अंग्रेजी के खिलाफ़ जब बोले श्री सेठ गोविन्ददास(भाग-1):-
चंदन कुमार मिश्र
(बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के नवम वार्षिकोत्सव में सभापति-पद से श्रीसेठ गोविन्ददास जैसा प्रख्यात और जबरदस्त हिन्दी-सेवी अंग्रेजी के भक्तों के सारे झूठे और बेबुनियाद (कु)तर्कों को चुनौती देते हुए जब बोलते हैं तब वे परेशान हो उठते हैं। लेकिन इसके बावजूद कि यह व्याख्यान आज से करीब पचास साल पहले का है (1960-62 ), आज भी इसकी प्रासंगिकता में कमी नहीं आई है और संकट और बढ़ा है। इसलिए उनके उस व्याख्यान को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। यह व्याख्यान परिषद द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘राष्ट्रभाषा हिन्दी: समस्याएँ और समाधान’ से लिया गया है। इसे देखिए, लोगों तक पहुँचाइये कि कैसे आज से पचास साल पहले के भारत में और आज के भारत तक में अंग्रेजी का भ्रम फैलाया गया है क्योंकि भारत का अधिकांश आदमी कभी इन बातों पर सोचता नहीं कि ये भ्रम कितने तथ्यपूर्ण और सत्य हैं। इन सत्यों को छिपाया गया है और आज भी छिपाने का षडयंत्र हो रहा है और इस कारण लोग हमेशा इनके कहे झूठ का शिकार होते आये हैं।)
(संबोधन को छोड़कर)
अपने ही राज्य में अपनी भाषा की याचना एक विडम्बना:
यह बात लगती तो कुछ अजीब-सी है कि हमें अपने देश में इस बात का प्रयास करना पड़े कि देशवासियों की भाषा राजभाषा भी हो। यदि देश पर विदेशियों का राज्य होता, तो ऐसे प्रयास करने की आवश्यकता सम्भवत: समझ में आ सकती थी, किन्तु इतिहास की यह कैसी विडम्बना है कि जो देश विदेशियों के चंगुल से लगभग बारह वर्ष पूर्व मुक्त हुआ था, उस देश में भी हमको इस बात के लिए परिश्रम और प्रयास करना पड़े कि जनता की भाषा राजभाषा हो। जिस जाति की भाषा पूर्णत: अविकसित हो, जिसकी अपनी संस्कृति और सभ्यता न हो, जिसकी अपनी ऐतिहासिक परम्पराएँ और गौरवगाथा न हों और जो बर्बरता की स्थिति से या तो निकली ही न हो या कुछ समय पूर्व ही निकली हो, उस जाति के लिए सम्भवत: अपनी भाषा में अपना राजकाज चलाने के लिए प्रयास करना पड़े। किन्तु, हमारे देश का इतिहास, हमारे देश की संस्कृति, हमारे देश की सभ्यता संसार के किसी देश से यदि अधिक पुरानी नहीं, तो कम पुरानी नहीं है। जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र न था और न हो सकता था, जिसमें हमारी जाति ने उल्लेखनीय सफलताएँ प्राप्त न की हों और अमूल्य विचार मानव-जगत् के सामने न रखे हों। क्या दर्शन, क्या विज्ञान, क्या काव्य सभी क्षेत्रों में भारत ने ऐसे सूक्ष्म और चामत्कारिक विचार रखे कि आज भी सारे सभ्य जगत् पर उसकी छाप है और सारा सभ्य जगत् उसका ॠणी। ये सब सत्य हमारे पूर्वजों ने इस देश की भाषा या भाषाओं द्वारा ही व्यक्त किये थे। मैं समझता हूँ कि इन क्षेत्रों में उन्होंने अपनी भाषा द्वारा इतने सूक्ष्म और गूढ़ विचार व्यक्त किये कि आज भी उनके पूर्ण रहस्य को समझने के लिए विद्वानों को परिश्रम करना पड़ता है। अपनी बात को मँजे हुए और बहुत ही थोड़े शब्दों में व्यक्त करने की परिपाटी हमारे यहाँ इतनी घर कर गई कि मात्रा के लाघव को भी विद्वान पुत्रलाभ के समान मानते थे। आज संक्षेपाक्षरों की जो प्रणाली प्रचलित है, उससे भी अद्भुत प्रणाली हमारे