आखिर क्यों नहीं रुक रहे बाल अपराध ?
परिवर्तन चाहे सामाजिक हो, राजनीतिक हो या फिर प्राकृतिक इसे बहुत आसानी से महसूस किया जा सकता है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। जहां सब कुछ अपने आप बदल रहा है, फिर इन सारे परिवर्तनों के बीच बच्चों के स्वभाव और उनकी जरुरतें भी बदल रही हैं। उनके मनोविज्ञान बदल रहे हैं जिन्हें समझने में आज की सामाजिक व्यवस्था नाकाफी साबित हो रही है।
बच्चों के व्यवहार इतनी तेजी से बदल रहे हैं कि देश की युवा पीढ़ी अपने सही रास्ते से भटक रही है। 14 से 20 वर्ष की आयु वर्ग में बच्चे अत्यंत संवेदनशील हो जाते हैं और इसी आयु में उनके भविष्य भी निर्धारित होते हैं।
बच्चों में आज जिस तरह से अपराध करने की प्रवृति बढ़ रही है वह देश के लिये एक गंभीर चुनौती है। आखिर कहां चूक रहे हैं हम, कि हमारे नौनिहाल एक मजबूत कर्णधार न बन कर बाल सुधार गृह और सलाखों के पीछे पहुंच रहे हैं। समृद्ध देशों में इस तरह की समस्यायें आम हुआ करती थी। साधन संपन्नता उन्हें गुमराह करती थी, पर आज भारत जैसे जुझारु देश में जहां बच्चों का पालन पोषण एक ऐसे माहौल में होता जिसमें नई पीढ़ी हर तरह की जद्दोजहद देखती है।
आज बच्चों को प्रतिष्ठित स्कूलों में पढ़ाने की होड़ लगी हुई है, साथ ही अच्छे संस्कारों के साथ परवरिश की कोशिशें भी होती, फिर भी सर्वे रिपोर्टों की माने तो ज्यादा तर बड़े और प्रतिष्ठित परिवारों से ही आने वाले बच्चे गंभीर अपराधों में लिप्त पाये जाते हैं।
चोरी डकैती की घटनाओं को नजरअंदाज भी किया जाये तो आज के युवा होते बच्चे का सबसे गंभीर अपराध दिखाई देता उनका यौन शोषण और बलात्कार जैसे अपराधों में लिप्त पाया जाना। इस गंभीर अपराध में वे इस तरह से लिप्त हो जाते कि नौबत हत्या तक पहुंच जाती। हैरानी होती कि इन बढ़ते बच्चों को अपने भविष्य की चिन्ता नहीं रहती। क्या इन सबके लिये हमारी शिक्षा प्रणाली जिम्मेवार है या फिर पारिवारिक परिवेश जहां ये बच्चे अपने भविष्य से बेखबर सिर्फ वर्तमान में जीने और एक साथ बिना परिश्रम सब कुछ हासिल कर लेने की चाहत रखने का पाठ पढ़ते हैं।
इन बच्चों के इस तरह की स्थिति के लिये निश्चित रूप से अभिभावक और उनकी परवरिश के गलत तरीके को जिम्मेवार बताया जा सकता हैं। तकनीकी विकास और उसके दुरुपयोग को भी इसकी जिम्मेवारी लेनी होगी। पर आखिर उन सब पर इतनी निर्भरता की आवश्यकता बच्चों को क्यों महसूस हो रही है। क्या अपनों से बढ़ती दूरी इसके लिये दोषी नहीं है। विकास की गलत परिभाषा, मसलन भौतिक सुविधाओं की चकाचौंध इन बाल सुलभ मन को कमजोर कर रहा है। बढ़ते बच्चों का न तो अपने बड़ों के साथ और न ही बच्चों के साथ तालमेल बना पाने का अभाव उन्हें वैचारिक रूप से गुमराह कर रहा है।
