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अदम गोंडवी की पांच गजलें

काजू भूनी प्लेट में, व्हिस्की गिलास में/ राम राज्य आया है विधायक निवास में, जैसे शेर लिखने वाले अदम गोंडवी वास्तव में दुष्यंत कुमार की गजल परंपरा को आगे बढ़ाने वाले शायर हैं। हांलाकि दुष्यंत की मुलायमियत अदम के यहां से खारिज है पर तेवर और तमक वही है। दुष्यंत की तरह अदम बिंब या रूपक भी नहीं रचते-रोपते या परोसते पर तल्खी, तुर्शी और तनाव वह वही भरते हैं जो कभी दुष्यंत कुमार के शेरों में तिरता था। दरअसल अदम गोंडवी दुष्यंत की गजल परंपरा और कबीर का सा खुरदुरापन एक साथ दोनों ही जीते हैं। तभी तो वह कहते हैं, ‘तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है. मगर ये आकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है’। या फिर, ‘आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है जिंदगी हम गरीबों की नजर में इक कहर है जिंदगी’।

अदम गोंडवी की जिंदगी और शायरी दोनों की ही रंग बिल्कुल सादा है। फक्क हुई बेलाग होकर उनकी जिंदगी और शायरी दोनों ही में हवा पानी की तरह बहती है, ‘आइए महसूस करिए जिंदगी के ताप को/ मैं चमारों की गली तक ले चलुंगा आप को।’ अदम गोंडवी वास्तव में जिंदगी की खदबदाहट को बिल्कुल खर-खर ढंग से कहने के आदि हैं, ‘कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएं नहीं/ हुक्म जब तक मैं न दूं, कोई कहीं जाए नहीं’। वह राजनीतिक सचाईयों की भी नस छूते ही रहते हैं,‘कहती है सरकार कि आपस में मिल-जुल कर रहो/ सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो।’राजनीतिक, सामाजिक नासूरों की नस ही भर वह नहीं छूते बल्कि पूरा का पूर एक माहौल ही बुनते हैं, ‘हाथ मूछों पर गए, माहौल भी सन्ना गया/या क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था।’ जुल्म और जद्दोजहद की सिफन यह कि, ‘तेजतर रखिए मुसलसल जुल्म के अहसास को /भूल जाए आदमी चंगेज के इतिहास को’। अदम के शेरों में विवशता जैसे छलकती है और सच बन जाती है, ‘नंगी पीठ हो जाती है जब हम पेट ढकते हैं / मेरे हिस्से की आजादी भिखारी के कब्र सी है/ कभी तकरीर की गरमी से चूल्हा जल नहीं सकता/ यहां वादों के जंगल में सियासत बेहया सी है/ हमारे गांव का गोबर तुम्हारे लखनऊ में है/ जवाबी खून से लिखना किस मुहल्ले का निवासी है’। वह जैसे समय की सच्चाइयों से सनकाते हैं वैसे ही हवाबाजी से कतराते भी है, ‘आसमानी बाप से जब प्यार कर सकते नहीं/ इस जमीं के ही किसी किरदार की बातें करों’।

अदम गोंडवी को जनकवि कहा जाता है पर वह वास्तव में पहरुआ कवि हैं, ‘भुखमरी की जर में है या शेर के साए में है/ अहले हिन्दुस्तान अब तलवार के साए में है/ बेबसी का इक समंदर दूर तक फैला हुआ/ और कश्ती कागजी पतवार के साए में है’। ऐसी बेबाक और बेहतरीन गजलें कहने वाले अदम गोंडवी की पांच गजलें यहां प्रस्तुत है। (रासफीने)

(एक)

वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं

वे अभागों आस्था, विश्वास लेकर क्या करें

लोकरंजन हो जहां शम्बूक- वध की आड़ में

उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें

गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे

पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करें

देखने को दें उन्हें अल्लाह कम्प्यूटर की आंख

सोचने को कोई बाबा बाल्टी वाला रहे

एक जनसेवक को दुनियों में ‘अदम’ क्या चाहिए

चार छह चमचे रहें, माइक रहे, माला रहे

(दो)

सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है

दिल पे रख के हाथ कहिए देश क्या आजाद है

कोठियों से मुल्क के मेआर को मत आंकिए

असली हिन्दुस्तान तो फुटपाथ पे आबाद है

जिस शहर में मुंतजिम अंधे हो जल्वागाह के

उस शहर में रोशनी की बात बेबुनियाद है

ये नई पीढ़ी पे मबनी है वहीं जज्मेंट दे

फल्सफा गांधी का मौजूं है कि नक्सलवाद है

यह गजल मरहूम मंटों की नजर है, दोस्तों

जिसके अफसाने में ‘ठंडे गोश्त’ की रुदाद है

(तीन)

