अपने चेहरे में सौ आफ़ताब रखते हैं इसीलिये तो रुख़ पे नक़ाब रखते हैं—- हसरत जयपुरी
सलाम प्यार को, चाहत को, मेहरबानी को, सलाम जुल्फ को खुशबू की कामरानी को, सलाम सलाम गाल के तिलों को जो दिलों की मंजिल है। ऐसी शायरी के अजीमों शख्सियत हसरत जयपुरी का जन्म 15 अप्रैल 1918 में जयपुर में हुआ था। हसरत जयपुरी का नाम इकबाल हुसैन था। इन्होंने अपनी पूरी शिक्षा-दीक्षा जयपुर से हासिल की और इसके साथ ही शेरो — शायरी का हुनर इन्होंने अपने मरहूम नाना से तालीम के रूप में हासिल किया। हसरत कहते है बेशक मैंने शेरो – शायरी की तालीम अपने नाना से ली पर इश्क की तालीम मैंने अपनी प्रेमिका राधा से पाई। उसने बताया कि इश्क क्या होता है। राधा मेरी हवेली के सामने रहती थी, वो बहुत ही खूबसूरत थी। और मैं उसे प्यार करता था। वो झरोखे से झाकती थी तब मैंने अपने जीवन का पहला शेर लिखा, उसके लिए। “तू झरोखे से जो झाके, तो मैं इतना पुछू। मेरे महबूब तुझे प्यार करु या न करु”। अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद चमड़े की झोपड़ी की आग बुझाने के लिए मैं बम्बई आ गया, यहाँ पर मैंने आठ साल बस कंडक्टरी की। नौकरी करते हुए हसरत साहब ने कभी हसीनाओं से टिकट का पैसा नहीं लिया। वे कहते हैं, मैं इन हसीनाओं को देखते हुए बस यही कहा करता था कि तुम खुदा की बनाई नेमत हो, तुमसे टिकट के लिए पैसा नहीं लूँगा और उनसे जो प्रेरणा मिलती मुझे वो गीतों — कविताओ में घर आकर कागज के सीने में उतार देता। हसरत इन कामों के साथ ही मुशायरों में शिरकत करते। उसी दौरान एक कार्यक्रम में पृथ्वीराज कपूर उनके गीतों को सुनकर काफी प्रभावित हुए और उन्होंने अपने पुत्र राजकपूर को हसरत जयपुरी से मिलने की सलाह दी। राजकपूर स्वयं हसरत जयपुरी के पास गये और उन्होंने उन्हें अपने स्टूडियो बुलाया और वहीं पर उन्होंने हसरत साहब को एक धुन सुनाई। उस धुन पर हसरत साहब को गीत लिखना था। धुन के बोल कुछ इस तरह के थे, “अबुआ का पेड़ है वही मुंडेर है, आजा मेरे बालमा काहे की देर है”। हसरत जयपुरी ने धुन सुनकर अपनी फ़िल्मी जीवन का पहला गीत लिखा “. . .जिया बेकरार है, छाई बहार है. . . आजा मोरे बालमा तेरा इन्तजार है. . .”। फिल्म ‘बरसात’ के लिए लिखे इस गीत ने हसरत जयपुरी को पूरे देश में एक नई पहचान दी। हिंदी फिल्मों में जब भी टाइटिल गीतों का जिक्र होता है, तो हसरत जयपुरी नाम सबसे पहले लिया जाता है। वैसे तो हसरत जयपुरी एक ऐसे शायर थे। ‘दीवाना मुझको लोग कहे (दीवाना), “दिल एक मंदिर है”, “रात और दिन दीया जले”, “तेरे घर के सामने इक घर बनाउगा”, “गुमनाम है कोई बदनाम है कोई”, “ दो जासूस करे महसूस”, जैसे ढेर सारी फिल्मों के उन्होंने टाइटिल गीत लिखे इसके साथ ही हसरत जयपुरी ने लिखा “अब्शारे – गजल” में।
“ये कौन आ गई दिलरुबा महकी महकी फ़िज़ा महकी महकी हवा महकी महकी
वो आँखों में काजल वो बालों में गजरा हथेली पे उसके हिना महकी महकी”
ख़ुदा जाने किस-किस की ये जान लेगी वो क़ातिल अदा वो सबा महकी महकी सवेरे सवेरे मेरे घर पे आई ऐ “हसरत” वो बाद- ए- सबा महकी महकी, उन्होंने प्रेम को प्रतीक माना ————— हसरत जयपुरी ने अपनी उस प्रेमिका के लिए बहुत से गीत लिखे जहा वो बोल पड़ते है चल मेरे साथ ही चल ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल इन समाजों के बनाये हुये बंधन से निकल, चल ,
हम वहाँ जाये जहाँ प्यार पे पहरे न लगें दिल की दौलत पे जहाँ कोई लुटेरे न लगें कब है बदला ये ज़माना, तू ज़माने को बदल, चल
प्यार सच्चा हो तो राहें भी निकल आती हैं बिजलियाँ अर्श से ख़ुद रास्ता दिखलाती हैं तू भी बिजली की तरह ग़म के अँधेरों से निकल, चलइन्होने अपने प्यार का इजहार बहुत ही शानदार तरीके से किया पर हसरत कभी अपनी उस पहली प्रेमिका को कह नहीं पाये और उन्होंने उस ‘राधा’ के लिए जो अपना पहला प्रेम पत्र लिखा था उसको वो कभी अपनी राधा को नहीं दे पाए। तब राजकपूर ने उनके प्रेम — पत्र को एक फिल्म में इस्तेमाल किया “ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर, कहीं तुम नाराज न होना… कि तुम मेरी जिन्दगी हो तुम मेरी बन्दगी हो”
हसरत के गीतों में अंतर वेदना के साथ प्रेम की असीम गहराई है। हसरत जयपुरी की जोड़ी राजकपूर के साथ 1071 तक कायम रही। “मेरा नाम जोकर” और “कल आज और कल” के बाक्स आफिस में विफलता के कारण राजकपूर से उनकी जोड़ी टूट गयी और राजकपूर ने फिर आनन्द बख्शी को अपने साथ ले लिया। इसके बाद हसरत जयपुरी ने राजकपूर के लिए 1985 में प्रदर्शित फिल्म “राम तेरी गंगा मैली” में “सुन साहिबा सुन” गीत लिखा जो काफी लोकप्रिय हुआ। हसरत जयपुरी को दो बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। हसरत जयपुरी ने यूं तो बहुत रूमानी गीत लिखे लेकिन असल जिन्दगी में उन्हें अपना पहला प्यार नहीं मिला। हसरत के तीन दशक के लम्बे फ़िल्मी कैरियर में 300 से अधिक फिल्मों के लिए करीब 2000 गीत लिखे। अपने गीतों से श्रोताओं को मन्त्र मुग्ध करने वाला शायर 17 सितम्बर 1999 में चिर निद्रा में विलीन हो गया और छोड़ गया अपने लिखे वो गीत जो उसने सादे कागज के कैनवास पे उतारे थे और अलविदा कह दिया उसने इस दुनिया को। ऐसे शायर को शत् शत् नमन्।
सुनील दत्ता — स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक