एक पत्रकार का विक्ली आफ (कहानी)
“भाई कल डेस्क पर संकट है, लोग कम है, आप आ जाइऐगा ”, बस ये चंद शब्द काफी होते हैं आपके विक्ली आफ का बाजा बजाने के लिए। अखबार की नौकरी में आपकी साप्ताहिक छुट्टी कब रद्द कर दी जाये किसी को पता नहीं होता। हां, आपकी रद्द छुट्टी के ऐवज में आपको ओवर टाइम जरूर मिल जाएगा, यदि अखबार ठीक ठाक है तो। काम करते-करते आपके दिमाग का ग्रिड कब फेल हो जाये, कहना मुश्किल है। इसलिये अखबार में काम करने वाले लोगों में कुछ न कुछ सनकीपन का अंश जरूर मिलेगा।
“साली जब छुट्टी नहीं मिलती, तब नींद खूब आती है। ऐसा लगता जैसे 24 घंटा नींद में ही चल रहा हूं। जब छुट्टी मिल जाती है तब मारे खुशी के नींद का पता ही नहीं चलता है”, रात के तीन बजे अपने कमरे का ताला खोलते हुये कालविन बुदबुदा रहा था। पिछले दो महीने से लगातार कंप्यूटर पर बैठकर हेडलाइन, सबहेड, क्रासर और फ्लैग लगाते-लगाते वह बुरी तरह से उब चुका था। स्वीच आन करने के बाद जैसे ही कमरे में प्रकाश हुआ वह असामान्य रुप से अपने आप को कोसने लगा, “पता नहीं पिछले जन्म में क्या गलती की थी कि इस जन्म में रात-रात भर जागने की सजा मिल रही है। साला पत्रकार बनना चाहता था। अपने बाप की एक नहीं सुनी। वह कहता था- सरकारी नौकरी कर, मजे करेगा… लेकिन तू तो साला दुनिया की सेवा करना चाहता था… मानवाधिकार… लोकतंत्र…चौथा खंभा…और न जाने क्या क्या…जब दिमागतंत्र ही खराब हो जाये तो लोकतंत्र को लेकर क्या आचार डालेगा ?” इसी मनोस्थिति में उसने जूते खोले, हीटर जलाया और बेड पर लेट गया। लाख कोशिश के बावजूद उसे नींद नहीं आई। बेड के पास टेबल पर पड़े हुये किताबों के ढेर में से एक को उठाया और उसके पन्ने उलटने लगा। 1917 ई. की रूसी क्रांति पर लिखी गई यह जोन रीड की चर्चित पुस्तक “जब दस दिन दुनिया हिल उठी” थी। वह इस पुस्तक को कई बार पढ़ चुका था। इसके बावजूद इस पुस्तक को पढ़ने में उसे मजा आता था। काफी देर तक लगातार पुस्तक पढ़ने के दौरान कब उसे नींद आ गई पता भी नहीं चला।
“चाय पी लो, साहब जी” जब उसकी आंख खुली तो सामने नेपाली बहादुर को पाया, जिसके एक हाथ में चाय का कप और दूसरे में अखबारों का बंडल था।
“अखबार इधर ला और चाय नीचे रख दे”, उनमुनाते हुये वह उठा और अपने चश्मे को तलाश करने लगा, जो रात में उसकी आंखों से सरक कर बिछावन पर कहीं गिर गया था।
“ओबामा भारत आएंगे, अयोध्या में हिन्दू और मुलसान दोनों रहेंगे, जर्मनी में अलकायदा के नेटवर्क का खुलासा, बिहार में कांग्रेसी की दूसरी सूची जारी ”, सभी खबरों की हेडलाइन पर उसकी नजर अपने आप दौड़ती चली गई। इसके लिए उसे विशेष मेहनत नहीं करनी पड़ी। यह उसके डेली रूटीन में शामिल था। हेडलाइन पर नजर दौड़ाते-दौड़ाते कब उसने चाय पीनी शुरु कर दी थी उसे भी पता नहीं चला। हेडिंग पर दौड़ाई जाने वाली नजर और चाय के घूंटों के बीच वैसा ही तालमेल था जैसा कि कुशल नतर्की के घुंघरुओं और कुशल तबले वादक के तबले के थाप के बीच होता है। जैसे घुंघरुओं