जितने हरामखोर थे कुर्बो-ज्वार में

परधान बन के आ गए अगली कतार में

दीवार फाँदने में यूं जिनका रिकार्ड था

वे चौधरी बनें हैं उमर के उतार में

फौरन खजूर छाप के परवान चढ़ गई

जो भी जमीन के पट्टे में जो दे रहे आप

यो रोटी का टुकड़ा है मियादी बुखार में

जब दस मिनट की पूजा में घंटों गुजार दैं

समझों कोई गरीब फंसा है शिकार में

(चार)

भूख वो मुद्दा है जिसकी चोट के मारे हुए

कितने युसुफ बेकफन अल्लाह के प्यारे हुए

हुस्न की मासुमियत की जद में रोटी आ गई

चांदनी की छांव में भी फूल अंगारे हुए

मां की ममता बाप की शफ्कत गरानी खा गई

इसके चलते दो दिलों के बीच बंटवारे हुए

बाहरी रिश्तों में अब वो प्यार की खुशबू नहीं

तल्खियों से जिन्दगी के हाशिए खारे हुए

जीस्त का हासिल यही हक के लिए लड़ते रहो

खुदकुशी मंजिल नहीं ऐ जीस्त से हारे हुए

(पांच)

जिस तरफ डालो नजर सैलाब का संत्रास है

बाढ़ में डूबे शजर हैं नीलगूँ आकाश है

सामने की झाड़ियों से जो उलझ कर रह गई

वह किसी डूबे हुए इंसान की इक लाश है

साँप लिपटे हैं बबूलों की कटीली शाख से

सिरफिरों को जिंदगी में किस कदर विश्वास है

कितनी वहशतनाक है सरजू की पाकीजा कछार

मीटरों लहरें उछलतीं हश्र का आभास है

आम चर्चा है बशर ने दी है कुदरत को शिकस्त

कूवते इंसानियत का राज इस जा फाश है.

sarokarnama  से साभार .

दयानंद पांडेय

अपनी कहानियों और उपन्यासों के मार्फ़त लगातार चर्चा में रहने वाले दयानंद पांडेय का जन्म 30 जनवरी, 1958 को गोरखपुर ज़िले के एक गांव बैदौली में हुआ। हिंदी में एम.ए. करने के पहले ही से वह पत्रकारिता में आ गए। वर्ष 1978 से पत्रकारिता। उन के उपन्यास और कहानियों आदि की कोई 26 पुस्तकें प्रकाशित हैं। लोक कवि अब गाते नहीं पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का प्रेमचंद सम्मान, कहानी संग्रह ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ पर यशपाल सम्मान तथा फ़ेसबुक में फंसे चेहरे पर सर्जना सम्मान। लोक कवि अब गाते नहीं का भोजपुरी अनुवाद डा. ओम प्रकाश सिंह द्वारा अंजोरिया पर प्रकाशित। बड़की दी का यक्ष प्रश्न का अंगरेजी में, बर्फ़ में फंसी मछली का पंजाबी में और मन्ना जल्दी आना का उर्दू में अनुवाद प्रकाशित। बांसगांव की मुनमुन, वे जो हारे हुए, हारमोनियम के हज़ार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाज़े, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास),सात प्रेम कहानियां, ग्यारह पारिवारिक कहानियां, ग्यारह प्रतिनिधि कहानियां, बर्फ़ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), कुछ मुलाकातें, कुछ बातें [सिनेमा, साहित्य, संगीत और कला क्षेत्र के लोगों के इंटरव्यू] यादों का मधुबन (संस्मरण), मीडिया तो अब काले धन की गोद में [लेखों का संग्रह], एक जनांदोलन के गर्भपात की त्रासदी [ राजनीतिक लेखों का संग्रह], सिनेमा-सिनेमा [फ़िल्मी लेख और इंटरव्यू], सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित) तथा सुनील गावस्कर की प्रसिद्ध किताब ‘माई आइडल्स’ का हिंदी अनुवाद ‘मेरे प्रिय खिलाड़ी’ नाम से तथा पॉलिन कोलर की 'आई वाज़ हिटलर्स मेड' के हिंदी अनुवाद 'मैं हिटलर की दासी थी' का संपादन प्रकाशित। सरोकारनामा ब्लाग sarokarnama.blogspot.in वेबसाइट: sarokarnama.com संपर्क : 5/7, डालीबाग आफ़िसर्स कालोनी, लखनऊ- 226001 0522-2207728 09335233424 09415130127 dayanand.pandey@yahoo.com dayanand.pandey.novelist@gmail.com Email ThisBlogThis!Share to TwitterShare to FacebookShare to Pinterest

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