यहाँ दो सहस्र वर्षों पहले प्रचलित थी और प्रत्याहारों द्वारा पाणिनी ॠषि व्याकरण-जगत् में वह चमत्कार कर गये जिसकी पुनरावृत्ति अनेक शताब्दियों तक प्रयास करने पर भी कोई देश या जाति नहीं कर सकी। (इकोयणचि, अक: सवर्णे दीर्घ: जैसे संस्कृत व्याकरण के संधि-सूत्रों से यह बात साबित होती है कि हमारे यहाँ संक्षेपाक्षर की प्रणाली थी क्योंकिन इन सूत्रों को कोई काट नहीं सकता। – प्रस्तुतकर्ता) इस प्रकार, हमारे देश के विद्वान गागर में सागर भरने में समर्थ थे और मैं यही मानता हूँ कि आज भी हैं। यह बात न केवल संस्कृत के लिए ठीक है, वरन् हमारी अन्य भाषाओं के लिए भी उतनी ही ठीक है। कबीर ने हिन्दी में जितने उदात्त, किन्तु सूक्ष्म दार्शनिक विचार अपनी सूक्तियों में रखे हैं, वैसे सम्भवत: उतने थोड़े शब्दों में अन्यत्र कहीं भी न मिलेंगे। मैं यह बात आपके समक्ष मिथ्या-अभिमान या अतीत की गौरवगाथा के लिए नहीं रख रहा, वरन् मैंने इनकी ओर संकेत केवल इसलिए किया है कि आप तथा इस देश के अन्य वासी इस ऐतिहासिक विडम्बना पर विचार करें कि इतनी समृद्ध भाषाओंवाले देश में यह प्रयास क्यों करना पड़े कि देश की भाषा राजभाषा भी हो। पर मैं इसे अपना दुर्भाग्य कहूँ, जनता का दुर्भाग्य कहूँ या अपनी भावी पीढ़ियों का दुर्भाग्य कहूँ कि आज भी हमारे देश में कुछ ऐसे व्यक्ति हैं, जो सम्भवत: सच्चे मन से या स्वार्थवश इस बात पर अड़े हुए हैं कि इस देश की कोई भाषा राजद्वार में फटकने न पावे। अत:, हम सबके लिए, जिनका जीवन-प्रयास और जीवन-लक्ष्य जनवाणी की सेवा करना रहा है, यह अत्यंत आवश्यक हो गया है कि हम पूरी लगन से इस प्रयास में लग जायँ कि हमारे देश की भाषा और देश की भाषाओं का वह अपमान और निरादर अब अधिक दिनों तक न किया जा सके।
हाल ही में स्वतन्त्र हुए देशों में भी अपनी भाषाओं का उपयोग:
मैं इस सम्बन्ध में आपका ध्यान उन देशों की ओर खींचना चाहता हूँ, जो अभी चार-पाँच साल पहले ही स्वतन्त्र हुए हैं। आप सब लोग जानते हैं कि कम्बोज, लवप्रदेश, वियतनाम, अभी कुछ वर्ष हुए, स्वतन्त्र हुए थे। मेरा विश्वास है कि आप सब इस बात से भी परिचित हैं कि इन देशों के वासियों का इतिहास कम-से-कम इतना पुराना नहीं है, जितना कि हमारे देश का है। मैं यह भी समझता हूँ कि इन देशों की संसार को सांस्कृतिक देन हमारे देश की अपेक्षा कहीं कम रही। इनकी भाषा और इनकी लिपि भी हमारे देश की भाषा और लिपि की अपेक्षा कम उन्नत थी। किन्तु, इन देशों ने इतने अल्पकाल में ही अपना सारा राजकाज अपनी भाषाओं में करना आरम्भ कर दिया है। वहाँ भी फ्रांस ने फ्रांसीसी भाषा को अपने राज्यकाल में प्रशासन, विधि और शिक्षा का माध्यम बना रखा था। वहाँ का शिक्षित-वर्ग भी फ्रांसीसी भाषा का प्रयोग करने का अभ्यासी था। किन्तु, यह सब होते हुए भी वहाँ के नये शासकों ने एक दिन भी यह नहीं कहा कि फ्रांसीसी भाषा को ही प्रशासन, न्याय या शिक्षा का माध्यम बना कर रखा जाय या फ्रांसीसी भाषा के द्वारा ही अन्तरराष्ट्रीय जगत् से सम्बन्ध स्थापित किया जाय या ज्ञान-सरोवर को केवल फ्रांसीसी भाषा की खिड़की द्वारा ही देखा जाय। मैं समझता हूँ कि संसार में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं है, जो यह कहने की सामर्थ्य या धृष्टता रखता हो कि फ्रांसीसी भाषा