की झंकार और तबले की थाप एक साथ रुकती है वैसे ही चाय की अंतिम घूंट के साथ अखबारों के बंडल के अंतिम हेडलाइन पर आकर उसकी नजरें रुकी। चूंकि आज उसका विक्ली आफ था इसलिये थोड़ा आराम करने के मूड में चश्मा हटाया और दुबारा अपने बेड पर लेट गया। नींद उसे नहीं आ रही थी। एक दो बार करवट बदलने के बाद वह उठा और पिछले एक सप्ताह के सारे अखबार लेकर बैठ गया। सारे अखाबरों के संपादकीय और संपादकीय पृष्ठों पर छपी सभी जाने माने महत्वपूर्ण स्तंभकारों के आलेखों को पढ़ने में उसे लगभग तीन घंटे लग गये। इसके बाद वह नीचे बगीचे में आ गया जहां पर बहादुर की बीवी और उसके दो बच्चे खेल रहे थे।
“हां भाई छोटा माओवादी, क्या हालचाल है तेरा?” बहादुर के छोटे बच्चे को संबोधित करते हुये वह बोला। वह हमेशा उस छोटे बच्चे को इसी लहजे में संबोधित करता था और जानता था कि अभी बच्चा को बोलना नहीं आता इसलिये जवाब उसकी मां देगी। ऐसा ही हुआ। छोटे कद और गोरे चेहरे वाली नेपाली महिला ने कहा, “इसके दिमाग पर बुखार चढ़ जाता है। कल इसे फिर अस्पताल ले जाना पड़ा था। इसके दिमाग की जांच के लिए डाक्टर लोग एक हजार रुपये मांग रहे हैं, इसे दिखाना है।”
“इसे प्राइवेट में दिखाने गई थी?”
“हां”
“ पैसे जब ज्यादा लगते हैं तो इलाज ठीक होता है, क्यों?”
“अब क्या करे, बच्चा है, दिखाना तो था ही।”
“ सरकारी अस्पताल में क्यों नहीं दिखाती? प्राइवेट डाक्टरों और डाकुओं में कुछ खास अंतर नहीं होता। डाकू हथियारों के बल पर लूटते हैं और डाक्टर पुर्जी देकर। अच्छा होता तुम अपने बच्चे को सरकारी अस्पताल में दिखाती।” गुनगुने धूम में बैठकर कालविन को उस नेपाली महिला के साथ बात करना अच्छा लग रहा था।
“तुम अपने बच्चे को स्कूल क्यों नहीं भेजती?”, कालविन ने पूछा।
“यहां स्कूल भेजने से क्या फायदा, पंजाब में तो हमलोगों को रहना है नहीं। अपने घर जाऊंगी तब इसको स्कूल भेजूंगी।”
“घर कब जा रही हो?”
“घर जाने के लिए ही तो पैसे जोड़ रहे हैं। पिछली बार कुछ पैसे हुये थे तब बच्चा का तबीयत खराब हो गया था। सारा पैसा उसके इलाज में ही खर्च हो गया। अब पैसे है नहीं।” हिन्दी शब्दों का उच्चारण वह रुक रूक कर करती थी, जिसके कारण उसके शब्दों में रोचकता का अनुभव होता था।
“तुम्हारे सिर्फ दो बच्चे हैं?”
“मेरे चार बच्चे थे। दो अब नहीं रहे। बड़ी मुश्किल से इन दो बच्चों को संभाल रही हूं। जाड़े से बचाने के लिए मुझे अपने बच्चों को रात-रात भर गोद में चिपका कर बैठना पड़ता है। गर्म कपड़े भी नहीं है”, बोलने के साथ-साथ वह अपने चिपचिपे बालों को खोलकर धूम में सूखाने की कोशिश कर रही थी। उसके बाल आपस में उसकी जिंदगी की तरह बुरी तरह से उलझे हुये थे।
“जब बच्चे संभलते नहीं तो उन्हें जन्म क्यों देती हो?”
“मेरे चाहने और न चाहने से क्या होता है। यह तो बहादुर की इच्छा पर निर्भर है।”
“बच्चे पैदा करने का काम तो औरतों का है। यदि तुम नहीं चाहोगी तो बच्चे कैसे पैदा होंगे?”
“बहादुर मारता है।”
“तुम्हारा नाम क्या है?”
