अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मीडिया की आजादी!
अनिता गौतम,
मीडिया और राजनीति वैसे तो अलग अलग नहीं हैं, क्योंकि संवैधानिक व्यवस्था में जहां तीन स्तंभ न्यायपालिका, कार्यपालिका, और व्यवस्थापिका को स्वीकार किया गया गया है, उसी तर्ज पर मीडिया को चौथे खंभे यानि फोर्थ स्टेट के रूप में पहचान मिली है। जाहिर है इस तरह देश के संविधान और उसकी कार्यशैली को मीडिया भी अपने स्तर से प्रभावित करने की क्षमता रखती है। परंतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दावा और जनहित की वकालत करने वाली मीडिया आज लोगों के भरोसे पर खरी नहीं उतर रही है। और इसकी जो सबसे बड़ी वजह है वह है लोगों तक मीडिया की पहुंच और उनकी कार्यशैली को लेकर आक्रोश। समाज में मीडिया की पहुंच का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
‘जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि’ इस जुमले को लोग मीडिया के साथ जोड़ कर देख रहे हैं। उनकी उम्मीद और भरोसा पुलिस-पब्लिक से ज्यादा मीडिया और पब्लिक के रिश्तों के बीच के तालमेल पर होती है। यह विश्वास कि मीडिया ही समाज की दशा और दिशा बदलने में सक्षम है। आज वैश्वीकरण के इस दौर में जहां हर चीज बिकाऊ और नफे नुकसान के दायरे में आ गई है फिर भी लोगों की उम्मीद मीडिया को लेकर नहीं बदली है। परन्तु दुर्भाग्य से विकसित देशों ने तो मीडिया की गरिमा को कायम रखा है पर गरीब और विकासशील देशों में मीडिया की भूमिका आज संदेह के घेरे में आ गई है। जिस तरह से प्रिंट और विजुवल मीडिया की खबरें लोगों को परोसी जाती हैं उससे आम जन ही नहीं राजनेताओं के बीच भी इसकी विश्वसनीयता खतरे में दिखती है।
आज की खबरों के गिरते स्तर और चाटुकारिता भरी एक तरफा रिपोर्टिंग बच्चे भी समझ सकते हैं। सभी को यह लगता कि या तो मीडिया ऊंची पहुंच वाले राजनेताओं अथवा तानाशाहों के दबाव में खुलकर सामने नहीं आ पाती या फिर उनकी हां में हां मिलाने में ही अपना और मीडिया हाउस का फायदा देखती और समझती है। कॉरपोरेट जगत की चमक-दमक और राजनेताओं की अय्याशियों में गुमराह मीडिया नीचले स्तर के संघर्षरत लोगों या यूं कहें आम जन की तकलीफों को नहीं देख पाता। मीडिया की कार्यशैली पूरी तरह से बिकाऊ और ब्लैकमेलिंग की पॉलिसी पर काम करती नजर आती है। उनकी समाज विरोधी भूमिका पर देश के प्रधानमंत्री से लेकर सूचना और प्रसारण मंत्री तक ने असंतोष जताया है। कई दफा सार्वजिक मंच से इन लोगों ने मीडिया की भूमिका पर सवाल खड़े किये हैं तथा अपने स्तर से नसीहतें देने की भी कोशिश की है। खास तौर से खबरों को चटपटी बनाने को लेकर।
राजद प्रमुख ने तो कई दफा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अलग अलग न्यूज चैनलों को अपनी बाइट इस हिदायत के साथ दी कि चैनल वाले सिर्फ हमारी न्यूज प्रसारित करें न कि इसमें अपनी व्यूज भी घुसा दें।
मतलब बिल्कुल साफ है कि इन मीडिया की तोड़ मरोड़ की भाषा राजनेताओं को भी रास नहीं आती। भारत जहां किसानों का देश हैं, इसकी आधी से ज्यादा आबादी आज भी गावों में बसती है पर इतने बड़े समाज के लिये देश की मीडिया को न तो फुर्सत है और न ही जरूरत। देश में किसान, मजदूर आज भी विकास से कोसों दूर हैं।