ज्ञान या किसी अन्य क्षेत्र में अँगरेजी से किसी प्रकार कम है। सच तो यह है कि आज भी लगभग सारे मध्यपूर्व और योरप के देशों में फ्रांसीसी भाषा राजनय की भाषा है और अँगरेजी का प्रयोग वहाँ बहुत थोड़ा है और अभी कुछ ही वर्षों से किन्हीं-किन्हीं क्षेत्रों में आरम्भ हुआ है। किन्तु, ऐसी समृद्ध भाषा का मोह भी उन्हें अपनी देशभाषा को अपनी राजभाषा बनाने से एक मुहूर्त्त के लिए भी न रोक सका। चीन की बात मैं कुछ अधिक कहना नहीं चाहता। अभी हाल में उस देश का व्यवहार कुछ ऐसा रहा कि जिससे हमारे मन में कड़ुवाहट पैदा हो गई है, किन्तु इसपर भी हमें यह सर्वदा स्मरण रखना चाहिए कि हम उसकी प्रगति और उसकी प्रगति के कारणों को अपने ध्यान में रखें; क्योंकि यदि हमने ऐसा न किया, तो हम उसका उचित समय पर उचित प्रतिरोध करने में कभी सफल न होंगे। वे हमारे शत्रु ही सही, किन्तु उनके बलाबल से हमें अपने को पूर्णतया परिचित रखना है और इस दृष्टि से मैं आपका ध्यान इस बात की ओर खींचता हूँ कि वहाँ भी एक क्षण के लिए भी यह प्रश्न किसी के मन में नहीं उठा कि वैज्ञानिक प्रगति की दृष्टि से वहाँ शिक्षा का माध्यम योरप की किसी ऐसी भाषा को रखना चाहिए, जिसमें विज्ञान का भाण्डार है। वहाँ भी सब प्रकार की शिक्षा-दीक्षा चीनी भाषा के द्वारा ही दी जाती है। उन्हें एक क्षण के लिए भी यह अनुभव नहीं हुआ कि इस कारण उनके देश में किसी प्रकार के यन्त्रविदों, वास्तुकारों, वैज्ञानिकों की कमी रही हो। (ध्यान रहे कि हाल में ही चीन ने समुद्र पर बहुत लम्बा पुल बनाया है। भारत के बाजारों में चीन के सामान का भर जाना भी ध्यान रहे और चीन अंग्रेजी भाषी देश नहीं है और अपनी आजादी के समय से ही नहीं रहा है। – प्रस्तुतकर्ता)
बड़े-से-बड़े भारतीयों की आँखों पर अँगरेजी के मोह की पट्टी:
पर, हमारे देश में ऐसे शिक्षाशास्त्री हैं, ऐसे प्रशासक हैं, ऐसे राजनीतिज्ञ हैं, ऐसे राजनायक हैं, जो यह माने बैठे हैं कि भारत की मुक्ति, भारत का भविष्य, भारत की समृद्धि अँगरेजी और केवल अँगरेजी पर आधृत है। मैं नहीं जानता कि कभी उन्होंने इस बारे में सोचा भी है या नहीं कि जब अँगरेज इस देश में नहीं आये थे, जब अँगरेजी इस देश में नहीं आई थी, तब इस देश के लोगों ने अपनी जीवनधारा कैसे चलाई थी, प्रकृति से कैसे संघर्ष किया था, राजनीतिक तन्त्र कैसे स्थापित किये थे और भूमि एवं अन्तरिक्ष के अनेक सत्यों का पता चलाया था। क्या वे समझते हैं कि अँगरेजों के पहले हमारे देश के लोग मूक थे, उनकी अपनी वाणी न थी, अपनी प्रतिभा न थी। मैं यह नहीं कहता कि ये लोग राष्ट्रप्रेमी नहीं हैं, किन्तु इनका राष्ट्रप्रेम कैसा है, यह मैं समझ नहीं पाता। उन्हें यह बात भी नहीं दिखती कि यह विचार कि अँगरेजी के बिना हम सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में प्रगति न कर पायेंगे, हमारे सारे इतिहास का उपहास है, हमारी जाति के प्रति सारे विश्व में यह भावना पैदा करना है कि अँगरेजों के पूर्व हमारा देश पूर्णत: असभ्य था, बर्बर था और केवल अँगरेजों ने ही गोरे आदमी का भार वहन करके हमें सभ्य बनाया। मैकाले को मरे हुए लगभग एक शताब्दी हो गई, किन्तु यदि वे आज जीवित होते, तो उन्हें कितनी प्रसन्नता हुई होती, जब वे यह देखते कि जो बात उन्होंने भारतीय संस्कृति, भारतीय