लाली-लाली डोलिया में लाली रे दुलहनियां

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अनन्त,

रेणु प्रेम के लेखक हैं तो उनकी तीसरी पत्नी लतिका जीवंत प्रेम की मिशाल। प्रेम की नयी ईबारत लिखने वाले कथाकार के जीवन की नायिका लतिका प्रेम व शादी को जीने वाली प्रेमिका ! पत्नी !! प्रेयसी!!! हैं। प्रेममय जीवन की प्रेरणा का प्रतिफल है ‘‘मारे गये गुलफाम’’नामक कहानी और उसपर बनीं फिल्म ‘‘तीसरी कसम।’’ इस फिल्म की कहानी से तनिक भी कम रोमांचक और मर्मस्पर्शी नहीं है लतिका और रेणु की प्रेम कहानी। हीरामन और हीराबाई के बीच का प्यार मानवीय प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण है तो, लतिका व रेणु का प्यार मानवीय प्रेम की धरातल पर मानवता की दास्तान लिखने वाली कथा। क्योंकि लतिका ने शादी के बाद रेणु को कहा:- ‘‘आज थेके तोमार भात-कापोड़ेर भार निलाम ।’’ अर्थात आज से मैं तेरे भात कपड़े आदी का भार उठती हूॅ। लतिका का यह फैसला संवेदनाओं की धरातल पर महिला सशक्तिकरण का लिखा गया अध्याय हैऔर रोमैंटिसिज्म का यह अदभुत नमूना सामाजिक बदलाव के लिये उठाया गया, क्रांतिकारी कदम भी। प्रेम रथ की सारथी रही लतिका द्वारा लिये गये साहसिक फैसले में छुपा है भारतीय समाजवाद का दर्शन। बताते चले कि लतिका का आरंभिक जीवन सुभाषचन्द्र बोस के समाजवादी सिद्धांतों से प्रेरित रहा है।

                रेणु और लतिका की शादी 5 फरवरी 1952 को वर्तमान झारखंड सूबा के हजारीबाग स्थित कुर्रा मुहल्ला में हुयी थी। श्री चारू चन्द्र राय चौधरी के ‘‘चारू’’ आवास में संपन्न हुयी, यह शादी कई मायनें में अविस्मरणीय है और नये विचारों एवं परंपराओं का संवाहक भी। दरअसल यह शादी समय की सामाजिक मर्यादाओं को तोड़ती है और नारी स्वतंत्रता की नई मिशाल भी पेश करती है। स्वार्थ से परे समर्पण की यह प्रेम कहानी स्त्री संघर्ष की वह दास्तन है, जो भारतीय प्रेम के दर्शन को शत प्रतिशत सत्यापित करती है। दरअसल रोगी रेणु से शादी करने के फैसले को लेकर लतिका के परिजनों ने विरोध किया था। समय और सामाजिक व्यवस्था के द्वारा संचालित होने वाले कुलीन बंगाली ब्राहमण परिवार की लतिका तमाम विरोध के बावजूद अपने फैसले पर अडिग रही। हजारीबाग स्थित कुर्रा मुहल्ले में रह रहीं लतिका की भाभी संध्या राय चौधरी बताती हैं कि ‘‘उनकी शादी विजय कुमार चटर्जी नामक डाक्टर के साथ लगभग तय हो चुकी थी। घरवाले लतिका को इस संबंध में बात करने वाले ही थे, कि इसी बीच उन्होंने घरवालों को अपना फैसला सुना दिया। लतिका का यह फैसला परिजनों को स्वीकार्य नहीं हुआ।’’ऐसा होना लाजिमी भी था, लतिका के परिवार का संस्कार अभिजात्य था। जहॉ समाज सामाजिक रूढ़ियों का गुलाम था और उनका परिवार भी इससे अछूता नहीं था। वहीं चारू परिवार के समक्ष यह चुनौती पहली बार सामने आयी थी।

संत कोलंबस कालेज हजारीबाग के हिन्दी विभाग के व्याख्याता एवं रेणु रचनावली के संपादक भारत यायावर कहते हैं कि ‘‘लतिका का परिवार हजारीबाग के प्रतिष्ठित परिवारों में एक था। घर में शैक्षिक माहौल होने बाद भी आधुनिकता सामाजिक मर्यादाओं के अनुकुल ही था।’’ लतिका की शादी के पहले ही उनके पिता का देहावसान हो चुका था। उनके बड़े भाई सुशील राय चौधरी , घर की लाडली मोकी अर्थात लतिका के फैसले से असमंजस में पडे़ थे। उनके विरोध का मुख्य कारण था रेणु का रोगी होना। बड़े भाई होने के नाते उन्होने लतिका को समझाया। जीवन में आने वाली विपतियों से अवगत कराया। वैधवयता के खतरे का भी अहसास कराया। लतिका अपनी जिद पर अडिग रहीं। भविष्य के भय ने भी लतिका को भयभीत नहीं किया और अपने फैसले पर अडिग रही । लतिका के साहस की वजह थी उसके दिल में रेणु के लिये उपजी ममता और त्याग, जिसके संबल के सहारे लतिका अपने परिजनों से प्रेम का धर्मयुद्ध लड़ रही थी। जिसका अंतिम मुकाम भी संघर्ष ही था। संघर्ष में सुख तालाश करने वाली लतिका से मैने पूछा था, कि जब आप पहली बार रेणु से मिली थीं तो उनकी क्या प्रतिक्रिया थी। इसपर पी0एम0सी0एच0 पटना में घटित 1944 की घटना को याद करते हुये उन्होने बतलाया था:- ‘‘ रूगणवस्था पर पड़े रोगी रेणु का हाल पूछने पर उसने ऑंखे खोली और मुझे देखता रहा , पर कुछ बोला नहीं। मैं वहां चल पड़ी ,फिर वह अन्य नर्स से मेरे बारे में पूछने लगा। बाद में वो मुझे पुर्जा लिखकर भेजता था कि आप मुझे देखने क्यों नहीं आतीं। मैं देखने जाती तो बहुत पूछने पर वह एक-दो बात बोलकर चुप हो जाता ’’ दरअसल पहली मुलाकात में ही मासूम रोगी रेणु के दिल में आशा और

विश्वास की किरण जगी थी। जिसकी कोमल भावनाओं एवं मासूमियत से भरी करूण पुकार के मर्म को गीतकार शैलेन्द्र के इस गीत को गुनगुनाकर समझा जा सकता है:-

                                तू प्यार का सागर है ,तेरी इक बूँद के प्यासे हम

लौटा जो दिया तुमने , चले जायेंगे जहाँ से हम …….

रेणु के जिगड़ी और जिद्दी मित्र महान गीतकार शैलेन्द्र द्वारा सीमा फिल्म के लिये लिखे गये इस गीत में याचना और अराधना तथा जीवन जीने की लालसा भी है। बेसुध पड़े़ रेणु मासूमियत और करूण पुकार को सुन लतिका प्यार का सागर बन उनके जीवन में आयी। उसके प्यार की बूॅदों ने रेणु को नवजीवन दिया। जीवन को नवजीवन मिलना, पुनः बीमार होकर अस्पताल में भर्ती होना और फिर लतिका के सेवा-सुश्रुषा से स्वस्थ्य होने की घटना ने इस संबंध को आत्मीय बना दिया। संकटों के दौर में आत्मा की धरातल पर उपजे इस मानवीय रिश्ता के संबंध में गोपीकृष्ण ने अपनी पुस्तक व्यक्तित्व काल और कृतियां में लिखा है किः- ‘‘रेणु और लतिका का प्यार अशरीरि था अर्थात पलेटोनिक लव।’’ हीरामन और हीराबाई के तरह ही लतिका और रेणु का प्यार स्त्री-पुरूष प्रेम संबंधों की सीमाओं को तोड़ता है। यह प्यार भैतिकता की परिधी को तोड़कर मानवीयता की ओर बढ़ जाता है। लतिका के जीवन की यह घटना उदात मानवीय भावनाओं पर प्रकाश डालता है। लतिका की यह भावना सिर्फ अपने प्रेमी रेणु के लिये ही नहीं अपितु परिवार और समाज के लिये भी था।

