बेंच लगे हुये थे, जिस पर पहले से ही छह लड़के बैठे थे। जैसे ही दिवाकर कमरे के दाखिल हुआ और यह बताया कि वह अंग्रेजी पढ़ना चाहता है प्रो. यादव ने छूटते ही पूछा,  “कौन जात हो ?”

“भूमिहार”, दिवाकर ने उसकी आंखों में आंखे डाल कर कहा।

भूमिहार सुनते ही एस.पी. यादव के चेहरे का रंग बदल गया। ऐसा लग रहा था कि उसने एक साथ कुनैन की कई गोलियां निगल ली हो। उसने इशारे से दिवाकर को अपने करीब आने को कहा और फिर अपने चेहरे को आगे कहते हुये कहा, “मेरे दोनों कानों को देखो। एक छोटा है और एक बड़ा। पता है ऐसा क्यों क्यूं है?”

वह कुछ देर तक पलक झपकाते हुये उत्तर के इंतजार में दिवाकर की तरफ देखता रहा, लेकिन जब उसे यकीन हो गया कि दिवाकर की तरफ से कोई कोई जवाब नहीं मिलेगा तो उसने कहा, “यह एक भूमिहार की वजह से हुआ है। मैं बच्चा था, तकरीबन छह साल का। उस वक्त मैं गांव में रहता था। एक दिन मैं उसकी खाट पर बैठ गया था। उसने मेरी कान में जोर से उमेठ लगा दी थी। मुझे काफी दर्द हुआ था। इसके बाद से मेरे कान का ग्रोथ ही रुक गया, जो आज तक रुका हुआ है। अब तुम मुझे यह बताओ कि मैं तुम्हें क्यों अंग्रेजी पढाऊ?  तुम्हें अंग्रेजी सीखने के लिए अपने जात बिरादरी के प्रोफसरों के पास जाना चाहिए, जैसे लोग अपने जात बिरादरी के डॉक्टरों के पास इलाज कराने जाते हैं। सारे प्रोफेसर अपनी दुकान खोल कर बैठे हुये हैं। क्लास में पढ़ाएंगे नहीं, बच्चों को घर पर बुलाएंगे और सिर्फ नोट देंगे, मोटी रकम वसुलेंगे। हां, तो बताओ मैं तुम्हें क्यों अंग्रेजी पढ़ाऊ ? तुम भूमिहारों का खून तो वैसे भी गरम होता है। मेरे मुंह से उल्टा सीधा निकलता रहता है। पता चला कि किसी दिन तुम और तुम्हारे खानदान के लोगों ने गोली बंदूक लेकर मुझ पर ही धावा बोल दिया।”

दिवाकर को सूझ नहीं रहा था कि एस.पी. यादव को क्या जवाब दे। बेंच पर बैठे हुये लड़के एस.पी. यादव की बातों को सुनकर सिर नीचे झुकाकर मुस्करा रहे थे। उनकी मुस्कराहट को ताड़ते हुये एस. पी. यादव एक बार फिर शुरु हो गया, “ इनको देखो, सभी अगड़ी जाति के लौंडे हैं। मुझे मालूम हैं. ये यहां मुझसे अंग्रेजी पढ़ते हैं और फिर बाहर निकलकर मुझे गालियां देते हैं। अहीर या फिर दूसरी पिछड़ी जातियों के बच्चे मेरे पास पढ़ने के लिए नहीं आते हैं। और आते भी हैं तो टिकते ही नहीं है। मैं तो ग्रामर का खूब एक्सरसाइज करवाता हूं और साथ ही लिटरेचर भी चलता रहता है। अब पंडित नेहरू की डिस्कवरी और ऑफ इंडिया और गिल्मज ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री को समझने के लिए जोर तो लगाना ही पड़ेगा। बस यही पर दलितों और पिछड़ों के बच्चे के मात खाते हैं। हां, तो मैं यह पूछ रहा था कि आखिर तुम्हें मैं क्यों पढ़ाऊ ?”

“क्योंकि मैं आपको फीस दूंगा”, दिवाकर ने सपाट सा जवाब दिया।

उसके जवाब को सुनकर एस. पी. यादव के होठों पर मुस्कान दौड़ गई। अपनी तमाम कुरुपता के बावजूद मुस्कराते हुये वह एक बच्चे जैसा प्रतीत हो रहा था। वह उन लोगों में से था जिनकी सोच, बोली और कार्य में अंतर नहीं होता है। वह जो सोचता था वही बोलता था और वही करता था। वह बोलते वक्त इस बात का बिल्कुल परवाह नहीं करता था कि सामने वाले पर इसका क्या प्रभाव पड़ रहा है। वह बेखौफ होकर अपनी बातों को रखने में यकीन रखता था और बिना लाग लपेट के सच्चाई को स्वीकार भी करता था। यही वजह है कि दिवाकर का सपाट सा संक्षिप्त जवाब उसे पसंद आया।