“कमला”
“कमला !” गौर से उसके चेहरे की ओर देखते हुये कालविन अपने ख्यालों में खो गया। “अश्वनी सरीन की जंग अभी खत्म नहीं हुई है। समाज में आज भी कमला है, जो अपनी इच्छा के विरुद्ध मां बनती है या जिन्हें मां बनने पर मजबूर किया जाता है। अब इस बात में क्या अंतर है कि औरत को बाजार से खरीद कर मां बनाया जाये या शादी करके उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे मां बनाया जाये। बात तो एक ही है। उस कमला की पीड़ा दुनिया के सामने लाने के लिए तो सरीन मिल गया था, इस कमला की कहानी तो अनकही रह जाएगी। यह फिर अपनी इच्छा के विरुद्ध बच्चे को जन्म देगी और उसकी मौत पर फिर आंसू बहाएगी। यह सिलसिला चलता रहेगा…लेकिन कब तक ? हम पत्रकार सिर्फ कलम ही तो चला सकते हैं …और कुछ नहीं कर सकते। बुराइयों की पड़ताल करना, उनको सामने लाना एक बात है और उनका सशक्त निदान करना और उसके लिए अंतिम सांस तक लड़ना दूसरी बात है। हम समाज को सिर्फ आइना दिखाते हैं, उसकी सूरत बदलने की कोशिश नहीं करते। जबकि जरूरत है बिना नकाब पहने जंग करने की। ” अपनी आदत के अनुसार वह सोंचता जा रहा था। अचानक एक कुतिया के केकियाने की आवाज से उसकी तंद्रा टूटी। बहादुर का बड़ा बेटा उसकी कान उमेठ रहा था।
“उसे परेशान मत करो, इधर आओ,” कालविन ने कहा।
बच्चा कुतिया को छोड़कर भागता हुआ उसकी तरफ आया। कालविन ने अपनी पर्स से एक दस का नोट और एक कागज निकाला और अपनी कलम से कागज पर अंग्रेजी में “विल्स सिगरेट” लिखा और लड़के की ओर बढ़ाते हुये बोला, “सामने की दुकान से दो सिगरेट लेते आओ, इसमें सिगरेट का नाम लिखा है, और हां, अपने लिए दो टाफियां भी ले लेना।” उस दस वर्षीय लड़के का चेहरा भी अपनी मां की तरह पूरी तरह से गोल था। कानों में कुंडल पहने रखे थे। उसका पैंट पीछे से पूरी तरह से फटा हुआ था, लेकिन उसे इसका जरा भी अहसास नहीं था। पैसे लेकर वह कैंपस से बाहर निकल गया।
“तुम लोग जालंधर कैसे आ गये ? अपने देश में ही काम करना चाहिये था।?” कमला की ओर देखते हुये उसने पूछा।
“हमलोग नगालैंड के लिए घर से निकले थे। बहादुर का भाई पहले से जालंधर में किसी फैक्टरी में काम करता था। हमें यहां आकर कुछ पैसा कमाने को कहा ताकि नगालैंड आसानी से जा सके। यहां आने के बाद हम यहीं पर रह गये। अब पिछले चार साल से जाने की सोंच रहे हैं, लेकिन जाने के लिए पैसे नहीं है। इस मकान का सरदार भी जाने नहीं देता। कहता है- यहीं रहो, सबकुछ ठीक हो जाएगा। ”
इसी बीच दो नेपाली औरतें और आ गईं। एक गर्भवती थी जबकि दूसरी औरत की बालों की सफेदी बता रही थी कि उसकी उम्र पचास से ऊपर है। बहादुर का बड़ा बेटा भी सिगरेट लेकर लौट आया था। उसके हाथों से सिगरेट लेते हुये कालविन ने औरतों से पूछा, “ सिगरेट पीनी है?”
