बाजार के चंगुल में है अकाल से निजात दिलाने वाली मिथिला चित्रकला

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संजय मिश्र, नई दिल्ली

मिथिला में ये धारणा रही है कि बाढ़ के बाद अकाल नहीं आता ,इसलिए कि हिमालय से आने वाली नदियों में पानी के साथ गाद आता है जो खेतों में जमा होता रहता है। ये नई मिट्टी उपज बढ़ाती है। लेकिन नदियों को बाँधने वाली अव्यावहारिक और आधी-अधूरी योजनाएं इस प्राकृतिक सिस्टम से खिलवाड़ करने वाली साबित हुई। इसका असर साठ के दशक से ही दिखना शुरू हुआ लिहाजा लोगों का जीवन और दुरूह होता गया। साल 1967 तक इस इलाके में अकाल की ताप मारक हो गई। इससे निपटने के लिए केंद्र सरकार ने लोगों को रोजगार देने वाली कई योजनाएं बनाई। इसी के तहत मिथिला चित्रकला को दुनिया की पहुँच में लाने और इससे जुड़े कलाकारों को रोजी के अवसर जुटाने पर काम शुरू हुआ।
साल 1965 की बात है….चहल-पहल से दूर रहने वाले मधुबनी रेलवे स्टेशन पर एक दुबला व्यक्ति जब उतरा तो उसका सामना लोगों की सूनी आँखों से हुआ। मिथिला चित्रकला को लेकर उसने बहुत मंसूबे बाँध रखे थे। उसके मन में जहां इस परंपरा को दुनिया भर में फैलाने की उत्कंठा थी वहीं इसे पेशेवर रूप देने की लालसा थी। इसका सुलभ उपाय ये था कि चित्रकला को भीत की सतह से उतार कर कागजों पर लाया जाए। पहले तो मिथिला चित्रकला लिखने वाली महिलाएं हिचकिचाई। फिर शुरू हुआ ट्रेनिंग का दौर। कुछ ही महीनों की मेहनत के बाद कलाकारों की उंगलियाँ कागज़ पर ही सृजन के सोपान गढ़ने लगी।

सर जे जे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स से ग्रेजुएट यह व्यक्ति भाष्कर कुलकर्णी था। अफ्रीकी देशों की चित्रकला का गहन अध्ययन कर चुके कुलकर्णी ने पहले तो खुद मिथिला चित्रकला सीखी और तब शुरू हुआ प्रयोगों का दौर। ये सिलसिला अवरोधों के बावजूद लगभग दो दशक तक चला। साल 1983 में लम्बी बीमारी के बाद दरभंगा में कुलकर्णी की मौत हो गई। उनका सबसे बड़ा योगदान ये था कि उन्होंने मिथिला चित्रकला के प्रतीकों को ‘ सेक्वेन्सिंग ‘ दी। कागज पर चित्रकला को उतारने के लिए ये बेहद जरूरी था। जबकि समाज-सेविका गौरी मिश्र ने इस चित्रकला को नई थीम देने में बढ़-चढ़ कर दिलचस्पी दिखाई। जानकारी के मुताबिक़ मिथिला चित्रकला से जुड़े कुलकर्णी के कई स्केच और सूत्र उनकी डायरियों में हैं जो प्रकाश में लाइ जानी चाहिए। इनमे कई डायरियां गौरी मिश्र के पास हैं।

भाष्कर कुलकर्णी अकेले बाहरी व्यक्ति नहीं थे जिन्होंने इस चित्रकला को बढ़ावा दिया। रेमंड, डब्ल्यू सी आर्थर, जोर्ज लूबी, एरिका मोज़े, होसेगावा जैसे कला प्रेमियों ने विदेशों में इसको बढ़ावा देने में काफी सहयोग दिया। जहाँ पुपुल जयकर ने देश के विभिन्न राज्यों में प्रदर्शनी लगाने में सहयोग किया वहीं उपेन्द्र महारथी ने इस कला परंपरा के विभिन्न परतों को खोला। महारथी ने कई गाँव का सघन दौरा किया साथ ही बिहार ललित कला अकादमी के जरिये इसका प्रचार किया। अब ये आलीशान घरों के ड्राइंग रूमों, सितारा होटलों और कोर्पोरेट भवनों की कौरीडोरों की शोभा बढ़ाने लगी। विदेशों में इसका बाज़ार बनाने में पूर्व विदेश व्यापार मंत्री ललित नारायण मिश्र ने बड़ी भूमिका निभाई।
बाज़ार बनते ही बिचौलियों की जाति पनपी। ये वर्ग जरूरी भी था पर कलाकारों के शोषण का कारण भी बना हुआ है। इस जरूरी मुसीबत से पार पाने के रास्ते कलाकारों को नहीं मिले हैं। पेंटिंग के वाह्य स्वरुप में परिवर्तन तो आया ही साथ ही थीम में प्रयोगों की होड़ सी मच गई। कागज के केनवास पीछे छूटे….अब तो कपडे, कार्ड्स से लेकर प्लास्टिक पर भी ये चित्रकला छा गई है। टिकुली, ग्रीटिंग कार्ड्स, अन्तः और वाह्य वस्त्र, चुनाव प्रचार सामग्री तक में ये जगह बना चुकी है।

सीता और राम के कोहबर में इस चित्रकला के लिखे जाने की चर्चा रामायण में है। कोहबर यानि नव-विवाहितों के शयन कक्ष से शुरू हुई ये यात्रा समय के थापेरों से बेपरवाह बनी रही, लेकिन आज ये बाज़ार की चंगुल में है। प्रयोगों की अधिकता के नतीजे अवसर बढ़ाने के साथ सवाल भी उठा रहे।

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