नीतीश एक त्यागी, तपस्वी और विराट मानव बन सकते थे —-
वरिष्ठ पत्रकार अखिलेश अखिल अपने फेसबुक के वाल पेपर पर नीतीश कुमार से मुत्तालिक टिप्पणी किये हैं। और यह बता रहे हैं कैसे वह नेक्स जेपी बनने से चूक गये। इसके बाद उनके वाल पेपर पर प्रतिक्रियाएं शुरु हो गई। गुजरते हैं नीतीश कुमार की राजनतीति पर की गई कुछ रोचक और गंभीरत विमर्श से।
यह बात और है कि राजनीति अपनी लीक पर ही चलती है। उसके अपने मिजाज होते हैं और शोर्ट कट रास्ते भी । लेकिन लोकतंत्र में विपक्ष भी कोई चीज होती है। नीतीश विपक्ष के अगुआ हो सकते थे वे मोदी के विकल्प के रूप में एक ही तरीके से उभर सकते थे कि मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने के बाद दोबारा सत्ता की जुगाड़ करने के बजाय पूरे बिहार के राजनीतिक दौरे पर निकल पड़ते और उसके बाद पूरे देश का दौरा करते। लोग एक त्यागी-विरागी नेता को सुनने उमड़ पड़ते और फिर बिहार के खेत-खलिहानों से एक और जयप्रकाश नारायण का जन्म होता। तब मोदी के वर्चस्व के ख़िलाफ़ नीतीश को विपक्ष की राष्ट्रव्यापी एकता केंद्र के रूप में देखा जा सकता था। लेकिन अब क्या। चलिए बिहार को ठीक करिए बड़ा उपकार होगा।Top of Form
देखिये इस नवीन कुमार राय क्या कह रहे हैं….
Navin Kr Roy आप सभी भाई लोग नीतीश जी को दूसरे जयप्रकाश नारायण बनाने या बनने की बात कर रहे हैं कि वे यह मौका चूक गए । क्या आज हमारा देश वैसे ही दौर से गुजर रहा है जैसे राजनीतिक दौर में जयप्रकाश जी का पदार्पण हुआ था? आज जयप्रकाश जी के उत्तराधिकारियों को पूरा देश देख रहा है और नीतीश जी भी देख रहे हैं। उस समय पूरा देश कांग्रेस सरकार की नीतियों से प्रभावित था और विरोध की लहर हर जगह चल रही थी । जयप्रकाश जी ने अपने आंदोलनों से उस विरोध को केंद्रित कर विरोधियों को एक मंच पर लाने में सफलता प्राप्त की । पर आज एक तो देश में उस तरह का भाजपा विरोधी लहर नहीं है और दूसरी, आज अनगिनत महत्वाकांक्षी विपक्षी नेता मौजूद हैं जो विभिन्न क्षेत्रीय दलों में विभक्त हैं । ये सभी अपने-अपने राज्यों के नितीश कुमार ही हैं और सभी प्रधानमन्त्री पद पर अपनी-अपनी दावेदारी जताते रहते हैं । सबसे महत्वपूर्ण बात तो ये कि उस वक्त कांग्रेस का विरोध कर लड़ाई जातिगत आधार पर नही लड़ी जा रही थी, जबकि आज चाहे वो मुलायम या अखिलेश हों,या मायावती हो या लालू हों या कांग्रेस ही क्यों न हो, ये सभी अगड़े-पिछड़े, आरक्षण, अल्पसंख्यक तुष्टिकरण, आदि जैसे मुद्दे को आधार बनाकर मोदी विरोध कर रहे हैं । ऐसे में इस तरह की अपेक्षा करना ही न्यायसंगत नही प्रतीत होता है।और अंत में नीतीश जी के इस कदम को सिद्धांतविहीन राजनीति की संज्ञा तो जरूर दी जा सकती है,पर सिद्धांतों से समझौता का शायद इससे भी बुरा उदाहरण उनका लालू और कांग्रेस से समझौता कर सरकार बनाना था। क्योंकि नितीश जी राजनीति में पदार्पण कांग्रेस विरोध के मुद्दे पर हुआ था और सत्ता में पदार्पण लालू के जंगलराज विरोध के मुद्दे पर।
Alok Sharma आदरणीय नवीन जी आपकी बातों से पूर्णतः सहमत हूँ!मै बीजेपी की बुराई और लालू या उनके राज्य का समर्थन नहीं करता!लेकिन बिहार की जनता को शायद लालू और नितीश जी की जोड़ी पसन्द आयी तभी अधिकतम प्रतिशत से दोनों का गठबन्धन बहुमत प्राप्त किया था!उस समय जनता लालू कांग्रेस और नितीश को एक मानते हुए चुनी थी कि ये बीजेपी विरोधी है!और आज नितीश बीजेपी के विरोध में वोट लेकर बीजेपी के साथ सरकार बना लिए यह लोकतन्त्र में जनमत के साथ कैसा न्याय है सर!
Akhilesh Akhil आप भाई लोग कुछ ज्यादा ही परेशान हो रहे हैं . आखिर क्यों ? हम लोग अक्सर लोकतंत्र और संविधान कि बात करते हैं लेकिन नेता के लिए लोकतंत्र गिरवी से ज्यादा कुछ नहीं . भारत के इस राजनीतिक नर्तन का मजा लीजिये और ठहाका लगाइए भाई लोगन . वह भी प्रेम से .
Roy Manoranjan Prasad सो तो ठीक है , लेकिन उम्र के लिहाज़ा ” कल किसने देखा है “? शायद मोदी जी को beat करने में सारी उम्र गुज़र जाती और जय प्रकाश जी की तरह स्वर्ग से अनुयायियों को देखकर अफ़सोश ही होता ।