“हमलोग नहीं पीते, ये पीती है”, बुढ़िया की तरफ इशारा करते हुये गर्भवती महिला ने कहा।
कालविन ने उसकी तरफ एक सिगरेट बढ़ाया, जिसे हिचकते हुये उसने दुर्बल हाथों में ले लिया। थोड़ी ही देर में वह सिगरेट को बीड़ी के स्टाइल में पी रही थी। उनकी बातों और उनके शरीर से उठने वाली पसीने की बदबू से कालविन को उबकाई आने लगी और इस माहौल से बाहर निकलने के लिए वह उठकर मुख्य दरवाजे की ओर बढ़ चला।
वह मुख्य दरवाजे के बाहर धुल से भरी हुई सड़क पर आगे बढ़ता जा रहा था। अगल-बगल की फैक्ट्रियों की काली धुआंओं ने धुल में मिलकर सड़क को पूरी तरह से मटमैला बना दिया था। उसी समय एक मारुति कार तेजी से धूल उड़ाते हुये उसके बगल से निकली। अपने आप को धूल से बचाने के लिए वह सड़क के किनारे लगे फैक्टरी की दीवार से चिपक गया। कुछ देर बाद वह मुख्य सड़क की ओर बढ़ा।
मुख्य सड़के के इर्द-गिर्द बनी छोटी-छोटी चाय और पान की दुकानों के आसपास खड़े गंदे कपड़ों में लिपटे लोगों की तरफ उसका जरा भी ध्यान नहीं गया। वह इनलोगों और इनकी बातों का अभ्यस्त हो चुका था। जालंधर में इनलोगों को भइया कहा जाता था। यहां के सामाजिक स्तर में उनकी वही स्थिति थी जो वर्ण व्यव्स्था में शुद्रों की हैं। वैसे तथाकथित ये गंदे लोग न सिर्फ जालंधर की बल्कि पूरे पंजाब की अर्थ व्यवस्था के रीढ़ थे। पंजाब के कृषि और उद्योग का बोझ इनलोगों ने अपने कंधों पर उठा रखा था। इसके बदले में इन्हें चंद रूपये मिल जाते थे, जिनमें से कुछ रुपये अपने पास रखकर बाकी के बचे हुये अपने घर भेज देते थे।
तभी उसकी नजर कुछ लड़कियों पर पड़ी, जो अपने हाथों में लोहे के छोटे-छोटे टुकड़े लेकर बड़ी कुशलता से सड़के के किनारे फैक्टरियों के पड़े कचड़ों को हटा रही थीं। जिंदगी के इस रंग को देखने की इच्छा को वह रोक नहीं सका और उत्सुकता वश उनके करीब चला गया। विभिन्न सूरतों वाली चार-पांच लड़कियां अपने काम में पूरी तरह तल्लीन थी। अगल-बगल क्या हो रहा है उन्हें कुछ भी पता नहीं था।
“ये तुमलोग क्या कर रही हो ?”, उन लड़कियों की तरफ मुखातिब होते हुये कालविन ने पूछा।
“प्लास्टिक के टुकड़े इकट्ठा कर रहे हैं”,उन लड़कियों में एक ने नजरें उठाकर जवाब दिया। उसके सीने के उभार बता रहे थे कि वह जवानी के दहलीज पर कदम रख चुकी है।
“इनका क्या करोगी ?”
“इनको बेचने से पैसे मिलेंगे।”
“दिनभर में कितने पैसे बना लेती हो?”
“दस-पंद्रह रुपये”
“कहां की रहने वाली है?”
“राजस्थान की”
“यहां कब से हो? ”
“पांच साल से”
“वहां काम नहीं था? ”
“वहां खाने के लिए कुछ भी नहीं मिलता था। कई-कई दिन भूखों रहने पड़ते थे। फिर पिता जी यहां चले आये, और हमलोग यह काम करने लगे। बाबू जी, यदि कुछ पैसे दे दोगे तो चाय-पानी पी लेगें।”
“पैसे मैं नहीं दे सकता”, कालविन ने खीजते हुये कहा और वहां से आगे बढ़ने लगा। कुछ दूर आगे बढ़ने के बाद वह पीछे पलटने पर मजबूर हो गया। दृश्य काफी रोचक था। सारी की सारी लड़कियां एक साथ सड़कों पर से पत्थर उठा-उठा कर दो-तीन लड़कों पर बरसा रही थीं। लड़के अपना बचाव करते हुये तेजी से भाग रहे थे।
कालविन सड़क पर पड़े हुये दो पत्थरों को अपने हाथ में उठाकर बुदबुदाने लगा, “तो चौबीस घंटे सड़कों पर बसर करने वाली लड़कियों ने जीने का अंदाज सीख लिया है। पत्थर! वाह यह भी क्या चीज है! जानवरों से रक्षा करने के लिए इंसान का सबसे पहला हथियार! आणविक युग में भी इसकी महत्ता में कमी नहीं आई है। ”
