आंदोलनों का गर्भपातगाह बना हुआ है दिल्ली!
पिछले कुछ अरसे से दिल्ली आंदोलनों का गर्भपातगाह बना हुआ है। पहले अन्ना आंदोलन, फिर बाबा रामदेव का आंदोलन, फिर अरविंद केजरीवाल का आंदोलन, फिर गैंग रेप से उठा स्वत: आंदोलन ! हर बार यही अहसास कराया गया कि बस इंकलाब हो गया, लेकिन हर बार इन आंदोलनों का गर्भपात ही हुआ। तमाम आंदोलन क्रांति के रूप में तब्दील होने के पहले ही भुरभुरा कर गिर गये। अवाम आज भी प्रसव पीड़ा को झेलते हुये लतपथ अवस्था में वहीं हैं जहां कल था। सवाल उठता है कि आखिर परिपक्व होने के पहले ही ये तमाम आंदोलन काल कलिवत क्यों हुये ? इससे भी बड़ा सवाल कि यदि खुदा न खास्ते फिर कोई आंदोलन शुरु होता है तो उसका मुस्तकिबल क्या होगा ?
बच्चा तंदुरुस्त पैदा हो इसके लिए काफी जतन करना पड़ता है। सबसे जरूरी चीज है महिला के गर्भ में स्वस्थ्य शुक्राणु का प्रवेश, फिर उसकी सही तरीके से देखभाल। आंदोलनों के संदर्भ में कमोवेश यही वैज्ञानिक जैवकीय फामूर्ला लागू होता है। अन्ना के आंदोलन का वैचारिक शुक्राणु कमजोर था। इस आंदोलन का आधार बीज था जनलोक पाल विधयेक, जिसे एनजीओ के आर्टिफिशियल शुक्राणु से तैयार किया गया था और यह आंदोलन की डेलिवरी पूरी तरह से सत्ता के रहमों करम पर निर्भर था। यानि सत्ता चाहती तभी इसका जन्म होता। तमाम हल्ला हंगामे के बावजूद सत्ता ने मुंह मोड़ लिया और यह आंदोलन अपनी मौत खुद मर गया। मजे की बात है कि इस आंदोलन के तमाम कर्ता-धर्ता अंत तक इस बात को नहीं समझ पाये कि सत्ता कभी दूसरे के कोख से निकलते आंदोलनों को गोद नहीं लेती है, यदि लेती भी हो तो सिर्फ कुछ समय के लिए कि कैसे सही समय आने पर उस आंदोलन विशेष से वह अपने स्थापित प्रतिमानों को और मजबूत करे। अन्ना के हलक से निकलने वाली आवाज मीडिया में तो खूब गूंजी, इस पर पत्र-पत्रिकाओं में भी खूब स्याही झोंके गये, लेकिन देश के मुखतलफ हिस्सों के लोगों को व्यापक पैमाने पर जोड़ कर उनकी सामूहिक शक्ति को संचालित करने में नाकाम रही। इसका अन्य प्रमुख कारण था वैज्ञानिक संगठन का अभाव। इस आंदोनल में संगठन के नाम पर तमाम तरह के एनजीओ कार्यकर्ताओं का जमावड़ा था। सब के सब छद्म पेड वर्कर के तौर पर काम कर रहे थे, उद्देश्य के नाम पर इनके पास सिर्फ उलझा हुआ जनलोक पाल था। देश की एक बहुत बड़ी आबादी इसे समझ पाने में ही नाकाम थी। अपार्टमेंट कल्चर का एक तबका ही इससे जुड़ा हुआ महसूस कर रहा था।
अन्ना आंदोलन की नाकामी के बाद अरविंद केजरीवाल छिटककर अलग पार्टी बनाने का दम भरने लगे और साथ-साथ ही विभिन्न दलों के नेताओं और उनसे जुड़ों लोगों पर भ्रष्ठ होने का आरोप भी लगाने लगे, लेकिन इनके पास भी किसी बड़े आंदोलन के लिए ठोस वैचारिक शुक्राणु का अभाव रहा। ‘आम आदमी-आम आदमी’ चिल्लाने के अलावा यह कुछ नहीं कर सके। एक कच्छा टाइप पार्टी भी बनाई, जो खड़ा होने से पहले ही हांफ रही है। अरविंद केजरीवाल भारतीय डेमोक्रेसी में किसी राजनीतिक पार्टी को संचालित होने वाली शक्तियों को नहीं समझ पा रहे हैं, या यूं कहा जाये कि उनके अंदर यह कूबत ही नहीं है कि वह इस बात को समझ पाये। भारत जैसे देश में किसी राजनीतिक पार्टी की कामयाबी के लिए यह जरूरी है कि या तो वह समाज के विभिन्न समुदायों के हितों के बीच संतुलन बना कर चले या फिर ठोस वैचारिक आधार प्रस्तुत करे या फिर दोनों को साथ लेकर चले। आम आदमी जैसा शब्द किसी समुदाय विशेष का प्रतिनिधित्व नहीं करता। अरविंद केजरीवाल इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि हर आम आदमी किसी न किसी जाति या सामाजिक गुट से ताल्लुक रखता है और चुनावी मैकेनिज्म का तानाबाना इसी को ध्यान में रखकर बुना जाता है।