सरकारी योजनाओं को उन तक पहुचाने का एक मात्र साधन जहां अखबार और खबरें हैं, पर दुर्भाग्य से उन तक सरकारी योजनाओं के बारे में नाममात्र की भी जानकारी नहीं पहुच पाती। यां यूं कहे कि सारी योजनायें कागजों पर ही बनकर कागजों पर ही कार्यान्वित हो जाती।
दो दो भारत की तस्वीर की कल्पना साफ साफ देखी और समझी जा सकती है कि किस तरह से देश का एक तबका शिक्षा और साधन संपन्नता के साथ विकास कर रहा है, तो दूसरी तरफ समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग शिक्षा के महत्व के ज्ञान से भी वंचित है। किसान, मजदूर शिक्षा के आभाव में विकास से काफी दूर हैं, और आज भी दो जून की रोटी के लिये उनकी जद्दोजहद जारी है।
टीवी, रेडियो जैसे संचार के साधनों का उपयोग आज भी यह तबका सिर्फ मनोरंजन के लिए करता हैं। जबकि इन सांसाधनों का सही उपयोग तब हो जब सुदूर देहात और पिछड़े इलाकों तक सरकारी योजनाओं की जानकारी अपनी पूरी ईमानदारी से मीडिया पहुंचाये। उनकी खबरें राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाकर या फिर राष्ट्रीय खबरों (योजनाओं) की जानकारी उन तक पहुंचाकर, दोनों ही परिस्थितयों में इनके समुचित विकास के लिये मीडिया बखूबी सकारात्मक भूमिका निभा सकती है। बहुत मुश्किल नहीं अगर हर कदम पर मीडिया का रोल बदल जाये, खबरें हों पर अपनी सही पहचान और सही झलक के साथ, फिर समय के बदलाव की बयार में समाज के ये पिछड़े लोग भी मुख्य धारा में आ जायें।
परंतु दबाव और मालिकों के दायित्व निर्वहन में आज मीडिया की भूमिका संदेह के घेरे में आ गयी है। स्थिति बिल्कुल साफ है कि आज मीडिया अपनी जिस तरह की भूमिका में है वहां उसे सिर्फ और सिर्फ मुनाफे की पढ़ाई पढ़नी आती है। इस मुनाफे की जुगत में खबरों को लेकर सनसनी फैलाने और नमक मिर्च मसाला लगा कर परोसने से भी कोई गुरेज नहीं आज की मीडिया को।
खबरों की सत्यता या फिर खबरों का अभाव, या अपने वातानुकुलित दफ्तर में बैठ कर किसी के भी बयान को विवादास्पद बना कर या बता कर नामचीन हस्तियों के साथ बहस और बेवजह का तूल देने जैसी ट्रेनिंग आज के स्वयंभू एडिटर की सबसे बड़ी खूबी मानी जाती। उनकी भूमिका समाज के लिये कम और राजनीतिक फायदे के दम पर मीडिया के क्षेत्र में निर्धारित होती, जहां वे सामाजिक और नैतिक जिम्मेवारियों से कोसों दूर होते। कार्पोरेट घरानों के साथ साथ ही राजनीतिक गलियारों के लाभ के लिये ही ये ज्यादा चिन्तित दिखते।
पैसा बोलता है कि तर्ज पर इनके कैमरे भी बोलते हैं। हैरानी होती जब बलात्कार जैसी खबरों को भी इनके द्वारा महज अपने फायदे के लिये और सनसनी फैलाने के लिये दिखाया जाता। मीडिया पर किसी तरह के दबाव की बात से इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि उनके खबरों के चयन और प्रसारण एवं प्रकाशण के स्तर को देखकर इसे सहजता से समझा जा सकता है। आये दिन मीडिया कर्मियों के द्वारा अनौपचारिक तरीके से यह बताया जाता है कि उनकी खबरें जब प्रसारण और प्रकाशन के लिये जाती हैं तो उनके लिये अपनी खबरों को ही पहचानना मुश्किल हो जाता। नये नये खबरनवीस जब काफी मेहनत और जुगत से खबरों की समीक्षा करते हैं तो कहानी न सिर्फ काट छांट की शिकार होती बरन् दबाव और तुष्टिकरण की नीति खबरों की आत्मा तक को ग्रसित कर लेती।