कुछ दूर आगे जाने के बाद उसने अपने हाथों में पड़े दोनों पत्थरों को आपस में कई बार टकराया और उनसे निकलने वाली चिंगारी को गौर से देखने के बाद दायां हाथ में पड़े पत्थर के टुकड़े को अपनी नाक के पास ले गया और सांस को जोर से अंदर की ओर खींचा। बारुद की सोंधी-सोंधी महक उसके फेफड़े में प्रवेश करती चली गई और इसके प्रभाव में आकर उसका दिमाग हिचकोला खाता हुया “प्राकृतिक युग” की सैर करने लगा।
“इन सख्त पत्थरों ने इनसान की जिंदगी को कितना आसान बनाया है। इसने इनसान को आग दी, जिसने जिंदगी को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कला और सभ्यता की नींव भी तो इन्हीं पत्थरों पर टिकी हुई है। इन्हीं पत्थरों से मंदिर बने, और मस्जिद भी, गुरुद्वारे और चर्च भी तो इन्हीं पत्थरों से बने, राजाओं के महल और जेल भी इन्हीं पत्थरों से बने हैं। कमाल के चीज हैं पत्थर! बड़े-बड़े क्रांतियों को इसने दिशा दी, सत्ता के खिलाफ चलने वाला पहला हथियार पत्थर ही है…चाहे स्पार्टकस का विद्रोह हो, या फ्रांस की राज्य क्रांति या रूस की वोलशेविक क्रांति…सभी जगह सबसे पहले सत्ता के खिलाफ जन असंतोष पत्थरों के रूप में ही बरसा…”मोटरगाड़ियों की तेज चीखों और पेट्रोल के गंध से कालविन को अपने अगल-बगल के भौतिक चीजों का अहसास हुआ। उसने अपने आप को शहर के बीचो-बीच किसी चौराहे पर खड़ा पाया। ट्रैफिक की भीड़ उसके कदमों को ब्रेक लगा चुकी थी। थोड़ी देर तक उसी स्थिति में खड़ा रहने के बाद वह बड़ी मुश्किल से आगे बढ़ा।
कुछ दूर यूं ही चलने के बाद उसे सड़के किनारे शराब की एक छोटी सी दुकान दिखी।
“क्या यहां शराब मिलेगी?”, उसने दुकान में बैठे एक लड़के से पूछा।
“शराब की दुकान में शराब नहीं तो क्या प्रसाद मिलेगा”, लड़के ने बेबाकी से कहा।
“बहुत अच्छे बेटे, ये बताओ कि कौन-कौन से ब्रांड है?”
“आपको कौन सा चाहिये?”
“वोदका, रुसियों ने कड़ाके की सर्दी में वोदका पी-पीकर ही नेपोलियन और हिटलर की सेनाओं के छक्के छुड़ाए थे।”
“साहब वोदका नहीं है।”
“हां, तो फिर ऐसा करो अपनी पसंद की कोई लोकल शराब दे दो। इतना ध्यान रखना कि शराब तेज होनी चाहिए।”
लड़के ने देशी रम की एक बोतल उसकी तरफ बढ़ाया जिसपर अंग्रेजी में लिखा था, “सेल वन्ली इन पंजाब।”
“हम्म, तो पंजाबी शराब पर भी अंग्रेजी का ठप्पा लगाया जाता है,” बोतल को अपनी हाथों में पकड़ते हुये उसने कहा। लड़के के कहे मुताबिक उसने पैसे चुका दिये। लड़के ने कहा,“ बगल में हाता है, वहां बैठकर पी सकते हो। इसके साथ कुछ खाने को भी मिल जाएंगे।”
“धन्यवाद”, यह कहते हुये वह हाता में बैठ गया और काफी देर तक पीता रहा। एक बाद एक कई बोतल खुलते चले गये।
सूरज पूरी तरह से पाला बदल चुका था। पृथ्वी के इस भाग पर सूरज की शक्ति छिन होते ही आसमान में नन्हें-नन्हें तारों ने मुस्कराना शुरु कर दिया था। हवा और भी ठंडी होती जा रही थी। नशे में चूर होने के बाद लड़खड़ाते हुये वह हाता के बाहर निकला और एक रिक्शेवाले को आवाज देते हुये उस पर बैठ गया। आधी बोतल अभी भी उसके हाथ में थी। अपने घर का पता रिक्शेवाला को बताने के बाद वह घूंट मारने लगा।
“साहब, शराब पी रहे हो?”, रिक्शेवाले ने बिना सिर घुमाये पूछा।
“हां, क्यों?”
“नहीं, ऐसे ही पूछा। सुना है बहुत खराब चीज है शराब।”
“सिर्फ सुना ही है या चखा भी है?”
“साहब पहले मैं ट्रक चलाता था और तुम जानते ही हो कि एक ट्रक ड्राइवर और शराब के बीच क्या रिश्ता होता है,” रिक्शे वाले ने जवाब दिया।
“बहुत खुब आदमी दिलचस्प हो, दिनभर में कितना कमा लेते हो?”