                                लतिका आर्थिक रूप से स्वालंबी थी। घरवाले भी लतिका के जिद और साहस से भी परिचित थे। अंततः घरवालों ने लतिका की बात मान ली। स्वाभिमानी प्रकृति की लतिका ने घरवालों को अपनी शादी में खर्च करने से मना दिया। नौकरी की कमाई से अर्जित पैसे को शादी में खर्च का निर्णय लिया। लतिका के इस निर्णय पर संध्या राय चौधरी कहती हैं कि ‘‘उसने स्वालंबी होकर पिता के सपने को साकार किया था। अपने पिता की सोंच के अनुसार ही यह साबित करने में जुटी थी कि बेटियां घर की बोझ नहीं होती।’’ शादी में घर से आर्थिक सहयोग नहीं लेने के फैसले पर उनके बड़े भाई सुशील राय चौधरी भावनात्मक रूप से दुःखी हुये थे। लेकिन लतिका के लालन-पालन और घर के परिवेश से परिचित होने की वजह से उन्हें पर अपनी बहन के फैसले पर गर्व ही था। नाते-रिश्तेदारों एवं दोस्तों को निमंत्रण देने का काम लतिका ने पत्र के द्वारा पटना से ही कर लिया। शादी के लिये सामानों की खरीददारी स्वयं पटना में ही किया। शादी पुरी तैयारियों के साथ वह रेणु को साथ लेकर पटना से हजारीबाग चली आई। हजारीबाग पहूचते ही लतिका शादी की तैयारियों में स्वयं जुट गई। महिला स्वालंबन की सार्थकता सच साबित करने में जो हौंसला लतिका ने 1952 में दिखाई थी। वह हौंसला 21 वीं शताब्दी के महिलाओं में भी देखने को नही मिलता है। जबकि आजादी तुरंत बाद समाज व देश के बदले परिवेश में लतिका का यह फैसला नारी स्वालंबन को बल देता है और नारी स्वतंत्रता के संघर्ष को नयी दिशा प्रदान करती है। काश! यहां की लड़कियां लतिका से शिक्षा से लेकर स्वालंबन की सार्थकता को सच साबित करते हुये अपने अंदर आत्म विश्वास को जागती तेा शायद वर्तमान समाज बेटियां को 21 वीं शताब्दी में बोझ समझने का भूल नहीं करता। और भारत में बेटियों की घटती संख्या पर तस्लीमा नसरीन को यह नहीं लिखना पड़ता कि एक दिन भारत पुरूषों का देश बनकर रह जायेगा।

स्वालंबी लतिका चुनौतियों को सहर्ष स्वीकार करने वाली भी थी। दरअसल शादी की तैयारी की जिम्मेवारी भी उसने अत्यंत ही विपरित परिस्थति में लिया था। जब घर में हर्ष और विषाद का महौल था। शादी की तैयारियों से घर में हर्ष का माहौल था। वहीं दुल्हे राजा रोगी रेणु की गंभीर हालत खुशी माहौल को गमगीन बना रही थी। लतिका कुशल सेनापति की तरह की तरह कई मोर्चे पर अपनी जिम्मेवारियों को निभा रही थी। शादी के माहौल में भी लतिका का घ्यान रेणु पर ही केन्द्रित रहता था। वो खून की उल्टियॉ कर रहे रेणु की सेवा भी करती थीं। समय पर दवा भी खिलाती थीं। वहीं शादी के विधी विधान में भी अपनी भूमिका निभाती थी। शादी के वक्त मंडप में रेणु को किसी तरह लतिका के साथ दिवाल के सहारे बिठाया गया। सहारा देकर किसी तरह रेणु से शादी की रस्में पुरी करवायी गयी। रेणु को सहारा देने का काम उनके दोस्त पाठक और सुरपति झा निभा रहे थे। ये दोनों लतिका और रेणु की शादी का साक्षी बनने पटना से हजारीबाग आये थे। जयमाला के वक्त रेणु इन्हीं दोस्तों के सहारे खड़े हुये और रेणु ने अपनी पत्नी लतिका के गले में वरमाला डाला।

बंगाला रीति-रिवाज के अनुसार शादी के बाद जब लड़की ससुराल पहूचती है तो बहु-भात की रश्म निभायी जाती है। लतिका और रेणु की शादी के उपलक्षय में बहु-भात का रश्म भी लतिका के घर में ही निभायी गयी थी। जिसमें रेणु के दोस्तों ने अहम भूमिका निभायी थी। इस रश्म में खीर और मछली के पूछ का हिस्सा सहित अन्य व्यंजन के साथ कपड़े को थाल में रखकर सजाया जाता है। सजे हुये थाल को रेणु के हाथ में दिया जाने लगा तो उस थाल को लतिका ने अपने हाथों में ले लिया। इस घटना को देखते ही सभी लोग अचंभित हो गये। दरअसल सजे थाल को रेणु को अपने हाथों से लतिका को देते हुये बोलना था कि ‘‘आज थेके तोमार भात-कापोड़ेर भार निलाम ।’’ लेकिन रेणु की आर्थिक और शारीरिक स्थिति को देखते हुये लतिका ने उस थाल को अपने हाथों में लिया और रेणु के हाथों में सौपते हुये उस शपथ को ली जिसे सामाजिक रीतियों के अनुसार रेणु को लेना था। दरअसल लतिका ने उन रूढ़ियों को भी तोडा जो प्रेममय जीवन में स्वार्थ की जड़ों को मजबूत करता है। लतिका का यह कदम रिश्ते की रेश्मी डोर को स्वार्थ से परे भीं बनाती है। तीसरी कसम में रेणु ने प्रेम सादगी और मासूमियत की ताकत को स्थापित किया है। वहीं लतिका ने अपने जीवन में ममता, करूणा, त्याग और बलिदान के बदौलत सामाजिक समानता और सामाजिक बदलाव के लिये संघर्ष का मिशाल पेश करती है। क्योंकि लतिका के दिल में रेणु के लिये उपजा प्रेम न्याय, समानता , स्वतंत्रता ओर अनुशासन को परिभाषित करता है। भारतीय समाजवाद की परिभाषा को जीवंत करने वाली लतिका और रेणु की प्रेम व शादी की कथा सुनने के बाद ऐसा महसूस होता है कि शैलेन्द्र ने लतिका और रेणु की प्रेमकथा को नजदीक से महसूस कर इस गीत को लिखा हो:-

किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार , किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार

किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार , जीना इसी का नाम है !

शैलेन्द्र के इस गीत के जीवन-दर्शन, जीवनादर्श और जिजीविषा से भरे हुए शब्दों की सार्थकता को अक्षरशः साबित करती हैं लतिका। अमूमन तौर पर प्रेमी-प्रेमिका या पति-पत्नी अपने जीवन में परस्पर सेवा और सहयोग को ही सफल व प्रेममय जीवन का आधार मानते हैं। विपति की हालत में भी पत्नी का भार उठाने वाला ही आदर्श पति कहलाता है। यही पारिवारिक और सामाजिक जीवन का व्यवहारिक नियम है। भले ही यह नियम भारतीय सभ्यता की देन न हो लेकिन भारती सामाजिक व्यवस्था में यही नियम लागू होता है। लेकिन लतिका इस धरा की ऐसी नायिका हैं जो अपने प्रेमी और पति का भार भी उठाती हैं और उसकी सेवा को अपने जीवन का अंतिम उदेश्य मानती है।

जीवंत प्रेम के इस नायिका से मृत्यु के कुछ दिन पहले रेणु गांव औराही हिंगना में यह सवाल किया था कि आज भी तीसरी कसम की जीवंतता कायम है।  उन्होने डॉटते हुये कहा:- ‘‘ अॅधे को फिल्म देखने बाद भी बात समझ में नहीं आती है। उसे समझने के लिये दृष्टि चाहिये , फिल्म को देखों उस प्यार को महसूस करो और उस समाज को समझो।’’ वैसे तो रेणु की रचना के प्यार में और उनके जीवन के प्यार में काफी असमानताएं हैं। लेकिन कुछ समानता के तत्व भी स्पष्ट रूप से दिखती है। फिल्म समीक्षक बिनोद अनुपम तीसरी कसम फिल्म में दर्शाये गये प्यार की व्याख्या करते हुये कहते हैं कि ‘‘नायक गंवई हीरामन मासूम है और वह हीराबाई की अेार आकर्षित होकर निश्चछल भाव से भावनाओं के प्रवाह बहता हुआ नजर आता है। वहीं हीराबाई, हीरामन के प्यार और मासूमियत के साथ-साथ तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था को भी समझती है। वह सामाजिक मर्यादाओं को तोड़कर अपने मीता सामाजिक उलझनों में डालना नहीं चाहती है। शायद यही वजह है कि व अपने मीता हीरमान की दूनियॉ से दूर अपनी दुनियां में लौटने का फैसला करती है।’’ विनोद अनुपम के शब्दों से स्पष्ट होता है कि तीसरी कसम नायिका प्रधान फिल्म है। रेणु और लतिका के प्रेम प्रसंग में लतिका सामाजिक मर्यादाओं को इसलिये तोड़ती है कि रेणु को कष्ट ना भोगना पड़े। तीसरी कसम में जहां हीराबाई तमाम निर्णय लेती है वहीं लतिका और रेणु के जीवन में शादी तक के प्रसंग में सारा निर्णय लतिका लेती है। रेणु अस्वस्थता की परिस्थति में मासूमियत के साथ प्यार की याचना करते है या फिर लतिका फैसले को सहर्ष स्वीकार करते हैं। लतिका का समपर्ण ही रेणु की प्रेरणा है और उस प्रेरण का प्रतिफल है कालजयी रचना मैला आंचल और महान फिल्म तीसरी कसम सहित कई अन्य रचनायें जिसमें रेणु प्रेम के गीत , गाते हुये नजर आते है। उन गीतों में एक गीत है विदाई का ‘‘ लाली-लाली डोलिया में लाली रे दुलहनियां’’ आज लाली-लाली डोलिया की लाली रे दुलहनियां गीतों में ही सिमट कर रह गई है जिसे रेणु ने पाया था।                   लेखक स्वतंत्र पत्रकार सह शोधार्थी हैं और www.phanishwarnathrenu.com के संचालक हैं    www.phanishwarnathrenu.com  से साभार

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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