इस प्रकार बिना किसी दुविधा के यह समझा जा सकता कि मीडिया न सिर्फ दबाव में होती बल्कि गुलामी में भी होती। मीडिया की इसी पेशोपेश का विकल्प बन कर आज सोशल मीडिया अपनी पैठ बना रहा है। सोशल मीडिया आधुनिकता की दौड़ में भले शामिल हो जाये पर भारत जैसे साधनहीन देश में आज भी मीडिया के पुराने और पारंपरिक तरीके ही समाज के लिये असरदार हैं।
ऐतिहासिक मिथक की भी बात करें तो जिस तरह से धृतराष्ट्र को संजय ने पूरे महाभारत का सचित्र वर्णन किया था ठीक वैसे ही आज मीडिया को भी अपनी शक्ति को पहचान कर आवाम तक समाज की असली तस्वीर पहुचानी चाहिये। विकास से अछूते वर्ग की सच्चाई लोगों तक लाये। संचार का यह माध्यम ही वास्तविक रूप से जनहित के लिये काम कर सकता है। सामाजिक सरोकारों की अवहेलना न कर देश की संस्कृति और समाज पर अपने सकारात्मक असर को एक नई पहचान देने की कोशिश करे। निसंदेह आज मीडिया जनसंचार का सबसे बड़ा माध्यम है। मीडिया की पहुंच और उसका असर किसी भी देश की संस्कृति, समाज, भाषा, राजनीति और रहन सहन पर व्यापक रूप से होता है। तो जाहिर है कि मीडिया को भी अपने दायित्व को समझना होगा और बिना किसी दबाव में आये अपना कर्तव्य निर्वहण करना होगा।
एक समय यह जुमला बड़े गर्व से मीडिया में इस्तेमाल होता था कि “पत्रकारिता एक मिशन है, न कि कोई प्रोफेशन” पर आज मीडिया ने इसे पूरी तरह से प्रोफेशन के रूप में अपना लिया है। सेठ साहुकारों के नफे-नुकसान की भाषा आज मीडिया की पहचान बन गयी है। परन्तु आज भी हम और हमारा समाज पूरी ईमानदारी से एक उम्मीद लगा कर मीडिया की तरफ देख रहा है।
उसे पूरा विश्वास है कि तिलक और गांधी के इस देश में मीडिया अपने बजूद को बचाने में कामयाब होगी। जन मानस की आवाज बनकर किसानों की समस्याओं, समाज में फैले कुपोषण, आदिवासी क्षेत्रों के विकास और बढ़ते नक्सली समस्याओं के निदान में अपनी बेहतर भूमिका में होगी। खबरों की सर्थकता तभी है जब समाज और जनकल्याण की बातें हो, जन सामान्य के प्रति संवेदना जागृत हो, समाज में भाईचारा फैले एवं आज जो सबसे बड़ी समस्या या यू कहें कि हर समस्या की जड़ बना हुआ है, समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता, उसे दूर करने का प्रयास हो। अतिश्योक्ति नहीं होगी अगर यह कहा जाये कि मीडिया सबसे अहम रोल अदा कर सकता है हर तरह से एक नये समाज निर्माण में, पिछड़े और अति पिछड़ें समाज को विकास की मुख्य धारा में लाने में, एवं वह वर्ग जो आज भी विकास से एक दम अछूता है वहां तक अपनी सकारात्मक भूमिका निभाने में।
बहरहाल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर मीडिया कितनी आजाद है यह कहना मुश्किल है पर जनसरोकार की दुहाई देने वाली मीडिया से लोगों की उम्मीदें बरकार हैं। मीडिया पूंजिपतियों की गुलामी और सिर्फ अपनी पीठ थपथपाने के मौके तलाशने से बाज आये एवं ईमानदारी से खबरों की तह तक जाये, उसकी समीक्षा करे एवं इसे व्यवसाय न मान कर मिशन बनाये। राजनीति और पूंजिपतियों की धरोहर मीडिया समाज की धरोहर बने, समाज में मिशाल बने और भारत निर्माण में अपनी सकारात्मक भूमिका तय करे।