“साहब, एक रिक्शा चालक और एक रंडी की कमाई का कोई ठीक नहीं होता।”
“जरा रिक्सा को साइड में रोकना, एक सिगरेट जला लूं।”
“साहब,लाल बत्ती पार कर जाने दो।”
लालबत्ती पार करने के बाद रिक्शेवाला एक खोखे के सामने रुका। एक नेवी कट को अपने होठों से लगाने के बाद कालविन ने रिक्शा आगे बढ़ाने को कहा। बात का सिलसिला फिर से शुरु हो गया।
“साहब, इस शहर में मैं पिछले 17 साल से काम कर रहा हूं। पहले मैं ट्रक चलाता था। एक दिन शराब के नशे में एक्सीडेंट हुआ, मेरा एक दोस्त उसमें मारा गया। उसके बाद से में रिक्शा चलाने लगा। इस शहर में मैं अपनी पहचान खो चुका हूं। सिर्फ भइया बनकर रह गया। भइया- जो साला कुछ भी नहीं जानता, जो सिर्फ गालियां सुनने के लिए ही यहां रह रहा है। ऐसा नहीं है कि मैं यहां अकेला हूं। मेरे जैसे कई सौ लोग हैं यहां, लेकिन अपनी पहचान किसी की भी नहीं है। सब के सब भइया है..”बातों का सिलसिला चलता रहा और कालविन अपने घर के करीब पहुंच गया।
कालविन ने अपने पर्स से दस-दस के दो नोट निकाले और उसकी तरफ बढ़ा दिये। अपने घर की तरफ बढ़ते हुये वह लड़खड़ा रहा था। ठंडी हवा उसके चेहरे से टकरा रही थी। वह ऊंची आवाज में गाने लगा, “यहां कौन है तेरा, मुसाफिर जाएगा कहां…दम ले..”। नशे में होने के बावजूद उसकी आवाज सधी हुई थी। ऊंची आवाज में उसे खुद का गाना सुनना अच्छा लग रहा था। कोठी के पास आकर जैसे ही उसने दरवाजा खोला एक कुतिया तेजी से भूंकती हुई उसकी तरफ लपकी।
“क्यों हसीना आज तू भी मुझपर भूंक रही है”, कुतिया की तरफ हाथ बढ़ाते हुये कालविन ने कहा।
इतना सुनते ही कुतिया पूंछ हिलाते हुये उसके कदमों में लोटने लगी। वह नीचे बैठकर अपना हाथ हौले हौले उसके सिर पर हिलाने लगा। फिर वह अपने कमरे की तरफ बढ़ा। दरवाजा खोलकर वह अपने कमरे में दाखिल हुआ और अंधेरे में टटोलते हुये उसने स्वीच आन किया। इसके बाद हीटर का बटन भी दबा दिया। थोड़ी देर आराम से बैठने के बाद लिखने की इच्छा जोर मारने लगी। बेड पर एक कोने में पड़ी हुई अपनी डायरी को उठाया और अपनी उंगलियों में कलम फंसाकर उसे पन्नों पर घिसने लगा- “अपनी युवावस्था में मुसोलिनी एक पत्रकार के रूप में रोम की सड़कों पर भटकता रहता था, बाब्यूयेफ को कलम चलाने के जुर्म में सिर्फ 24 वर्ष के उम्र में गिलोटीन पर चढ़ा दिया गया था …वाल्तेयर भी तो पत्रकार ही था…मैं भी तो पत्रकार ही हूं…मैं लिखूंगा…मार्क्स की तरह लिखूंगा…ऐंजेल्स और लेनिन की तरह लिखूंगा…वह दिन जरूर आएगा जब… ” वह तब तक लिखता रहा जबतक कि वह पूरी तरह थक नहीं गया। अधूरे शब्द, अधूरी बात और अधूरे सपनों के साथ वह सो गया, हालांकि डायरी पूरी तरह से भर चुकी थी।
सुबह आंख खुली तो एक बार फिर अखबार के बंडल उसके पास पड़े थे। अखबार के बंडल को खोलते हुये उसने अपने आप से कहा, – “साला यहां लोगों को खाने के लिए पैसे नहीं मिलते और तुझे रम का बोतल गटकने के लिए विक्ली आफ चाहिये…”
I was just talking with my friend about this the other day at Outback steak house. Don’t remember how we got on the topic actually , they brought it up. I do recall eating a wonderful steak salad with sunflower seeds on it. I digress…