एक बड़ी गूंज है पीजे थॉमस पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला

सुप्रीम कोर्ट द्वारा पीजे थॉमस को केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) के पद से हटाए जाने के बाद सरकार और उसकी नीतियों पर एक बड़ा प्रश्न खड़ा हो गया है। विवादास्पद थॉमस को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय हाई पावर कमेटी (एचपीसी) ने 7 सितंबर 2010 में नियुक्त किया था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन नियुक्तियों का खेल आखिर चलता कैसे है। आम आदमी तो नियुक्ति की इस प्रक्रिया को समझता ही नहीं। उसे तो सिर्फ अखबार और टीवी चैनलों की सुर्खियां से मालूम होता है कि इन बड़े पदों पर इन महानुभावों को नियुक्त किया गया है।

नियुक्ति की प्रक्रिया को सरकार द्वारा नीतिगत मामलों के रुप में प्रस्तुत किया जाता है। देश के बच्चे केंद्रीय सतर्कता आयुक्त ,मुख्य चुनाव आयुक्त आदि पदों पर पहुंचनें का सपना भी नहीं देखते। ये बच्चे सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीश होने का सपना भी नहीं देखते। ऐसा मालूम पड़ता है कि सरकार के नीतिगत फैसलों पर आधारित नियुक्तियों पर आम बच्चे सपना भी देखने का अधिकार नहीं रखते। सरकार के इस वर्गीय चरित्र को सुप्रीम कोर्ट ने थॉमस पर दिए अपने फैसले से एक हल्का सा धक्का मारा है जिसने बड़ी सी गूंज पैदा की है।

चीफ जस्टिस एसएच कपाड़िया, स्वतंतर कुमार और केएस राजाकृष्णन की पीठ ने अपने फैसले में कहा कि “एचपीसी ने उन महत्वपूर्ण सामग्रियों और तथ्यों पर विचार नहीं किया जो थॉमस की नियुक्तियों से सीधा संबंध रखते थे। नीतिगत फैसले लेने पर सरकार कोर्ट में जबावदेह नहीं है। लेकिन इन फैसलों की कानूनी वैधता के लिए वह जबावदेह जरुर है। हम एचपीसी के फैसलों के खिलाफ अपील पर नहीं बैठ रहे हैं बल्कि यह देख रहे हैं कि एचपीसी ने निर्णय की प्रक्रिया में उपयुक्त साम्रगी पर विचार किया या नहीं”। वास्तव में थॉमस की नियुक्ति का प्रश्न बहुत बड़ा है। एक ओर जहां इन नियुक्तियों का सूत्रधार सरकार होती है वहीं इसकी वैधता संविधान के आधार पर खड़ी है।

देश की आजादी के संघर्ष से निकले महारथियों ने नि:स्वार्थ भाव से सांविधानिक प्रावधानों को रचा जो देश की तिकड़मी प्रजातांत्रिक राजनीति में स्वार्थ सिद्ध करने का साधन बनते गये। आम जनता को इन नियुक्तियों से गुमराह किया जा रहा है। उन्हें सांविधानिक प्रावधानों का झांसा दिया जा रहा है। जिस जनता ने सरकार को नीतियां बनाने और चलाने की ताकत दी उसी जनता को नीतिगत मामले से दूर रहने की सलाह दी जाती है। जनता के लिए बैठी अदालत को सरकार समझाती है कि नीतिगत फैसले लेने पर सरकार कोर्ट में जबावदेह नहीं है।

थॉमस को अपने पद से हटाए जाने का मामला नीति से नहीं बल्कि भ्रष्टाचार से जुड़ा मामला है और एक तरह से सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार पर सरकार को ललकारा है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध उभरती जन भावना को आवाज दी गई है। 1973 के बैच के आईएएस अधिकारी पीजे थॉमस को सरकार ने सीबीसी के पद पर नियुक्त किया जबकि उनके  खिलाफ पामोलिन आयात मामले में केस दर्ज था। समझने की बात यह है कि इन संवैधानिक पदों पर नियुक्तियों की गैर प्रजातांत्रिक प्रक्रिया भ्रष्टाचार को जन्म दे रही है। यही नहीं, इन प्रक्रियाओं में योग्यता और प्रतिभा की हत्या की जा रही है। अपने को बङा सेटर साबित करने का खेल इन प्रक्रियाओं से चल रहा है। सरकार में अपनी पकड़ बनाने का दंभ भरा जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में हर पार्टी की राजनीति साथ-साथ खड़ी है। यह व्यवस्था का शिखर है जहां भ्रष्टाचार का पोषण हो रहा है। संविधान बनाने वालों के नि:स्वार्थ भावना का व्यापार हो रहा है। कांग्रेस वही कर रही है जो होता आया है। लेकिन न्याय और जनता की भावना उभार पर है। समय खुद ही इस पुरानी परिपाटी को ठोकर मार रहा है।

लालकृष्ण आडवानी कहते हैं कि पिछले साठ साल में ऐसा कभी नहीं हुआ कि प्रधानमंत्री द्वारा की गई किसी नियुक्ति को उच्चतम न्यायलय ने गैर- कानूनी घोषित किया हो। प्रधानमंत्री ने कहा है कि मैं कोर्ट के फैसले का सम्मान करता हूं। लेकिन यह बात सुप्रीम कोर्ट की भूमिका और इस औपचारिक सम्मान पर खत्म नहीं होती। विपक्षी दलों की राजनीतिक गति भी तेज हो गई है और संभव है वे इसका कांग्रेस के विरुद्ध माहौल बनाने में सफल उपयोग भी करें, लेकिन मौलिक प्रश्न लोकतंत्र के संस्थानों की मजबूती का है, उनके पदों की नियुक्ति प्रक्रिया की पारदर्शिता का है जिसपर कोई आवाज नहीं उठाई जा रही है।

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