अब बात बाबा रामदेव और उनके विदेशों से काला रकम वापस लाने वाले आंदोलन की। बाबा रामदेव के होठों पर काला धन से संबंधित जो जुमले हैं, वो भारतीय स्वाभिमान आंदोलन के प्रवर्तक राजीव दीक्षित के हैं। यदि बेबाक शब्दों में कहा जाये तो बाबा रामदेव पूरी तरह से राजीव दीक्षित के शब्दों को ही दोहराते आ रहे हैं। राजीव दीक्षित के शब्दकोश में उन्होंने घुसपैठ किया है और राजीव दीक्षित की रहस्मय मौत के बाद तो उन्होंने पूरी तरह से उस पर कब्जा ही जमा लिया है। लेकिन राजीव दीक्षित एक मौलिक चिंतक थे और भारत तथा अन्य मुल्कों में बहने वाले विचारों और छोटी-बड़ी घटनाओं से वह जुड़े रहते थे। बाबा रामदेव इस मामले में शून्य पर अटके हुये हैं। आंदोलन के प्रैक्टिकल फार्मेट की भी उन्हें जानकारी और अनुभव नहीं रहा है। सामाजिक विज्ञान की सोच से तो वह कोसो दूर हैं। सत्ता किसी आवांछित आंदोलन के साथ कैसे पेश आता है इसका इल्म भी उन्हें नहीं है। तभी तो सत्ता के रौद्र रूप को देखकर उन्हें रामलीला मैदान से अपना गेरुआ वस्त्र छोड़कर सलवार कुर्ता पहन कर भागना पड़ा। इस तरह से उनके आंदोलन की भी भ्रूण हत्या हो गई।
दिल्ली में एक चलती बस पर गैंग रेप से जुड़े हंगामों ने भले ही देश भर के लोगों का ध्यान आकर्षित किया हो, लेकिन इन हंगामों से जुड़े लोगों की मांग भी सीमित ही रही, दिल्ली में महिलाओं की सुरक्षा और बलात्कारियों को फांसी। मजे की बात है कि प्रदर्शनकारियों पर लाठी और आंसू के गोले छोड़ने के बावजूद सरकार भी सैद्धातिक रूप से उनके साथ ही थी, इसलिए इसे सरकार या व्यवस्था विरोधी आंदोलन करार नहीं दिया जा सकता। इसे एक घटना विशेष से उपजा लोगों का तत्कालिक गुस्सा कहा जा सकता है। उत्तर भारत में चलने वाली सर्द लहरों ने इस गुस्से को ठंडा कर दिया है और पुलिस और कोर्ट भी अपना काम कर रही है। यदि दूसरे शब्दों में कहा जाये तो इस आंदोलन का भी गर्भपात हो चुका है।
यदि ध्यान से देखा जाये तो इन आंदोलन के धराशाई होने की मुख्य वजह मजबूत वैचारिक शुक्राणु की कमी, वैज्ञानिक संगठन का अभाव, निरंतरता बनाये रखने की क्षमता का अभाव और निजी तौर पर इन आंदोलनों के तमाम नुमाइंदों का मौलिक रूप से नेता न होना है। यदि अपने मतलब के लिए मीडिया इन नेताओं का लगातार ढोल न पीटती तो शायद इन्हें आंदोलन भी नहीं कहा जाता। 1905 की असफल रूसी क्रांति के बाद लेनिन ने कहा था, यह अभ्यास है, असल क्रांति तो अब होनी है। शायद दिल्ली के इन असफल आंदोलन की सार्थकता भी इसी में है, लेकिन इसके लिए एक सफल क्रांति की जरूरत तो होगी ही और सफल क्रांति के लिए मजबूत वैचारिक शुक्राणु चाहिए। मजबूत वैचारिक शुक्राणु बेहतर नेताओं को जन्म देगा, जो तात्कालिक घटनाओं को ध्यान में रखते हुये क्रांति से संबंधित भविष्य की दूरगामी योजनाओं को बनाने में सक्षम होंगे।