‘ अपना बिहार’ की तमन्ना तो अभी दूर की कौड़ी है
संजय मिश्र, नई दिल्ली
पटना के जो छात्र स्कूलिंग के बाद महानगरों में पढने जाते हैं। वे वहां अपना परिचय अक्सर ‘ पटना-एट ‘ कह कर देते हैं….’ बिहारी’ कह कर नहीं। ये मानसिकता ग्लोबलैजेसन के दौर में नहीं पनपी है। इसके दर्शन लालू युग में भी होते थे और उससे भी पहले कांग्रेसी शासनों में यही वास्तविकता थी। बिहार दिवस के मौके पर ऐसे युवा बिहारीपन की कसमें खा रहे थे। ये विलाप, टीवी स्क्रीन पर दिखने की चाहत का कमाल ज्यादा था, बनिस्पत ह्रदय परिवर्तन के। ये मानना खंडित सच होगा कि महज लालू प्रसाद के अ-गंभीर अंदाज की वजह से बिहारीपन को चोट पहुँची थी और अब सब कुछ ठीक हो जाएगा। दर-असल, राज्य के प्रति अनुराग में खालीपन की बुनियाद बिहार बनने के समय ही पर गई।
आज की पीढ़ी को ये जान शायद हैरानी हो कि बिहार का निर्माण इस बात को ध्यान में रख कर किया गया ताकि उस समय के पढ़े-लिखे ख़ास तबकों को नौकरी के अवसर मिलें। असल में उस समय सरकारी नौकरियों में बांग्ला-भाषियों का दब-दबा था। बिहार के हर शहर में बंगाली टोला की मौजूदगी इसे बखूबी बयान करते हैं। आधुनिक शिक्षा पाए कायस्थ वर्ग के लोग बांग्ला-भाषियों के कारण हाशिये पर होते। जबकि बिहार की कचहरियों में खड़ी बोली के प्रयोग की इजाजत से वे उत्साहित थे। उस समय अन्य जातियों में नौकरी के लिए लगाव नहीं के बराबर था।
उधर, कायस्थ और मुसलमानों में उच्च शिक्षा पाने वाला वर्ग अपनी महत्वाकांक्षा छुपा नहीं पा रहा था। कलकत्ता में इस तबके को भाव नहीं मिल रहा था। सच्चिदानंद सिन्हा, अली इमाम, और हसन इमाम जब बिहार के लिए मुहीम चला रहे थे तो नौकरी के अवसरों और समाज में धाक पर इनकी नजर गरी थी। किसी विराट सपने के वगैर चली ये मुहिम , अंग्रेजों की बांग्ला-भाषियों को कमजोर करने की नीति के कारण आसानी से सफल हुई।
बिहार बनने के बाद मुहिम चलाने वालों को फायदे हुए। सच्चिदाबाबू, बिहार गवर्नर के ‘ एक्जेक्युटिव काउनसेलोर ‘ बनाए गए। ये पद पाने के लिए सच्चिदानंद सिन्हा ने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी। गणेश दत्त सिन्हा ‘ मिनिस्टर इन चार्ज ‘ बने। ज्वाला प्रसाद को पटना हाई-कोर्ट का जज बनाया गया। अली इमाम दिल्ली में ‘ एक्जेक्युटिव काउंसे-लर ‘ बने। वहीं हसन इमाम पटना हाई-कोर्ट में जज बनाए गए। ये फेहरिस्त लम्बी है। जाहिर है स्वार्थ और महत्वाकाक्षा की कोख जे जन्मे बिहार की ‘ लोंगेविटी ‘ का सवाल सामने था। बिहार आन्दोलन के समानांतर बंगाल से मिथिला को अलग कर देने की सुगबुगाहट भी आकार ले चुकी थी। फिर भी मिथिला के मुरलीधर झा सरीखे लोग बिहार को ‘ मगध -मिथिला ‘ नाम से स्वीकार करना चाह रहे थे। आखिरकार ‘ बिहार ‘ नाम ही चला। सच्चिदानंद ने दरभंगा महाराज से अपने इस्टेट के काम-काज में हिन्दी के प्रयोग का अनुरोध किया । दरभंगा महाराज हिन्दी को प्रश्रय देने के लिए राजी हो गए।
बिहार को बनाए रखने के लिए दो तरह की सोच काम कर रही थी। पहली धारा ये मान कर चल रही थी कि मगध, मिथिला, भोजपुर, झारखण्ड, और उड़ीसा जैसे सांस्कृतिक क्षेत्रों की आकांक्षा का शासन में ‘ रिफ्लेक्सन ‘ हो तो लोगों में राज्य के लिए लगाव जगेगा। इस धारा के लोग मानते रहे कि एक साझा संस्कृति बनाई जा सकती । भोजपुरी, मगही और मैथिली के बीच रक्त संबंध में इन्हें सहमति के बिन्दु नजर आ रहे थे। जबकि दूसरी धारा के लोग समझा रहे थे कि बिहार एक माडर्न स्टेट है लिहाजा इसकी अलग पहचान होनी चाहिए। इनका दुराग्रह रहा कि इसके लिए बिहार के परम्परागत सांस्कृतिक क्षेत्रों की पहचान ‘ मिटनी’ होगी। इस दिशा में बकाएदा कोशिशें हुई। रणनीति बनी कि सबल सांस्कृतिक क्षेत्रों को आर्थिक मोर्चे पर कमजोर किया जाए और इनके सांस्कृतिक अवदान को अहमियत ना दी जाए। इसी कारण इन क्षेत्रों के प्रति ‘ इंटल – रेन्स ‘ शासन का स्थायी भाव बन गया।