उसने दिवाकर पहली बार दिवाकर पर एक भरपूर नजर डाली और बोला,“ मैं कहने को प्रोफेसर हूं और एक कॉलेज में पढ़ाता हूं। कॉलेज भी मेरे जात बिरादरी के एक नेता नाम पर है। जब तक नेता जी जिंदा थे तब तक तो सबकुछ ठीक ठाक था। लेकिन उनके मरने के बाद कॉलेज का प्रबंध उसके बेटे ने संभाल ली। वह एक नंबर का दारूबाज और छोकरीबाज है। दिनरात इसी में रमा रहता है। पिछले सात महीने से कॉलेज के किसी भी प्रोफेसर या स्टाफ को वेतन के नाम पर एक दमड़ी नहीं मिली है। इसके लिए हमलोगों ने कई बार प्रदर्शन भी किये और पुलिस की लाठियां भी खाई लेकिन उसके कान पर जूं तक नहीं रेंग रहा। मेरा एक बेटा और एक बेटी है। दोनों एम.ए. कर रहे हैं। मुझे अपनी परवाह नहीं है, लेकिन इनको पढ़ाने के लिए मुझे पैसों की जरुरत है। बस, दो तीन साल और, फिर तो ये अपना रास्ता खुद ही पकड़ लेंगे।” इतना कहने के बाद एस.पी.यादव थोड़ी देर के लिए रुका और कुछ सोचने लगा। उसकी छोटी-छोटी मटमैली आंखें सिकुड़ गयी थी और होठों की मुस्कान भी गायब हो गयी थी। छत की तरफ देखते हुये मानों काफी गहराई के साथ वह कोई बड़ी बात कह रहा हो एक फिलॉसफर वाले अंदाज में शुरु हो गया, “शिक्षा ही इंसान को इंसान बनाता है। ऐसी व्यवस्था जो इंसान को इंसान बनाने के लिए धन पर आधारित हो समाप्त हो जानी चाहिए। लेकिन यह फलसफे की बात है। प्राचीन यूनान में सोफिस्टों ने शिक्षा को धंधा बनाया था। शिक्षा ही उनकी कमाई का जरिया था। और अब तो हर तरह के तत्वों ने इसमें अपना हाथ डाल दिया है। मुनाफाखोरों ने शिक्षा को भी कारोबार बना दिया है। मुनाफाखोरी के सांचे में ढालकर जो शिक्षा बच्चों की दी जा रही है वो उन्हें मुनाफाखोर के अलावा और भला क्या बना सकती है ? ”

“तो आप क्या आप चाहते हैं कि सभी बच्चों को फ्री शिक्षा दी जाये?”, दिवाकर ने पूछा।

“फिलहाल तो बिल्कुल नहीं। मैं तुम्हें पढ़ाऊंगा। लेकिन मेरी कुछ शर्तें होंगी।”

“कैसी शर्तें?”

“सभी छात्रों से मैं एक सौ पचीस रुपये महीने में लेता हूं, वो भी एडवांस। चुंकि तुम भूमिहार हो इसलिए तुमसे 150 रुपये लूंगा। 25 रुपये ज्यादा। वह इसलिए कि एक भूमिहार के ऐंठने की वजह से मेरे कान आज तक छोटे रह गये। इसका खामियाजा तो इस जाति के लोगों से वसूल करना ही पड़ेगा। दूसरी शर्त यह होगी कि मैं सप्ताह में सिर्फ तीन दिन ही पढ़ाऊंगा और जो भी काम तुम्हें दिये जाएंगे करने के लिए उसे तुम्हें किसी भी कीमत पर करके लाना होगा। काम न करने की स्थिति में यहां आने की जरुरत नहीं है। किसी भी भाषा और सहित्य की पढ़ाई का कोई अंत नहीं है, यदि 50 साल भी पढ़ो तो कम है। कहने का मतलब यह है कि भाषा और साहित्य की पढ़ाई जितना ज्यादा करोगे तुम्हें उतना ही अधिक अपने खालीपन का अहसास होगा।  इसलिए यह पूरी तह से तुमपर निर्भर करेगा कि तुम्हें कब तक पढ़ना है। जब तुम्हें लगे कि तुम इतना कुछ सीख चुके हो कि अब आगे तुम्हें मेरी जरुरत नहीं है तो तुम चले जाना। और सबसे आखिरी और जरूरी बात। मैं अकेले किसी को नहीं पढ़ाता। इसलिए तुम्हें अपने बैच में पांच अन्य लड़कों को लाना होगा। यदि नहीं ला सकते तो यहां दुबारा आने की जरुरत नहीं है।”

“आपकी बाकी की शर्तें तो ठीक है। मुझे मानने में कोई परेशानी नहीं है। लेकिन अंग्रेजी पढ़ने वाले ये पांच बच्चे मैं कहां से लाऊंगा ? ”,  थोड़ी हिचकिचाहट के साथ दिवाकर ने पूछा।

“यह मुझे नहीं पता। मेरी जो शर्ते थी वह मैने सुना दी। अब इन्हें पूरा करो या फिर दफा हो जाओ। तुम चाहो तो किसी से भी पूछ लो, मैं अकेले बच्चे को नहीं पढ़ाता।”

“यदि आपको छह बच्चों की फीस दी जाये तब भी नहीं है? ”

“तब भी नहीं।”

“भला ऐसा क्यों? आपको तो फीस से मतलब होनी चाहिए। ”

“सवाल सिर्फ फीस का नहीं है। मैं यदि एक बात एक साथ छह बच्चों के सामने रखता हूं तो सभी बच्चे उस बात को अपने अपने तरीके से ग्रहण करते हैं। इससे मुझे पता चलता रहता है कि मेरी बातों का असर अलग- अलग बच्चों पर क्या हो रहा है। इससे मुझे बच्चों को शिक्षित करने की अपनी तकनीक में सुधार करने का अवसर मिलता रहता है। यदि एक बच्चे को पढ़ाऊंगा तो सिर्फ एक ही प्रतिक्रिया आएगी, एक ही तरह के परिणाम आएंगे। मैं अपने बनाये हुये नियमों के खिलाफ नहीं जा सकता। अब अगर मुझसे वाकई में पढ़ना चाहते हो तो यहां समय गवांने के बजाये अपने बैच के लिए अन्य पांच लडकों की तलाश करो।”

जारी ……………

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