लिटरेचर लव
महिलाओं का ‘राइट टू रिजेक्ट’
अशोक मिश्र
रविवार को सुबह थोड़ी देर से उठा। उठते ही घरैतिन के सुलोचनी चेहरे के दर्शन नहीं हुए, तो मैंने अपनी बेटी से पूछा, ‘तेरी मां नहीं दिखाई दे रही है। कहीं मेरे देर तक सोते रहने के विरोध में धरने-वरने पर तो नहीं बैठ गई हैं।’ बारह वर्षीय बेटी ने पानी के साथ चाय का प्याला पकड़ाते हुए मुस्कुराकर कहा, ‘नहीं पापा! आज सुबह से ही मोहल्ले की आंटीज आई हुई हैं। उन्हीं से बातें कर रही हैं। शायद उनकी छोटी-मोटी बैठक हो रही है।’ मैंने पानी पीने के बाद चाय का प्याला उठाया और बरामदे की ओट में कुर्सी लगाकर बैठकर अखबार पढ़ने लगा। दीवार के दूसरी तरफ थोड़ा सा खुला स्थान था, जहां पड़ी पांच-छह कुर्सियों पर ये महिलाएं विराजमान थीं। पड़ोस वाली मिसेज सुलोचना कह रही थीं, ‘जिज्जी! यह तो गलत है न! सारे मर्द एक जैसे नहीं होते। माना कि मेरा मर्द थोड़ा टेढ़ा है। दिन में एक बार जब तक ‘तू-तू, मैं-मैं’ नहीं कर लेता, तब तक उसे खाना नहीं हजम होता। लेकिन प्यार भी तो कितना करता है। सबके सामने भले ही गुर्राए, लेकिन बाद में कान पकड़कर माफी भी तो मांगता है। थोड़ी-सी बात पर पति को रिजेक्ट कर देना शायद सही नहीं होगा। पति को रिजेक्ट करने का राइट मिलते ही कई बार ‘राइट’ भी रिजेक्ट हो जाएंगे। यह तो बेचारे पति पर अत्याचार होगा न!’
मिसेज सुलोचना की बात पूरी होने से पहले ही चंदेलिन भाभी ने कहा, ‘ज्यादा ‘म्याऊं म्याऊं’ मत करो। अभी पिछले हफ्ते ही दारू पीकर आया था, तो किस तरह तुम्हें और बच्चो ंको रुई की तरह धुन कर रख दिया था। तब तुम किस तरह बछिया की तरह बिलबिला रही थीं। वह तो कहो कि अंकिता के पापा मेरा थोड़ा लिहाज करते हैं, तो उसने तुम्हें पीटना बंद कर दिया था। बड़ी आई भतार की तरफदारी करने वाली। चंदेल मुझे बात-बात पर आंख दिखाते हैं। घर से निकाल दूंगा, खाना-कपड़ा मैं देता हूं, जैसा कहता हूं, वैसा करो। कई बार तो ‘हत्तेरे की, धत्तेरे की’ भी हो जाती है। सोचो, अगर हम औरतों के पास राइट टू रिजेक्ट जैसा हथियार होता, तो क्या चिंटू के पापा, बबिता के पापा, सोनी के पापा, नमिता के पापा हम औरतों को आंख दिखा पाते। मैं तो कहती हूं कि ज्यादा सोच-विचार करने से कोई फायदा नहीं। सीधे चलते हैं मुख्यमंत्री आवास, वहां मुख्यमंत्री की पत्नी के नेतृत्व में धरना प्रदर्शन करते हैं। वहां भी बात न बने, तो सीधे दिल्ली चलते हैं। प्रधानमंत्रानी (प्रधानमंत्री की पत्नी) को ज्ञापन सौंपते हैं और उनसे कहते हैं कि जब तक यह बिल संसद में पास नहीं होता, तब तक वे भी सारे कामों में हड़ताल रखें।’ चंदेलिन ने ‘सारे’ शब्द पर कुछ ज्यादा ही जोर दिया। चंदेलिन की बात सुनते ही मेरे होश उड़ गए। मैं समझ गया कि अगर ये महिलाएं सफल हो गईं, तो हम पुरुषों के सिर पर गाज गिरने वाली है। बदहवासी में अखबार मेरे हाथ से छूटकर गिर गया। मैं कान लगाकर उनकी बातें सुनने लगा।