साहित्य, भारतीय विज्ञान के सम्बन्ध में अपनी शिक्षा-माध्यम-सम्बन्धी टिप्पणी में 1833 में लिखी थी, उसी बात की पुष्टि असाक्षात् रूप से उनके इन मानस-पुत्रों द्वारा, जिनकी चमड़ी भारतीय है, किन्तु, जिनका मन, जिनकी संस्कृति, जिनका दृष्टिकोण मैकाले की भाषा द्वारा, मैकाले के विचारों द्वारा बना है, पुष्ट हो रही है। मैकाले ने अपनी इस टिप्पणी में लिखा था कि यदि समग्र भारतीय साहित्य और विज्ञान की पुस्तकें समुद्र में डाल दी जायँ, तो मानव जाति की कोई हानि नहीं होगी। (इस एक वाक्य द्वारा भारत के इस भयंकर राष्ट्रीय अपमान के बावजूद भारत में मैकाले की प्रतिमा की स्थापना करना और उसकी शिक्षा-पद्धति से चिपटे रहना और आज तक अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का मुख्य माध्यम बनाये रखना हमें दुनिया के सबसे कलंकित और नीच लोगों में भी निम्नतम स्थान पर ले जाकर फेंक देता है। अब इसे क्या कहें? – प्रस्तुतकर्ता) चाहे अँगरेजी से मोह रखने वाले भारतीय विज्ञान और साहित्य के प्रति इन्हीं शब्दों का प्रयोग न करते हों, किन्तु इससे कुछ अन्य उनका तात्पर्य न तो है और न हो सकता है; नहीं तो वे यह क्यों सोचते या क्यों कहते कि इस देश की भाषा द्वारा हम प्रगति के प्रशस्त पथ पर अग्रसर न हो सकेंगे, हमारे देश की एकता न रह सकेगी, हम प्रजातन्त्र के प्रयोग को सफल न बना सकेंगे, हम अपने आर्थिक तन्त्र को शीघ्रातिशीघ्र समृद्ध न कर सकेंगे, हम जगत से सम्बन्ध खो बैठेंगे, हम विज्ञान की अमृतदायिनी सरिता से वंचित हो जायेंगे। स्पष्टत: उनके मन में यह मोह है, यह धारण है कि इन सब बातों का केवल एक सूत्र, केवल एक द्वार, एक माध्यम अँगरेजी और केवल अँगरेजी है। पर, थोड़ा विचार करके देखिए कि इसमें कितना तथ्य है। क्या यह बात ठीक है कि केवल अँगरेजी के माध्यम द्वारा ही किसी जाति के नर-नारी प्रगति कर सकते हैं? यदि यह बात ठीक होती, तो सम्भवत: इंग्लैण्ड में ऐसा एक भी आदमी न होता, जो ज्ञान-विज्ञान के हर क्षेत्र में पारंगत न होता, यदि अँगरेजी ही सांस्कृतिक और वैज्ञानिक प्रगति का दूसरा नाम है, तो इंग्लैण्ड का हर वासी, जिसे अँगरेजी अपनी माँ के दूध के साथ मिलती है, किसी प्रकार विज्ञान या ज्ञान से अपरिचित न होता। (आज भारत में गली-गली में अंग्रेजी स्पोकेन के लिए खुलते जुआ-घरों में इतने काबिल लोग तैयार हो रहे हैं फिर क्यों नहीं हर शहर में वैज्ञानिक और आविष्कारक मिल जाते हैं? अगर अंग्रेजी जानने से भारी काबिलियत पैदा होती है तो क्यों नहीं सारे अंग्रेज अपने देश में न सही दूसरे देशों में जाकर उच्च स्थान हासिल कर लेते हैं? भारत की बात अलग है, यह फिलहाल भाषाई गुलाम देश है। अंग्रेजी न जानने या उसका इस्तेमाल न करने से जापान, चीन, रूस, इटली, फ्रांस, जर्मनी सहित 200 से अधिक देश जिनमें 30 से अधिक विकसित देश हैं और जिनमें वैज्ञानिक रूप से अत्यन्त समृद्ध देश भी 20 से अधिक हैं, सब अविकसित ही रह जाते या जंगलों में रहते और ज्ञान-विज्ञान से अब तक दूर रहते, लेकिन क्या ऐसा है? – प्रस्तुतकर्ता) किन्तु, क्या ऐसा है? इंग्लैण्ड ने विज्ञान के क्षेत्र में जो भी प्रगति पिछले डेढ़ सौ वर्षों में की है, इतिहास इस बात का साक्षी है कि उस प्रगति का कारण अँगरेजी भाषा किसी प्रकार न थी।
(जारी…)