लोकतंत्र का लूट-खसोट
वी राज बाबुल, नई दिल्ली
देश में महंगाई आसमान पर है। सरकारी क्षेत्र और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कर्मचारियों को तो महंगाई भत्ते और वेतन बढ़ोत्तरी का सौगात तो मिल रहा है परंतु आम जनता जो बेरोजगार हैं और जो असंगठित क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं उनके लिए तो जीना हराम हो गया है। ऐसे में जनप्रतिनिधियों द्वारा अपने लिए वेतन में बढ़ोत्तरी की मांग और संसद में हो-हंगामा लोकतंत्र के लिए एक विडंबना से कम नहीं कहा जा सकता। काफी जोर-दबाव और हंगामे के बाद केन्द्रीय मन्त्रिमंडल ने सांसदों का वेतन तीन गुना बढ़ाने का फैसला कर दिया है, लेकिन संसदीय समिति की सिफारिश के मुताबिक पांच गुना बढ़ाने की मांग कर रहे सांसद इससे सन्तुष्ट नहीं हैं। सांसदों के वेतन का सवाल दरअसल गांधीवादी-समाजवाद के त्याग और कारप¨रेट जगत के भौतिकवादी मूल्यों के बीच उलझा हुआ है। स्वाधीनता संग्राम के जिन आदर्शों से हमारा लोकतंत्र और हमारी संसद निकली है, उसमें डा. राम मनोहर लोहिया जैसे सांसद भी हुए हैं जिनके निधन के बाद न तो उनके पास कोई बैंक बैलेंस था और न ही उनका कोई घर-मकान। पंडित नेहरू जैसे नेताओं ने अपनी आनन्द भवन जैसी इमारत राष्ट्र को समर्पित कर दी थी। इसी क्रम में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी कहती हैं कि राजीव गांधी जब पायलट थे तब उनका वेतन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी से ज्यादा था। इसका अर्थ यह है कि हमारे सांसदों को इस देश के लोकतंत्र को चलाने का जो गुरुतर दायित्व सौंपा गया है, उसके सामने वेतन वगैरह कोई मायने नहीं रखता। उन्हें उतनी सुविधा मिलनी चाहिए जितने से वे इन दायित्वों का निर्वाह कर सकें न कि भंडार भरें। त्याग का तर्क तो कब का पीछे छूट चुका है लेकिन सांसदों की यह दलील भी कमजोर नहीं है कि उन्हें अपने विशाल चुनाव क्षेत्र और संसदीय दायित्वों के निर्वहन के लिए जितनी बड़ी तादाद में लोगों की आवभगत के साथ उन तक पहुंचना पड़ता है, उसके मुकाबले मौजूदा वेतन काफी कम है। जब आपकी सारी हैसियत तनख्वाह से ही आंकी जा रही हो तो सांसदों को यह कहने में भी गुरेज नहीं है कि उनका वेतन केन्द्र सरकार के सचिव के बराबर या उनसे ज्यादा ही होना चाहिए क्योंकि उनका दर्जा उनसे ऊपर है। जबकि कारपोरेट नज़रिया इस मामले को अलग तरह से देखता है। अगर कंपनियों के सीईओ या मालिकों की तरह सांसद अपना वेतन स्वयं तय करना चाहते हैं और उसे पिछले कुछ साल से लगातार बढ़ाने में लगे हुए हैं तो उन्हें उन कसौटियों को भी अपनाना चाहिए जो कारपोरेट ढांचे में अपनाई जाती हैं। कंपनियों के अधिकारियों का वेतन एक तो उनके काम के आधार पर बढ़ता है। सांसद सोलह से पचास हजार किए गए अपने इस वेतन में उन भत्तों को जोड़ते ही नहीं जो उन्हें यात्रा, आवास, क्षेत्र व्यय और अन्य मदों में दिए जाते हैं। उन्हें मिलाकर अब तक सरकार एक सांसद पर सालाना 38 लाख रुपए खर्च करती थी जो अब और बढ़ना स्वाभाविक है।
सैद्धान्तिक सवाल यह है कि क्या किसी को अपना वेतन स्वयं ही तय करने का हक है, विशेषकर वह जिसकी शक्तियां आम जनता से प्राप्त हुई हों? सवाल यह भी है कि क्या हमारे सांसदों को भी मुनाफे से तय होने वाले कारपोरेट वेतनमान से होड़ करनी चाहिए? नौकरशाही के वेतनमान निजी क्षेत्र को ध्यान में रखकर ही बढ़ाए गए थे लेकिन उसमें कारपोरेट क्षेत्र के विपरीत ऊपरी सीमा बरकरार रखी गई। ऐसे में सांसदों के काम और आदर्श भले ही व्यवहार में इन सबसे ऊंचे न दिख रहे हों पर सिद्धान्त में तो ऊंचे रखने ही होंगे। इसलिए वे जब भी वेतन बढ़ाने की मांग करेंगे तो लोकतांत्रिक मूल्यों और नैतिकता के सवाल उठेंगे ही।
परिचय : वी राज बाबुल हिन्दी पत्रिका “राजमाया” के संपादक हैं, और लंबे समय से पत्रकारिता से जुड़े हुये हैं।
Babul jee,
Jan gan ka man hi to sarvopari hai.