‘जिया..(जिज्जी का अपभ्रंश)..राइट टू रिजेक्ट मामले को काफी ठोंक-बजा लेना ही ठीक होगा। कहीं ऐसा न हो कि लेने के देने पड़ जाएं।’ यह मेरी पत्नी की आवाज थी। वह कह रही थीं, ‘अब मेरा ही उदाहरण लो। वैसे तो हम दोनों में कोई मतभेद ज्यादा दिन तक नहीं टिकता। कारण कि जिस दिन बात ‘तू-तू, मैं-मैं’ और हाथापाई तक पहुंचती हैं, तो मैं भी पीछे नहीं रहती। वे एक जमाते हैं, तो आधा जमाने में मैं भी पीछे नहीं रहती। थोड़ी देर मुंह फुलाकर हम दोनों मामले को रफा-दफा कर देते हैं। कई बार मैं ही पहल कर लेती हूं, तो कभी वे। नहीं हुआ, तो बच्चे बीच में आकर समझौता करवा देते हैं। अगर राइट टू रिजेक्ट लागू हो गया, तो जाहिर सी बात है कि मैं दबंग हो जाऊंगी। अभी तो वे एक सुनाते हैं, तो मैं दो सुनाकर अपने काम में लग जाती हूं। जब एक बार रिजेक्ट कर दूंगी, तो फिर क्या होगा? फिर तो…?’ घरैतिन के ‘तो…’ कहते ही वहां सन्नाटा छा गया। मुझे भी गुस्सा आया, ‘जो बात पर्दे के भीतर रहनी चाहिए, वह भी यह सारे मोहल्ले की औरतों के बीच बैठी गा रही है। मेरी क्या इज्जत रह जाएगी इन औरतों के सामने?’ मन ही मन मैंने भगवान से दुआ की, ‘हे भगवान! सबसे पहले तो मुझे ‘राइट टू रिजेक्ट’ का अधिकार दिला दो, ताकि इस बददिमाग औरत की अकल ठिकाने लगा दूं।’
‘सुनौ रामू की अम्मा! यह चोंचला छोड़ो। जैसा चल रहा है, वैसा चलने दो। हमने तो अपनी जिंदगी ऊंच-नींच, नरम-गरम काट लई। अब बुढ़ापे मा बुढ़वा का कैसे छोड़ देई। मर्द को छोड़ना-रखना, कोई बच्चों का खेल है क्या?’ मेरे घर के पीछे रहने वाली रामदेई काकी की यह आवाज थी, ‘ई पंडिताइन बहूरिया, ठीक कहती हैं। एक बार छोड़ै के बाद कौन मुंह लेकर उनके सामने जाएंगे।’ चंदेलिन गरजती हुई आवाज में बोलीं, ‘काकी! आपकी जिंदगी बीत गई, इससे आप सोचती हैं कि मुझे क्या लेना देना है राइट टू रिजेक्ट का। आप उन बहिनों के बारे में सोचो, जिनकी जिंदगी इन मर्दों ने नरक बना दी है। और जहां तक मर्दों के साथ होने वाले अत्याचार की बात है, तो हम सरकार से राइट टू रिकाल का भी हक साथ ही मांग रहे हैं न! अगर ऐसा लगा कि हमसे कोई गलत फैसला हो गया है, तो दूसरे हाथ में उन्हें वापस बुलाने का अधिकार तो रहेगा ही। देखो काकी! आप चाहे जो कहो, अब हम औरतों को राइट टू रिजेक्ट और राइट टू रिकॉल के हक से कोई महरूम नहीं कर सकता। हम इसे लेकर रहेंगे। भले ही इसके लिए कुछ भी करना पड़े।’ इसके बाद चीनी मिट्टी के बने कप-प्लेटों के खड़कने की आवाज आने लगी। इससे मुझे लगा कि बेटी ने वहां उपस्थित महिलाओं को चाय देना शुरू कर दिया है। मैं समझ गया कि इनकी सभा समाप्त हो गई है। मैं उठकर अपने नित्य के काम में लग गया।
अशोक मिश्र
पिछले 23-24 वर्षों से व्यंग्य लिख रहा हूं. कई छोटी-बड़ी पत्र-पत्रिकाओं में खूब लिखा. दैनिक स्वतंत्र भारत, दैनिक जागरण और अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित अखबारों में भी खूब लिखा. कई पत्र-पत्रिकाओं में नौकरी करने के बाद आठ साल दैनिक अमर उजाला के जालंधर संस्करण में काम करने के बाद लगभग दस महीने रांची में रहा. लगभग एक साल दैनिक जागरण और एक साल कल्पतरु एक्सप्रेस में काम करने के बाद अब साप्ताहिक हमवतन में स्थानीय संपादक के पद पर कार्यरत हूं. मेरा एक व्यंग्य संग्रह ‘हाय राम!…लोकतंत्र मर गया’ दिल्ली के भावना प्रकाशन से फरवरी 2009 में प्रकाशित हुआ है.