सुष्मिता के लिए महफूज नहीं था अफगानिस्तान

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अफगानिस्तान में सुष्मिता बनर्जी की बेरहमी से की गई हत्या से साहित्य जगत के लोग सकते में हैं और साथ ही यह प्रश्न भी पूछ रहे हैं कि वह अफगानिस्तान में दोबारा गई ही क्यों थी?  अफगानिस्तान में अपने निजी अनुभवों को उन्होंने ‘काबुलीवाला बंगाली बहू’ के नाम से   डायरी की शक्ल में व्यक्त किया था। इसके बाद से उन्हें लगातार धमकियां मिल रही थीं। इस पुस्तक में उन्होंने बड़ी बेबाकी से अफगानिस्तान की महिलाओं के बारे में लिखा था, जिनकी जिंदगी तालिबान शासन के दौरान महज चारदीवारी में कैद हो कर रह गई थीं। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं से भी उन्हें पूरी तरह महरूम कर दिया गया था। बड़ी मुश्किल से अफगानिस्तान से निकलने के बाद सुष्मिता बनर्जी पिछले 18 साल से कोलकाता में एक  अपार्टमेंट में रह रही थीं। फिर अचानक उन्होंने अफगानिस्तान वापसी का निर्णय लिया और इस बार पहले से घात लगाये उनके विरोधियों ने उन्हें बड़ी बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया। जिस तरह से उनके पति और परिजनों को बांध कर उन्हें घर से खींचकर ले जाया गया और बाद उनके शरीर में तकरीबन 20 गोलियां उतार दी गईं, उससे साफ पता चलता है कि हत्यारे उनसे बेइंतहा नफरत करते थे। सुष्मिता बनर्जी भी इस बात को अच्छी तरह से जानती थीं कि अफगानिस्तान की जमीन उनके लिए माकूल नहीं है। भले ही वहां पर मगरबी फौज की मदद से एक डेमोक्रेटिक शासन की स्थापना कर दी गई हो, लेकिन आज भी अफगानिस्तान में तालिबानियों का वर्चस्व पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है। अपने सुनहरे दिनों की वापसी की मंशा पाले हुये वे आज भी उन लोगों का सफाया करने में लगे हुये हैं, जो उनका विरोध करते हैं। ऐसे में सुष्मिता बनर्जी तालिबान की सहज शिकार थी। और सबसे बड़ी बात गलतियों से कुछ न सीखने की उन्होंने कसम खा ली थी।
अफगान कारोबारी से शादी
सुष्मिता बनर्जी का जन्म कोलकाता में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता सिविल डिफेंस डिपार्टमेंट में काम करते थे, जबकि मां एक घरेलू महिला थीं। वह अपने तीन भाइयों के बीच अकेली बहन थी, जिसकी वजह से उन्हें शुरू से ही घर में भरपूर लाड़-प्यार मिला और वह थोड़ी जिद्दी होती चली गईं। कोलकाता में ही एक नाटक के अभ्यास के दौरान उनकी मुलाकात एक अफगानिस्तानी व्यपारी जांबाज खान से हुई और उन्हें प्यार हो गया। उन्होंने तत्काल शादी करने का भी निर्णय ले लिया। अपने परिवार के लोगों को उन्होंने इसकी भनक तक नहीं लगने दी क्योंकि उन्हें पता था कि इस शादी के लिए उनके माता-पिता कभी राजी नहीं होंगे? दो जुलाई, 1988 को उन्होंने जांबाज खान से शादी कर ली और इसके साथ ही सुष्मिता बनर्जी के बुरा समय शुरू हो गये। घरवालों को जब इस शादी के बारे में पता चला तो उन्होंने सुष्मिता बनर्जी पर तलाक के लिए दबाव डालना शुरू किया। वह अपने पति के साथ भाग कर अफगानिस्तान चली गईं। वहां जाने के बाद जब उन्हें पता चला कि उनका पति पहले से ही शादी-शुदा और चार बच्चों का बाप है तो उनके पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। चूंकि जांबाज खान से शादी का निर्णय उनका अपना था, इसलिए उन्होंने समझौते का रास्ता अख्तियार करते हुये वहां रहने लगीं। अपने कारोबार को चलाने के लिए बाद में जांबाज खान कोलकाता आ गया लेकिन सुष्मिता बनर्जी वहीं रह गईं।
मुश्किल में जिंदगी