ऐसा माना जाता है कि बच्चे पहला पाठ अपने घर से ही सीखते हैं, जहां उन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है। पर अपनी जिम्मेदारियों को नजर अंदाज कर, समयाभाव की दुहाई देकर अभिभावक अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। और यहीं से शुरू होता बच्चों में दुत्कारने, फट्कारने और कड़ाई से हिदायत देने का सिलसिला। इस का सीधा असर यह होता कि बच्चें अपने परिजनों से दूर होते चले जाते, अपने वचाव के लिये झूठ का सहारा लेते और फिर बात बिगड़ने लगती जब इस तरह के कुंठित बच्चें छोटी मोटी हिंसा से होते हुये किसी बड़े अपराध में लिप्त हो जाते। जाहिर है बच्चों में ऐसी परिस्थितियों के लिये अभिभावक से भावनात्मक दूरी ही ज्यादा जिम्मेवार है।
स्कूल की शिक्षा प्रणाली भी बहुत हद तक इन बाल अपराधियों की मनोवृति को नहीं समझ पा रही है। वहां भी नैतिक शिक्षा पर जोर न देकर सिर्फ और सिर्फ भविष्य में अधिकाधिक पैसे कमाने और भौतिक सुखों को ही आधार बना कर बच्चों को पढ़ाई के लिये प्रेरित किया जाता है। इस तरह पढ़ाई का बोझ बच्चों के लिये सिर्फ किताबी ज्ञान और अधिकाधिक पैसा कमाना भर बन कर रह जाता है। और उन्हें इसी कठिन पढ़ाई का आसान विकल्प दिखाई देता अपराध का रास्ता। चोरी, डकैती, छिनतई और राहजनी से भी पैसे कमाये जा सकते हैं और ज्यादा आसानी से कमाये जा सकते हैं ये फितरत काम करती है।
बहरहाल बाल अपराध के कारणों की गंभीरता को समझना आसान नहीं है। पर बच्चों के लिये स्वस्थ्य वातावरण बनाकर उनके साथ दोस्ताना व्यवहार रखकर या फिर यों कहें कि स्वयं भी बच्चों के साथ बच्चे बन कर उनकी मनस्थिति को समझने की कोशिश अवश्य की जा सकती।
बच्चों द्वारा किया गया समाज विरोधी कोई भी कार्य बाल अपराध की श्रेणी में आता है और इसके लिये उन्हें सजा के तौर पर बाल सुधार गृह में रखा जाता है। पर समस्या यह नहीं है कि उनका सुधार कैसे हो, समस्या है कि आखिर उन्हें इस समाज विरोधी कार्य की परिभाषा कैसे समझाई जाये। बाल अपराध प्राथमिक स्तर पर बहुत सामान्य होते हैं पर जैसे जैसे इनमें ये आदत के रूप में दिखने लगती है, और प्रारंभिक उपाय से दूर नहीं करने की स्थिति में आ जाती तब समाज और परिवार का ध्यान इस ओर जाता है।
बाल सुलभ ज्ञान के भरोसे बच्चों को छोड़ना फिर उनकी छोटी मोटी गलतियों को नजरअंदाज करना और दूसरे की त्रुटियों को दिखाना, बड़ी बड़ी गलतियों को बच्चों की भूल बताना और गलत तरीके से उनका बचाव आज बाल अपराध के लिये सबसे ज्यादा जिम्मेदार है।
नर्म मिट्टी की तरह होते हैं ये बच्चे, बिल्कुल शीशे की तरह साफ और भोले भाले पर सामाजिक परिवेश और पारिवारिक पृष्ठभूमि का जब इन पर असर शुरू होता तब इन्हें समुचित ज्ञान कराना और सही राह दिखाना निश्चित रूप से इन्हें सामान्य से भी बेहतर इंसान और देश का एक जिम्मेदार और सभ्य नागरिक बना सकता है।
बाल अपराध की परिभाषा सिर्फ समाज विरोधी कार्य न होकर गंभीर अपराध का रूप ले रहे हैं और उन्हें इस सूरत में भी सहयोग और मुख्य धारा में लाने का प्रयास होना चाहिये न कि उन्हें उपेक्षित कर के उनके भविष्य से खिलवाड़।