दूसरी धारा का प्रभुत्व ज्यादा था लेकिन लक्ष्य मुश्किल। सौरसेनी हिन्दी थोपी गई। एक ‘ बिहारी ‘ हिन्दी की कल्पना भी की गई जो कमोवेश बिहार के सरकारी ऑफिसों में में क्लर्कों के बीच प्रचलन में है। हिन्दुस्तानी की भी वकालत हुई। आज भी प्रकाश झा अपने टीवी चैनल के जरिये बिहार की अलग हिन्दी गढ़ने में लगे हैं। ये ‘ बेतिया ब्रांड ‘ हिन्दी कहाँ तक चलेगी, कहना मुश्किल।
दूसरी धारा के वर्चस्व का नतीजा भयावह तस्वीर पेश करता है। साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता कवि सोमदेव के अनुसार भोजपुरी में लिखे जा रहे साहित्य में स्तरीय रचना की संख्या सौ के पार बमुश्किल जाती है। दरअसल, बिहार बनने के बाद भोजपुरी भाषी हिन्दी सेवा में लगे। भोजपुरी में साहित्य रचने की जरूरत का लगभग तिरस्कार किया गया। वे अब सचेत हुए हैं लेकिन भोजपुरी को सम्मान दिलाने की छटपटाहट में वे ‘शार्टकट ‘ की तलाश में हैं। ये जानते हुए कि साहित्य सृजन उन्हें शार्ट -कट की इजाजत नहीं देता। मगही का हाल बुरा है, वो अपनी पहचान का मोहताज है। ये एक स्वतन्त्र भाषा है बावजूद इसके मगही साहित्यकार इसे हिन्दी की बोली कहने में शर्म नहीं करते। उधर, मैथिली की जीवन यात्रा का लगभग नब्बे साल संघर्ष में ही बीत गया। ये नौबत बिहार की सांस्कृतिक संपदा की अनदेखी के कारण ही नहीं आया। दरअसल, सार्वजनिक जीवन में जातिवादी सोच को मिला प्रश्रय मारक साबित हुआ। इसे एक उदाहरण से समझें। छपरा का एक यादव, मधेपुरा के स्वजातीय से जितनी आत्मीयता दिखाता है, उतना वो छपरा के ही अन्य जाति के पड़ोसी से नहीं दिखाता। यही भाव अन्य जातियों में भी लागू होता है। शुरुआती दौर में कायास्थों और मुसलमानों के हाथ लगे वर्चस्व ने अन्य जातियों को भी उकसाया। अब बारी थी भूमिहारों और राजपूतों की। त्रिवेणी संघ के तहत कोयरी, कुर्मी और यादव सत्ता में हिस्सेदारी के लिए आगे बढ़े। ये सिलसिला चल पड़ा जो जारी है। लालू युग में दूसरी धारा नग्न रूप में दिखी।
जातिवादी हथियार इस ललक के साथ आगे बढ़ी कि जातीय उत्थान में ही राज्य का उत्थान है। इस हथियार का इतना प्रचंड असर हुआ कि विभिन्न क्षेत्रों की आशा का मर्दन तो हुआ ही साथ ही बिहार के लिए ममता का भाव पीछे छूट गया। निर्मम होकर सुख-भोग की अभिलाषा को तरजीह मिली। आर्थिक प्रगति में क्षेत्रीय असंतुलन को बढ़ावा मिला। मोहन गुरुस्वामी जब कहते हैं कि केंद्र से बिहार को ४०,००० करोड़ रूपये कम मिले तो इसकी वजह बिहार के सत्ता-धीशों की अलग प्राथमिकता में खोजी जा सकती है। नीतीश शायद पहली धारा के लिए रुझान दिखाना चाह रहे हैं। जीवन में बेहतरी की गुंजाइश राज्य के लिए लगाव पैदा करेगा। समस्याओं के अम्बार के बावजूद, नीतीश कुमार राज्य की योजना को संस्कृति सापेक्ष बनाबें। बेहतर होगा स्टेट योजना के अंतर्गत मगध, मिथिला, और भोजपुर के लिए अलग प्लानिंग कमिटी बने। आज का बिहारी युवा ये मानता है कि पुरातन गौरव से प्रेरणा ली जा सकती पर इसे पुर्नस्थापित नहीं किया जा सकता। आखिरकार, भावी पीढ़ी के लिए वर्तमान में गौरव करने लायक तत्व होने चाहिए। ऐसे में बंशी चाचा, किसान चाची, काशीनाथ और दशरथ मांझी जैसे नाम उम्मीद जगाते हैं। ‘हमारा बिहार’ की लौ अभी मध्यम है। इसे तेज करने की चुनौती है। ‘ अपना बिहार ‘ की तमन्ना तो अभी दूर की कौड़ी है।