सुष्मिता बनर्जी धीरे-धीरे अफगानिस्तान की आबोहवा को समझने लगी थी। सईदा नाम की एक प्रशिक्षित नर्स की मदद से उन्होंने महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर गंभीर काम करने शुरू किये। उस दौरान तालिबान अपने उफान पर था। महिलाओं को पूरी तरह से हाशिये पर ढकेला जा रहा था। परिवार से बाहर किसी अन्य मर्द से उन्हें बात करने की भी इजाजत नहीं थी। हर वक्त उन्हें घर के अंदर ही रहना पड़ता था। स्कूल, कालेज और अस्पताल धड़ाधड़ बंद किये जा रहे थे। अफगानिस्तान का पूरी तरह से इस्लामीकरण हो रहा था। इसका सबसे बुरा असर महिलाओं की स्थिति पर पड़ रहा था। तालिबानियों को जब पता चला कि सुष्मिता बनर्जी अपने घर में महिलाओं के लिए क्लीनिक चला रही हैं तो उन्होंने धावा बोल दिया। बुरी तरह से पिटाई करने के बाद उन्हें इस चेतावनी के साथ छोड़ा गया कि आइंदा वह इस तरह के काम से अपने आप को दूर रखते हुये घर के अंदर ही रहेंगी। इसके बाद उन्होंने अफगानिस्तान से निकलने की दो मर्तबा कोशिश की लेकिन उन्हें गिरफ्तार करके गांव के ही एक मकान में कैद कर दिया गया। उनके खिलाफ एक फतवा जारी किया गया, जिसके मुताबिक 22 जुलाई, 1995 को उन्हें हलाक किया जाना था। लेकिन किसी तरह से गांव के मुखिया की मदद से वह वहां से निकलने में कामयाब हो गई। वह काबुल पहुंचीं और 12 अगस्त, 1995 को वहां से कोलकाता के लिए उड़ान भरी। उसके बाद वर्ष 2013 तक वह भारत में ही रहीं। इस दौरान उन्होंने कई किताबों का प्रकाशन करवाया। तालिाबन पर लिखे गये उनके तहरीरों को लोगों ने खूब पसंद किया और उनकी छवि एक निर्भीक महिला लेखिका के रूप में बनती चली गई। इसी दौरान उन्हें धमकियां भी मिलने लगीं।
दोबारा अफगानिस्तान वापसी
दोबारा अफगानिस्तान लौटने के बाद वह एक हेल्थ वर्कर के रूप में काम कर रही थीं। इसके अलावा वह स्थानीय महिलाओं की जीवन पर फिल्म भी बना रही थी। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा को अफगानिस्तान में झोंक दिया था। कोलकाता में रहने वाले उनके नजदीकियों का कहना है कि अफगानिस्तान से संबंधित उनके पास जितनी भी बातें थीं, उन्होंने उन्हें लिख दिया था। वहां पर जनतांत्रिक व्यवस्था स्थापित होने के बाद वह कुछ नया लिखना चाहती थीं और इसके लिए वह जमीनी स्तर पर काम करना जरूरी समझती थी। यही वजह है कि उन्होंने कोलकता में अपार्टमेंट की आरामदायक जीवन को छोड़ कर दक्षिणी अफगानिस्तान के पक्तिका प्रांत में काम करना बेहतर समझा। शायद उन्हें इस बात का गुमान नहीं था कि  एक बार अफगानिस्तान से सफलता पूर्वक निकलने के बाद दोबारा उन्हें यह मौका नहीं मिलेगा। आधिकारिक तौर पर तालिबान ने उनकी हत्या की जिम्मेदारी लेने से इंकार किया है। पुलिस मामले की पड़ताल कर रही है। पुलिस का कहना है कि कई कारणों से उन्हें निशाना बनाया गया है। अपनी किताबों को लेकर तो वह विवादास्पद थीं ही, इसके अलावा एक स्वास्थ्यकर्मी के तौर पर यहां काम कर रही थीं और सार्वजनिक रूप से बुर्का का बहिष्कार करती थीं। इसी बात के लिए उन्हें पहले भी अफगानिस्तान में एक अनैतिक महिला करार दिया गया था।
अपनी सुरक्षा को लेकर लापरवाही
वर्ष 2014 तक अफगानिस्तान से नाटो के नेतृत्व में सक्रिय फौज की वापसी तय है। लेकिन एक लंबे अरसे से जिस तरह से अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा खून-खराबा जारी है, उसे देखते हुये कहा जा सकता है कि वहां से नाटो की फौज के हटते ही तालिबानी एक बार फिर खुलकर राष्टÑपति करजई की हुकूमत को चुनौती देने लगेंगे। सुष्मिता बनर्जी भारत की एक प्रतिष्ठित महिला लेखिका थी। इसके अलावा अफगानिस्तान से भी उनका जमीनी जुड़ाव था। वहां की महिलाओं को सुधारने के लिए वह अपना पूरा जोर लगाये हुई थी। बेहरहमी से की गई उनकी हत्या इस बात का सूचक है कि अभी अफगानिस्तान में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं की जा सकती है कि सुष्मिता बनर्जी अपनी सुरक्षा को लेकर पूरी तरह से लापरवाह थीं। उन्हें इस बात को समझना चाहिए था कि अफगानिस्तान में सिर्फ हुकूमत बदली है, स्थिति अभी पूरी तरह से साजगार नहीं हुई है। और फिर तालिबान के खिलाफ किताब लिखकर दुनियाभर में उनकी फजीहत कराने के बाद उनके गढ़ में दोबारा घुसने का तुक किसी की समझ में नहीं आ रहा है। सुष्मिता बनर्जी के करीबी भी इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि उन्होंने दोबारा अफगानिस्तान में दाखिल होकर खुदकुशी की दिशा में ही कदम बढ़ाया था। अफगानिस्तान उनके लिए किसी भी मायने में महफूज नहीं था।

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